[विकास सारस्वत]। हिंदू समाज को पिछले दिनों फिर एक और चुनौती तब मिली जब झारखंड सरकार ने सरना धर्म कोड बिल को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर पारित करवा दिया। लगभग चार दशक से समय-समय पर उठती रही इस मांग को सत्ताधारी झारखंड मुक्ति मोर्चा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में भी शामिल किया था। सरना धर्म कोड बिल के समर्थन में दलील दी गई है कि आदिवासियों- वनवासियों की धार्मिक पहचान हिंदू न होकर पृथक सरना धर्म से है और इस कारण केंद्र सरकार जनगणना के लिए निर्धारित फॉर्म में छह प्रमुख धर्मों के बाद सातवां कॉलम सरना धर्म के लिए उपलब्ध कराए। उल्लेखनीय यह है कि क्या वास्तव में वनवासी हिंदू समाज से पूरी तरह भिन्न हैं?

संविधान निर्माताओं की नजर में वनवासी हिंदू समाज के अभिन्न अंग हैं और उसी हिंदू समाज में पनपे विभेद का संज्ञान लेते हुए अनुच्छेद 342 के तहत वनवासियों को जनजाति का दर्जा और संबंधित लाभ देने के प्रावधान किए गए। इसी मंतव्य से 1961 की जनगणना में जनजातियों की अलग से प्रविष्टि का प्रावधान हटा लिया गया था। एक और अहम बात यह है कि यदि कोई समूह अपनी विशिष्ट धार्मिक पहचान बनाकर आरक्षण का लाभ लेना चाहे तो संविधान उसकी भी इजाजत नहीं देता।

सरना कोड पास कर केंद्र सरकार को भेजने की हुई थी मांग

सरना धर्म कोड के समर्थन में यह तर्क दिया गया कि वनवासियों को हिंदू और ईसाई खेमों में खींचने के प्रयास बंद हों और उन्हें अपनी पहचान स्वयं निश्चित करने दी जाए, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इस पूरी कवायद में कैथोलिक चर्च बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है। रांची के आर्चबिशप फीलिक्स टोप्पो ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पत्र लिखकर वनवासियों की भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान बनाए रखने के लिए सरना कोड पास कर केंद्र सरकार को भेजने की मांग की थी। कैथोलिक बिशप्स के एक समूह ने तो राज्य सरकार से यह मांग भी की है कि यदि केंद्र सरकार 2021 की जनगणना से पहले सरना धर्म कोड को मान्यता नहीं देती तो राज्य में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर पर काम रोक दिया जाए। पूरी प्रक्रिया में कैथोलिक चर्च की सरगर्मी जताती है कि सरना धर्म कोड की मांग उतनी सीधी नहीं है, जितनी बताई जा रही है। वनवासियों को हिंदू समाज से तोड़ने का लाभ अंततोगत्वा ईसाई मिशनरियों को ही मिलने वाला है।

‘सरना’ शब्द का प्रचलन केवल रांची के आसपास 

दरअसल जिस सरना धर्म के लिए अलग से जनसांख्यिकी प्रावधान की मांग की जा रही है, न तो उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है और न ही ‘सरना’ शब्द का जनजातीय शब्दावली में कहीं उल्लेख है। जिस ‘सरना’ शब्द का प्रचलन केवल रांची के आसपास के चार-पांच जिलों तक सीमित है, उसका आशय भी धार्मिक मान्यताओं से नहीं, बल्कि उन पवित्र साल या महुआ वृक्षवाटिकाओं से है जिन्हें वनवासी पूज्यनीय मानते हैं, परंतु इन सरना स्थलों की पूजा जनजातीय एवं गैर जनजातीय दोनों ही लोग समान रूप से करते हैं। 

जनजातीय बंधुओं के वृहत हिंदू समाज से जुड़ाव को दर्शाती हैं ये रस्में

पूजा के दौरान विशेष दिनों में अग्नि प्रज्वलित न करना, बोंगा पूजा, पितरों का अनुष्ठान एवं पशुधन पूजा आदि का अनुसरण गैर जनजातीय भी उसी श्रद्धा भाव से करते हैं। वनवासियों में जन्म से लेकर मृत्यु तक तमाम जनजातीय संस्कार एंव रीति-रिवाज हिंदुओं की ही भांति हैं। सिंदूर की रस्म, बलि, पूजा के बाद प्रसाद वितरण, अस्थि विसर्जन, जन्म तथा मृत्यु के बाद अशौच की कल्पना, व्रत, मृत्यु उपरांत भोज, श्राद्ध, धरती मां की कल्पना, जन्म के बाद छठी मनाना एवं माघ पर्व ऐसी तमाम बातें हैं, जो जनजातीय बंधुओं के वृहत हिंदू समाज से जुड़ाव को दर्शाती हैं। गैर जनजातीय हिंदुओं की तरह जनजातीय समूहों में भी गोत्रों का विशेष महत्व है और स्वगोत्रों में विवाह पूर्णत: निषिद्ध होते हैं।

जनजातीय लोग बड़े स्तर पर न सिर्फ शिव, पार्वती और दुर्गा की पूजा करते हैं, बल्कि उनके नामकरण भी हिंदू देवीदेवताओं के नामों पर होते हैं। स्वयं मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पिता का नाम शिबु यानी शिव पर है तो उनके दिवंगत बड़े भाई का नाम दुर्गा सोरेन था। दुर्गा सोरेन की पत्नी का नाम सीता सोरेन है, जो अभी जामा से विधायक हैं।

रामायण और महाभारत की कथाओं का प्रसार

छत्तीसगढ़ के वनवासियों में तो रामायणी और पांडविनी के माध्यम से रामायण और महाभारत की कथाओं का प्रसार भी होता है। झारखंड में ऐसे कई मंदिर हैं, जिनमें सर्वसमाज पूजा के लिए आता है, परंतु पुजारी वनवासी समुदाय से आते हैं। रांची के प्रसिद्ध देवरी मंदिर के पुजारी मुंडा जनजाति से और प्राचीन टांगीनाथ धाम के पुजारी बैगा जनजाति से आते हैं। इसी प्रकार गुमला के अंजनी धाम के पुजारी उरांव जनजाति से आते हैं। इसी प्रकार झारखंड में कई स्थानों पर सर्व समाज राधा-कृष्ण लीला के रास मेले भी आयोजित करता है। यह हास्यास्पद है कि इतने घुले-मिले समाज की रीति, परंपराओं और पहचान की लड़ाई लड़ने का दम वे ईसाई संथाल कर रहे हैं जो स्वयं जनजातीय जीवनशैली से पूरी तरह कट चुके हैं।

हिंदू मूलत: हैं प्रकृति पूजक

प्रकृति पूजा और जीवात्मवाद का पुट हिंदू धर्म में इतना गहरा है कि अंग्रेजी शासन में भी वनवासियों के लिए जनगणना में अलग प्रावधान के बावजूद तत्कालीन अधिकारियों ने बार-बार माना कि यह भेद कृत्रिम एवं अव्यावहारिक है। हिंदू मूलत: प्रकृति पूजक हैं और इस नाते जनजातीय जीवात्मवाद और हिंदू धर्म में कोई स्पष्ट भेद नहीं किया जा सकता। साफ है यथार्थ से परे और अव्यावहारिक सरना धर्म कोड की मांग वनवासी हित में कम, समाज में टकराव और जनजातीय वर्ग को मोदी सरकार के खिलाफ लामबंद करने का प्रयास अधिक नजर आती है। 

जनजातीय मामलों के जानकार इस विषय को पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम यानी पेसा एक्ट, 1996 के अंतर्गत पांचवीं अनुसूची में देय प्रावधानों से जोड़कर भी देखते हैं। फिलहाल इन प्रावधानों के अंतर्गत आरक्षित एकल पदों का लाभ केवल रूढ़ि और परंपरा से परिभाषित जनजातियां ही ले सकती हैं, परंतु सरना धर्म कोड आने के बाद परिभाषा लचीली हो जाएगी और धर्मांतरित ईसाई भी इसका लाभ ले सकेंगे। हालांकि कुछ एक जनजातीय मंचों ने इस बिल का विरोध भी शुरू कर दिया है, पर यह मांग आने वाले समय में क्या रूप लेगी यह भविष्य ही बताएगा? इतना जरूर तय है कि जब तक हिंदू समाज जाति भेदों को मिटाने की दिशा में सक्रियता नहीं दिखाएगा, ऐसी चुनौतियां उसके समक्ष आती रहेंगी।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं स्तंभकार हैं) 

(लेखक के निजी विचार हैं)