हृदयनारायण दीक्षित 

धर्म प्रकृति की व्यवस्था है। प्रकृति के अणु परमाणु भी अन्त:चालित व्यवस्था में हैं। प्रकृति सदा से है और इसकी स्वचालित व्यवस्था भी। सो इस व्यवस्था को सनातन धर्म कहा गया। सनातन में कालबंधन नहीं हैं। भारतीय चिंतकों ने प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसरण में अपनी आचार संहिता गढ़ी। इसी ।आचार संहिता का नाम आर्य धर्म, वैदिक धर्म और अब हिंदू धर्म है। यह आचार संहिता गतिशील है इसमें कालवाह्य को छोड़ने और कालसंगत को जोड़ने की परंपरा है। काल संगति के अनुसार युग धर्म और आपद् धर्म आदि विभाजन हैं, लेकिन कांग्रेस ने गुजरात चुनाव प्रचार में हिंदू धर्म में ‘चुनाव धर्म’ जोड़ा है। हिंदुओं का बहुमत जनेऊ नहीं पहनता। बताया गया है कि राहुल गांधी जनेऊ पहनते हैं। धर्म निजी विश्वास है। जनेऊ या वस्त्र धारण भी निजी मामला है। विद्वान अधिवक्ता और नेता कपिल सिब्बल की नई खोज है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘असली हिंदू’ नहीं हैं। कांग्रेस की मानें तो कथित जनेऊधारी राहुल असली हिंदू हैं और मोदी, अमित शाह नकली। राजबब्बर ने अमित शाह को गैर-हिंदू बताया है। सोमनाथ मंदिर के आगंतुक रजिस्टर में राहुल का नाम गैर हिंदू सूची में जिम्मेदार कांग्रेसी ने ही दर्ज कराया है। भाजपा की तरफ से भी इस पर तमाम प्रतिक्रियाएं आई हैं। कांग्रेस की बयानबाजी मनोरंजक है। बहस बुनियादी मुद्दों से हिंदू धर्म के निर्वचन तक पहुंच गई है। राहुल जी ने कुछ माह पहले भारतीय दर्शन के मूल ग्र्रंथ उपनिषद् पढ़ने की घोषणा की थी। उपनिषद् पढ़ लेते तो जनेऊ आदि प्रतीकों के पचड़े में न फंसते। कपिल सिब्बल बेशक प्रख्यात अधिवक्ता हैं, लेकिन सिब्बल ने मोदी को ‘असली हिंदू’ न बताने के हास्यास्पद तर्क ही दिये हैं। सिब्बल के अनुसार मोदी ने ‘हिंदुइज्म’ छोड़ दिया है और हिंदुत्व को गले लगाया है। आश्चर्य है कि सिब्बल ‘हिंदुइज्म’ और हिंदुत्व का ही फर्क नहीं जानते। अंग्रेजी का ‘इज्म’ एक विचार है। कानूनी भाषा में वाद। सोशलिज्म, कैपिटलिज्म, कम्युनिज्म आदि धारणाएं ‘वाद’ हैं। सो इनके प्रतिवाद भी हैं, परंतु हिंदू अनुभूति ‘वाद’ नहीं है। हिंदूपने का अंग्रेजी अनुवाद भी हिंदुइज्म नहीं ‘हिंदूनेस’ होगा। हिंदुत्व ऐसी ही भारतीय अनुभूति है। हिंदुत्व समग्र दर्शन है। संपूर्णता में संपूर्णता की अनुभूति। उपनिषद् के अनुसार इस संपूर्णता को घटाने पर भी संपूर्णता ही शेष बचती है।

स्वाधीनता पूर्व की कांग्रेस के गांधी, तिलक, विपिन चंद्र पाल, पटेल, मदन मोहन मालवीय आदि वरिष्ठ महानुभाव भारतीय संस्कृति के अनुरागी थे। पं. नेहरू ने भी ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में प्राचीन भारतीय दार्शनिक तत्वों की पड़ताल की है। आर्यों को विदेशी बताने जैसे साम्राज्यवादी तर्कों के अलावा नेहरू भारतीय प्रीति के निकट हैं। गांधी, तिलक, मालवीय जैसे वरिष्ठ हिंदुत्व के निकट हैं, नेहरू उससे काफी दूर हैं। सोनिया, राहुल की सरकार के दो गृहमंत्रियों ने ‘हिंदू आतंकवाद’ का मर्मांतक नारा दिया था। सिब्बल ने अपने हिंदुइज्म का मर्म नहीं समझाया। भारत के धर्म का जन्म किसी देवदूत की घोषणा से नहीं हुआ। इसका सतत् विकास हुआ है। इसका मूल स्नोत विश्व का प्राचीनतम ज्ञानकोष ऋग्वेद है। ऋग्वेद में धर्म का पूर्ववर्ती शब्द ‘ऋत’ है। ऋत और सत्य समानार्थी हैं। प्रकृति अराजक नहीं है। नियमबद्ध गतिशील हैं। सूर्य, चंद्र और पृथ्वी भी। प्रकृति के इसी संविधान को वैदिक पूर्वजों ने ‘ऋत’ कहा। डॉ. राधाकृष्णन की टिप्पणी है कि ईश्वर भी इस व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। ‘न कोई देवता और न ही कोई अन्य वाह्य शक्ति। यहां प्रतिपल पुराना विदा होता है और नया उगता है।’
