[ गुरु प्रकाश ]: आगामी स्वतंत्रता दिवस के साथ ही वह समय और करीब आ जाएगा जब भारत अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे करेगा। स्वाभाविक रूप से ऐसे अवसर इसकी गहन समीक्षा के लिए उपयुक्त समय होते हैं कि भारत ने क्या अर्जित किया? स्वतंत्रता के समय ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल समेत कई विदेशी नेताओं ने भारत के भविष्य को लेकर संदेह प्रकट किया था। उन्होंने मुख्य रूप से यह सवाल उठाया था कि दक्षिण एशिया के मध्य में स्थित भौगोलिक रूप से इस विशाल और सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से विविधतापूर्ण राष्ट्र में वेस्टमिंस्टर मॉडल वाले लोकतंत्र का क्या हश्र होगा? ऐसे प्रश्न आजादी के बाद तक के कालखंड में भी उठाए गए, लेकिन उन सभी संदेहों और शंकाओं को ध्वस्त करते हुए आज न सिर्फ हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है, बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों को साथ लेकर लगातार आगे बढ़ रहा है और फल-फूल रहा है।

सात दशकों से अधिक समय की यात्रा में लोकतंत्र और मजबूत बनकर उभरा

बीते सात दशकों से अधिक समय की यात्रा में लोकतंत्र एवं उसके विभिन्न संस्थान और भी मजबूत बनकर उभरे हैं। दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र कहे जाने वाले अमेरिका के साथ तुलना करें तो जहां अमेरिका में अभी तक कोई महिला राष्ट्राध्यक्ष नहीं बन पाई वहीं भारत ने शुरुआती दशकों में ही इंदिरा गांधी का उदय देखा। जहां अमेरिका में एक अफ्रीकी मूल के व्यक्ति को व्हाइट हाउस पहुंचने में ढाई सौ वर्ष से अधिक समय लग गया वहीं भारत में बाबू जगजीवन राम और रामनाथ कोविंद समेत ऐसे अनेक लोगों के उदाहरण सामने हैं जिन्होंने समाज के सबसे निचले पायदान से सत्ता के सर्वोच्च स्थान तक की सफल यात्रा की है।

आपातकाल के काले अध्याय को छोड़कर संविधान को हर सरकार ने सर्वोच्च माना

यदि आपातकाल के काले अध्याय, जब संविधान को ताक पर रख दिया गया था, को छोड़ दें तो संविधान को हर सरकार ने सर्वोच्च माना है। उन्होंने उसी के अनुसार अपनी नीतियों को आगे बढ़ाया है। वास्तव में आज के सॉफ्ट पावर डिप्लोमेसी युग में लोकतंत्र हमारी यूएसपी है। विविधता इसका सौंदर्य और सामाजिक न्याय एक प्रतिबद्धता है। इसे बनाए रखने के लिए राजनीति में सुधार आवश्यक हैं।

तीन खतरनाक वायरसों- परिवार, कारोबार और ठाठ-बाट से ग्रस्त राजनीति को मुक्त करना होगा

वर्तमान में कोरोना के अलावा हमारी राजनीति तीन खतरनाक वायरसों-परिवार, कारोबार और शृंगार यानी ठाठ-बाट से ग्रस्त हो गई है। इसकी काट ढूंढना अब आवश्यक हो गया है। आज नहीं तो कल कोरोना वायरस की वैक्सीन तो हमारे वैज्ञानिक निकाल ही लेंगे, लेकिन राजनीति में व्याप्त इन तीनों वायरसों का समाधान करना भी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। यह काम समाज में एक मुक्त विमर्श से ही संभव होगा। यदि हम अपने लोकतंत्र की चिरकालीन समृद्धि चाहते हैं तो परिवार, कारोबार और शृंगार रूपी इन वायरसों से हमें अपनी राजनीति को हर हाल में मुक्त करना होगा। इस दिशा में आज एक सकारात्मक और संवेदनशील संवाद की जरूरत महसूस हो रही है।

