[ डॉ. एके वर्मा ]: 74वें स्वतंत्रता दिवस पर ध्वजारोहण करते वक्त हम सबका ध्यान उन अमर बलिदानियों की ओर जाना स्वाभाविक है जिन्होंने हर गांव, गली, मोहल्ले, कस्बे और शहर में अपनी जान की बाजी लगाकर हमें आजादी दिलाई। कितने अत्याचार, कितनी यातनाएं, कितनी कुर्बानियां उन बलिदानियों और उनके परिवारों ने सहीं, आज हमें और खासकर हमारी नई पीढ़ी को इसका भान नहीं है। विडंबना यह है कि न कोई बताता है और न ही उनके बारे में पढ़ाया जाता है। नि:संदेह गांधीजी ने स्वतंत्रता-संग्राम का नेतृत्व किया, लेकिन स्वतंत्रता के विमर्श में जो भाषाई प्रतीक गढ़े गए वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस, शहीद भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, अश्फाकउल्ला खान, रामप्रसाद बिस्मिल, बटुकेश्वरदत्त, मदनलाल धींगड़ा और असंख्य क्रांतिकारियों तथा बलिदानियों की भूमिका को नजरअंदाज करते हैं।

स्वतंत्रता दिवस: हमारी जिम्मेदारी है क्रांतिकारियों के त्याग और बलिदान के बारे में लोगों को बताएं

क्या किसी को चित्तू पाण्डेय, मंगल पाण्डेय, रानी लक्ष्मीबाई की सहचरी झलकारीबाई, रानी चेन्नमा, अल्मोड़ा के शहीद किशनसिंह बोरा, राजस्थान के लाडूराम, मध्य प्रदेश के तात्या भील, राजस्थान के सागरमल गोपा, झारखंड के ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, बिहार के शहीद रामफल मंडल, हैदराबाद के कोमाराम भीम, हिमाचल के पहाड़ी गांधी कहे जाने वाले बाबा कांसीराम, ओडिशा के 12 वर्षीय शहीद बाजीराउत आदि के नाम भी ज्ञात हैं? ऐसे नाम अनगिनत हैं, पर उनमें से तमाम गुमनाम से हैं। धन्य हैं हमारे इतिहासकार जिन्होंने असली इतिहास न कभी लिखा, न पढ़ाया। क्या हमारी जिम्मेदारी नहीं कि हम स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्येक जिले में स्थानीय क्रांतिकारियों की भूमिका के बारे में उनके त्याग और बलिदान के बारे में लोगों को बताएं?

क्या हमारी सरकारें उस लक्ष्य का बीजारोपण कर पाए जिससे स्वतंत्रता को हम सच्चे अर्थों में देख सकें?

स्वतंत्रता की वास्तविक समझ विकसित कैसे होगी? क्या होती है स्वतंत्रता? कभी इस पर गंभीरता से विचार किया गया? अधिकतर सिद्धांतकार इसे व्यक्ति और राज्य के मध्य शक्ति संतुलन के पश्चिमी चश्मे से देखते हैं, लेकिन स्वतंत्रता बहुआयामी अवधारणा है जिसमें व्यक्ति, समुदाय, समाज, राज्य और विश्व समाहित हैं। ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने का सपना 1947 में पूरा हुआ, लेकिन वह तो अंग्रेजी गुलामी से मिली मुक्ति थी। स्वतंत्रता हमें क्यों चाहिए थी? हमें कहां और किधर जाना है? क्या हासिल करना है? इन सवालों पर भी विचार किया जाना था। प्रति वर्ष 15 अगस्त को प्रतीकात्मक रूप में ध्वजारोहण करना ही अभीष्ट नहीं। क्या हमारी सरकारें, शिक्षा व्यवस्था और समाज हममें उस उद्देश्य, लक्ष्य, दिशा और दृष्टि का बीजारोपण कर पाए जिससे स्वतंत्रता को हम सच्चे अर्थों में देख सकें?

स्वतंत्रता का ऐसा शंखनाद करें जो 1947 की स्मृतियों को ताजा करे

स्वतंत्रता के बाद हमने संविधान बनाया, लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की और संसदात्मक संघात्मक प्रणाली अपनाई जो हमारी विविधता में एकता के अनुरूप है। हमने वैचारिक स्पर्धा, बौद्धिक असहमति और विचारधारात्मक विरोध को मान्यता दी। यह हमारी मजबूती है, कमजोरी नहीं, पर इसका प्रयोग कर हमें सशक्त समाज और राष्ट्र की ओर जाना है। स्वतंत्रता के प्रयोग में यदि हम राष्ट्रीय की उपेक्षा करेंगे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी अस्मिता, अपने हितों और अपनी सुरक्षा को संरक्षित कर पाने में मुश्किलों का सामना करेंगे। आज हमें अपनी स्वतंत्रता का ऐसा शंखनाद करना है जो न केवल 1947 की स्मृतियों को ताजा करे, वरन नई औपनिवेशिकता को अंजाम देने की फिराक में संलग्न ताकतों को भयाक्रांत भी कर सके।