धर्म में ‘ऋत’ की महत्ता है। ऋग्वेद में प्रकृति के संविधान या ऋत को लागू कराने वाले देवता हैं वरुण। उन्हें ‘ऋताव’ कहा गया है। वायु भी देवता है। वे भी नियमबंधन में गतिशील हैं। उन्हें ‘ऋतजाता’ कहा गया। अग्नि ब्रह्मांड की बड़ी शक्ति हैं। अग्नि के उपयोग की खोज के बाद सभ्यताओं में तमाम परिवर्तन हुए। वे भी ऋत नियमों में बंधे हैं। वे ‘ऋतस्यक्षत्ता’ हैं। नदियां ऊंचे से नीचे बहने के ऋत नियम का पालन करती हैं। ऋग्वेद में वे ‘ऋतावरी’ हैं। धरती और आकाश भी ऋत पालन कराने वाले वरुण के नियम अधीन हैं। इसे ‘वरुण धर्म’ कहा गया है। वरुण ने सूर्य का मार्ग निर्धारित किया। यह ऋत है। सूर्य ने नियम माना यह सूर्य का धर्म हुआ। अग्नि का ताप ऋत नियम है। यह ताप देती है यह हुआ अग्नि का धर्म। ऋत कर्म बनता है तब धर्म और जब तक नियम तब तक ऋत। ऋतानुसार कर्म ही धर्म है। ऋग्वेद के अनुसार सूर्य, अंतरिक्ष और पृथ्वी अपने धर्म के अनुसार प्रकाशदाता हैं। प्रकृति की सारी शक्तियां ऋत अनुसार धर्म पालन करती हैं सो पूर्वजों ने तद्नुसार धर्म की आचार संहिता गढ़ी। ऋग्वेद में ऋत धर्म और सत्य समानार्थी हैं।
धर्म का सतत् विकास हुआ है। यहां कत्र्तव्य का नाम ही धर्म है। बुद्ध और जैन के अतिरिक्त छह प्राचीन दर्शन हैं। इनमें से एक जैमिनी का लिखा ‘पूर्वमीमांसा’ (500-200 ईसा पूर्व) यहां धर्म को परिभाषित करता है, ‘धर्म का संबंध उन कर्म और संस्कारों से है जिनसे आनंद मिलता है।’ वैशेषिक दर्शन में भी ‘आनंददाता कर्मों को धर्म’ कहा गया है। पूजा, उपासना, मंदिर दर्शन आदि कर्मकांडों की सीमित उपयोगिता है। ईश्वर या किसी देव की आस्था निजी विश्वास हैं। हिंदू धर्म में इसकी बाध्यता नहीं है। उत्तर वैदिक काल की रचना कठोपनिषद् का पात्र नचिकेता युवा है। उसका प्रश्न है कि जो धर्म या अधर्म और भूत भविष्य से भी पृथक है वह वही जानना चाहता है।’ यहां धर्म लोकजीवन की समयबद्ध आचार संहिता है। वह समय और धर्म से परे परमतत्व का जिज्ञासु है। विष्णु देव ने तीन पग चलकर ब्रह्मांड नाप लिया। सो कैसे? ऋग्वेद के अनुसार धर्म के द्वारा। यहां ग्रिफ्थ ने धर्म का अनुवाद ‘लाज नियम’ किया है। वृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार सूर्य का उदय अस्त और प्राणों के आवागमन के नियम धर्म हैं। इसी उपनिषद् में, ‘धर्म सभी तत्वों का मधु है, सभी तत्व धर्म के मधु हैं।’
भारत रत्न पीवी काणे ने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में लिखा है कि ‘धर्म संप्रदाय का द्योतक नहीं। वह जीवन का ढंग या आचार संहिता है। यह समाज के रूप में कर्म को व्यवस्थित करता है।’ धर्म करणीय, अकरणीय और अनुकरणीय कत्र्तव्यों की संहिता है। काणे ने अशोक के शिलालेखों से मानवीय गुणों की सूची दी है - सत्य, दया, भद्रता, प्रसन्नता, साधुता, आत्म संयम और शुद्धि। काणे के अनुसार यह सूची प्राचीन ‘न्यायदर्शन’ से मिलती है। धर्म परिवर्तनशील आचार व्यवहार है। ऋग्वैदिक काल का धर्म आनंददाता है। उत्तर वैदिक काल में कर्मकांड बढ़े, व्यक्तिगत संपदा का विकास हुआ। पूजा, यज्ञ से लाभ हानि की बातें चलीं। उपनिषद् दर्शन से तत्वज्ञान की लहर आई। श्रीराम के समय धर्म की मर्यादा है। वह मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। महाभारत में धर्म का पराभव है। श्रीकृष्ण गीता में ‘धर्म की ग्लानि’ बताते हैं। तब धर्मराज युधिष्ठिर भी जुआ खेलते हैं। बुद्ध ने ‘सनातन धम्म’ को नए आयाम दिये। फिर पतंजलि ने योग सूत्र दिए। मध्यकाल धर्म का व्यथित समय है और अंग्र्रेजी सत्ता के हमले भी। 2017 ने धर्म में ‘सुविधामूलक चुनाव धर्म’ जोड़ा है। असली नकली हिंदू पर बहसें हैं। आशा है कि इसी बहस से धर्म का मूल तत्व निखरेगा।
[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]