भारतीय राजनीति में परिवारवाद

भारतीय राजनीति में परिवारवाद को नेहरू-गांधी परिवार ने संस्थागत किया। इसमें कोई दोराय नहीं कि सिर्फ नेहरू की पुत्री होने के कारण इंदिरा गांधी को केंद्र में मंत्री बनाया गया। निश्चित रूप से ऐसा नहीं है कि सिर्फ एक परिवार में जन्म लेने के कारण आप राजनीति में आने के लिए अयोग्य हो जाते हैंं, लेकिन सत्ता की संरचना में इस प्रकार से पिछले दरवाजे से प्रवेश पर चर्चा तो होनी ही चाहिए। क्यों न राजनीतिक दल आपस में एक ऐसी सहमति बनाएं जिसमें एक समय में एक परिवार से एक ही पीढ़ी सत्ता या संगठन की राजनीति करे? यदि पिता संगठन में है तो पुत्र या पुत्री सदन की राजनीति करे। इससे बाकी लोगों को भी अवसर प्राप्त हो। अभी यह अवसर कम होता जा रहा है।

भाजपा में पार्टी को परिवार माना गया

भाजपा में अभी ऐसी व्यवस्था नजर आती है। अन्य राजनीतिक दलों को भी ऐसी संरचना बनानी चाहिए। भाजपा में जहां पार्टी को परिवार माना गया है वहीं बहुत सारे ऐसे दल भी हैं जहां परिवार ही पार्टी है। आखिर इस पर एक मुक्त राजनीतिक विमर्श क्यों नहीं होना चाहिए कि कई राजनीतिक दलों का स्वरूप पार्टी ही परिवार वाला क्यों है? दुख की बात है कि लोगों ने जमात से विमर्श प्रारंभ किया, जाति पर ठहरे और परिवार पर आकर रुक गए। परिवार की राजनीति करने वालों को याद रखना चाहिए कि इतिहास अपने मूल्यांकन में निष्ठुर रहता है। समाज के नाम पर सिर्फ और सिर्फ अपने परिवार को सत्ता के करीब रखने वालों को इतिहास अपने अध्यायों में याद रखेगा और बार-बार एक न्यायपूर्ण व्यवस्था की याद दिलाता रहेगा।

राजनीति में सादगी का दौर समाप्त हो रहा

आज भी लोग दीनदयाल उपाध्याय, कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री जैसे नेताओं की सादगी को याद करते हैं। अब तो लगता है कि राजनीति में सादगी का दौर ही एक तरह से समाप्त हो रहा है। एक समय सादगी ही राजनेताओं का शृंगार हुआ करती थी,किंतु दुख की बात है कि आज बड़ी गाड़ियां, बड़े बंगले और सुरक्षाकर्मियों की फौज से नेताओं को आनंद आने लगा है। यहां अटल बिहारी वाजपेयी जी का स्मरण आता है। कई अवसरों पर उन्होंने जमीन पर भी सोने में गुरेज नहीं किया। कर्पूरी ठाकुर के बारे में कहा जाता है कि मुख्यमंत्री होने के बावजूद उनकी धर्मपत्नी सरकारी आवास में न रहकर गांव में ही रहती थीं। यशवंत सिन्हा ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि एक बार वह कर्पूरी जी के गांव स्थित आवास पर गए और वहां की सादगीपूर्ण व्यवस्था को देखकर अचंभित हो गए।

राजनीति को पेशा या व्यवसाय नहीं, बल्कि त्याग के दृष्टिकोण से समझा जाए

आज जरूरत है कि राजनीति को पेशा या व्यवसाय नहीं, बल्कि त्याग के दृष्टिकोण से समझा जाए। हार्वर्ड और कैंब्रिज जैसे विश्वविद्यालयों से पढ़कर आप आंकड़ों की भाषा तो समझ जाएंगे, लेकिन कतार के अंत में खड़े व्यक्ति की आंखों की भाषा को समझने के लिए सामाजिक संवेदना और जमीनी अनुभव की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति तभी होगी जब हमारी राजनीति परिवार, कारोबार और शृंगार से मुक्त होगी।

( लेखक पटना विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं इंडिया फाउंडेशन में फेलो हैं )