[ साकेत सूर्येश ]: छगनलाल हमारे प्रिय मित्र है। प्रिय माने वैसे जैसे मोदी के शाह और केजरीवाल के अमानतुल्ला खान। हमारा उन पर अपार स्नेह है। छगनलाल जी क्रांतिकारी विचारों से भरे रहते हैं। उनके विचार मस्तिष्क से उदर तक ऐसे भरे हैं कि यदि विचार हाइड्रोजन होते तो हमारे मित्र ग़ुब्बारे बनकर गगन मे पहुंच चुके होते। मित्र अविवाहित हैं और ऑफिस के सभी विवाहित मित्रों को देखकर उदास होते रहते हैं। हमने उन्हें कई बार समझाया कि दुखी रहते हुए प्रसन्न दिखने की कला विवाहित पुरुष और मध्यवर्गीय वोटर मे प्रचुर मात्रा में होती है और इसका उपयोग वे प्राय: कुंआरे लोगों और राजनीतिक दलों को मूर्ख बनाने में करते हैं।

मध्यवर्ग की इच्छा का मापदंड राष्ट्रीय त्योहार पर और विवाहित पुरुष की प्रसन्नता का अनुमान पत्नी के मायके जाने पर खिले हुए मुख के आधार पर नहीं लगाना चाहिए। कम ही लोग होते हैं जो वास्तविक रूप से विवाहित भी हों और प्रसन्न भी। किंतु भोला छगन नहीं मानता। कहता है कि टिफिन मे कोफ्ते खाकर उसे कोफ्त होने लगी है और वह भी चाहता है कि विवाहित सहकर्मियों की भांति वह भी लौकी और टिंडा खा सके। इसी विचार के साथ छगन गांव को चल दिया। माता पिता ने चार कन्याएं देख कर रखी थीं।

छगन भी कृतसंकल्प था कि इस बार न सिर्फ कन्या तय होगी, वरन विवाह भी। ऐसा नहींं है कि छगन ने एक मुक्तमना बुद्धिजीवी की भांति स्वयं कन्या ढूंढ़ने का प्रयास नहीं किया। बीच मे एक कन्या के साथ मित्रता भी रही, फिर एक दिन वह रिश्ता भी काल-कवलित हो गया। छगन के विवाह-अभियान पर प्रस्थान के पश्चात 15 दिन तक शांति और कयासों का बोलबाला रहा। फिर खबर आई कि छगन का ब्याह हो गया है। उसके 15 दिन बाद छगन वापस दफ्तर में था।

सब उत्सुक थे कि क्या छगन की कोफ्ते की कोफ्त समाप्त होगी और वह टिंडर समाज से निकल कर टिंडा समाज में पदार्पण कर प्रताड़ित विवाहित पुरुष समाज का सदस्य बनेगा? छगन बहुत प्रसन्न था। लंच के समय उसने फिर टिफिन ऑर्डर किया। हमने पूछा, ‘काहे छगन भैया, दुलहिन माडर्न है? तरकारी नही बनाती है? ब्याह तो हो गया न तुम्हारा?’ छगन ऐंठ कर बोले, ‘ब्याह काहे नहीं होगा? हुआ है।’हम कहे- फिर टिफिन? भाभीजी फेमिनिस्ट हैं या पाक विधा पाकिस्तानी मानती हैं? हमें कब मिलवाएंगे? ‘देखिए, मिलवा तो न सकेंगे।’ छगन मनन करते हुए बोले। ‘काहे? भाभीजी परदा करती हैं? हिजाब इज माय च्वायस वाली हैं?’

छगन ने हमारे चेहरे को टटोला, आकलन किया कि क्या यह अल्पज्ञानी उनके ज्ञान का प्रताप सहन करने की सामथ्र्य रखता है? सब तय कर के, हमारी समझ को उत्तीर्ण करते बोले। ‘देखिए, हमारे घरवालों ने जो चार कन्याएं हमारे लिए चयनित कर के रखी थीं वे चारों ठीक थीं। एक हमें पसंद भी आई। सौंदर्य अप्रतिम, वाक् चातुर्य, स्नेहशील, मृदुभाषी विदूषी कन्या.... ’ छगन भाई विचारों मे खो गए। ‘वाह, तो आपने उससे विवाह किया’ हमने भाभियों वाले अंदाज में छेड़ा।

जीडीपी दर की तरह उठता चेहरा कांग्रेस के वोटशेयर सा गिर गया । ‘अरे नहीं हमारी नजर उसके पैर की छगनी अंगुली पर पड़ गई, दाएं पांव की छगनी अंगुली का नाख़ून टूटा हुआ था। क्या करते, मना करना पड़ा।’ ‘ओह, तो असफल अभियान रहा।’ हम चिंतित हो गए। हमने छगन के चेहरे में दुख -विषाद की रेखाएं तलाशीं, किंतु मित्र का चेहरा जिले की वार्षिक स्पर्धा मे प्रथम आए तरबूज की भांति स्वस्थ और प्रसन्न था।’ तो विवाह नही हुआ?’ हम धीरे से बोले। ‘काहे नहीं होगा?’ छगन ने एक बुद्धिजीवी वाली हेय दृष्टि हमारी ओर फेंकी तो हमने कृतज्ञ मध्य वर्ग की तरह उसे स्वीकार किया। छगन बोले- ‘हम मूर्ख नहीं हैं कि विवाह की संस्था का विरोध करें। विवाह हमने बराबर किया। दुर्भाग्य यह कि मानव समाज कि इसकी कोई कन्या हमसे विवाह योग्य न हुई।’

छगन भाई भारत पर छाए आभासी आपातकाल की तरह खड़े हो गए और बोले, ‘हम नोटा से ब्याह कर के आए हैं। हम कर्मशील जागरूक व्यक्ति हैं और कर्मपालन से पीछे नही हटते हैं। विवाह हमने किया और गृहस्थ धर्म में बाकायदा कदम रखा। कन्या नहीं है न सही, नोटा ही सही। हमारा प्रेम आत्मिक है, हमारी आवश्यकताएं दार्शनिक। हम ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो व्यक्ति से, किसी भी व्यक्ति से प्रेम करता है।

हमारी निष्ठा एक भावना, एक सिद्धांत पर है। नोटा अर्थात ‘इनमें से कोई नहीं’ को ही हमने पत्नी स्वीकार किया। हमारा यह चयन न सिर्फ हमारी बौद्धिक परिपक्वता का परिचायक है, यह उस प्रकृति और मानव समुदाय के गाल पर एक बुद्धिजीवी तमाचा है जो एक संपूर्ण, दोषरहित नारी के अस्तित्व से वंचित है। जब कभी मानव परिणय का इतिहास लिखा जाएगा, हमारे इस नोटा निर्णय की चर्चा अवश्य होगी।’

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]