स्वतंत्रता वसुधैव-कुटुंबकम और सर्वे-भवंतु-सुखिन: की पृष्ठभूमि में पुष्पित और पल्लवित होती है

हमें स्वतंत्रता के महत्व-मूल्य को ठीक से समझना होगा। इसके लिए व्यावहारिक धरातल पर स्वतंत्रता को समानता, न्याय, बंधुत्व, व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता, अखंडता के साथ संबद्ध करना पड़ेगा। जैसे ही हम ऐसा करेंगे, स्वतंत्रता वैयक्तिक और स्व की परिधि से बाहर निकल वृहद् सामाजिक-राष्ट्रीय चेतना के आंगन में खेलने लगेगी और हम अपनी स्वतंत्रता को अन्यों की समान स्वतंत्रता के साथ समीकृत कर सकेंगे। यही वह अनुभूति है जहां हमारी वैयक्तिक चेतना सामाजिक चेतना के माध्यम से सार्वभौमिक चेतना से मिलती है, जहां स्वतंत्रता वसुधैव-कुटुंबकम और सर्वे-भवंतु-सुखिन: की पृष्ठभूमि में पुष्पित और पल्लवित होती है।

वर्तमान पीढ़ी को स्वतंत्रता की सही दृष्टि देने हेतु प्रयास किए जाने चाहिए

स्वतंत्रता के बाद अनेक सरकारें आईं-गईं। सबने अपनी-अपनी समझ से काम किया। कुछ अच्छे काम हुए, कुछ हो रहे हैं, कुछ आगे होंगे, लेकिन वर्तमान पीढ़ी को स्वतंत्रता की सही दृष्टि देने हेतु कुछ प्रयास भी किए जाने चाहिए। प्रथम, स्थानीय स्वतंत्रता सेनानियों के अध्ययन और शोध पर ध्यान दिया जाए जिससे देश में स्वतंत्रता के भूले-बिसरे योद्धाओं के बलिदानों से परिचित होकर हम स्वतंत्रता का वास्तविक मूल्य समझ सकें। द्वितीय, समाज में राजनीतिक लोकतंत्र और सामाजिक सामंतवाद का अंर्तिवरोध समाप्त किया जाए जिससे परिवार और समुदाय के स्तर पर स्वतंत्रता के स्वरूप, अभिव्यक्तियों और मर्यादाओं के संस्कार बचपन में पड़ सकें। तृतीय, स्वतंत्रता के प्रति कानूनी अधिकारों वाले दृष्टिकोण की जगह सामाजिकता का दृष्टिकोण अपनाने की शिक्षा दी जाए जिससे वैयक्तिक स्वतंत्रता के प्रयोग में समाज और राष्ट्र के प्रति कर्तव्य और उत्तरदायित्व की सुगंध भी हो।

लोगों को अंग्रेजी मानसिकता की गुलामी से निकाला जाए

इधर सरकार ने स्वतंत्रता को यथार्थ में बदलने हेतु आर्थिक-समावेशन, सामाजिक-स्वास्थ्य और राजनीतिक-शुचिता के क्षेत्र में पहल की है, पर अंग्रेजी मानसिकता से जकड़ी नौकरशाही और पुलिस एवं समाज का एक वर्ग उसे जमीन पर उतारने में अवरोध बन रहा है। इसको दूर करना होगा। इसके साथ यह भी जरूरी है कि लोगों को अंग्रेजी मानसिकता की गुलामी से निकाला जाए।

नई शिक्षा नीति में प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में करने से मोदी ने मैकाले की अंग्रेजियत में मट्ठा डाल दिया

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी शुरुआत की है। नई शिक्षा नीति में प्रारंभिक शिक्षा की शुरुआत मातृभाषा में करने तथा मौलिक चिंतन को प्रोत्साहन देने जैसे अनेक प्रयोग कर मोदी ने मैकाले द्वारा बोई गई अंग्रेजियत की जड़ में मट्ठा डालने का काम किया है। आगामी पीढ़ी को उसके चंगुल से निकाल कर स्वतंत्र देश, स्वतंत्र परिवेश और स्वतंत्र संस्कृति की आधारशिला पर स्वतंत्रता का आनंद उठाने और नए समाज एवं सशक्त राष्ट्र का निर्माण करने का अवसर देना अभूतपूर्व देश सेवा होगी।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं )