राजीव सचान : सुरेंद्र सिंह, संध्या टोपनो और किरण राज। पिछले हफ्ते इन तीनों पुलिस कर्मियों को तब अपनी जान गंवानी पड़ी, जब वे संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त तत्वों के वाहन रोकने की कोशिश कर रहे थे। डीएसपी सुरेंद्र सिंह को हरियाणा के नूंह में खनन माफिया के एक डंपर ने कुचल दिया। सब-इंस्पेक्टर संध्या टोपनो को रांची में पशु तस्करों की एक वैन ने और गुजरात के आणंद में कांस्टेबल किरण राज को एक ट्रक ने। ये घटनाएं केवल यही नहीं बतातीं कि मारे गए पुलिस कर्मी संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त वाहनों को रोकने की कोशिश कर रहे थे, बल्कि यह भी इंगित करती हैं कि अपराधी तत्वों के मन में कानून के शासन का कहीं कोई भय नहीं। वे न तो पुलिस से डर रहे हैं और न ही कानून से। ये घटनाएं अपवाद नहीं, क्योंकि रह-रहकर ऐसा हो रहा है।

अपराधी और माफिया तत्व पुलिस-प्रशासन को धमकाने और उनके अधिकारियों को निशाना बनाने में संकोच नहीं करते। जब वे डीएसपी, सब-इंस्पेक्टर और कांस्टेबल को निशाना बना रहे हों तब फिर इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है कि उनके सामने आम आदमी की क्या स्थिति होगी? इसके अनगिनत उदाहरण भी हैं। सबसे खतरनाक उदाहरण 'सिर तन से जुदा' करने की जिहादी सनक के तहत मारे जा रहे लोग हैं। अमरावती के उमेश कोल्हे और उदयपुर के कन्हैयालाल के कत्ल की तो खूब चर्चा हुई, लेकिन इसके बाद नबी की शान में कथित तौर पर गुस्ताखी करने के 'अपराध' में मारे गए लोगों की शायद ही कोई सुध ले रहा हो। ये लोग बस दिन विशेष की खबर बनकर रह जा रहे हैं- कहीं बड़ी खबर तो कहीं छोटी खबर और कहीं-कहीं तो कोई खबर ही नहीं।

उमेश कोल्हे और कन्हैयालाल के नाम से तो सब परिचित हैं, लेकिन उन्हीं की तरह जिहादी तत्वों का शिकार बने अन्य के नामों से कितने लोग अवगत हैं? उनके बारे में तो किसी को कोई खबर ही नहीं, जिन्हें नुपुर शर्मा का समर्थन करने के कारण जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं। ऐसी धमकियां देने वालों का दुस्साहस कितना बढ़ा हुआ है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि महाराष्ट्र के भिवंडी में जिस मुस्लिम युवक साद अंसारी को नुपुर शर्मा का समर्थन करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, वह जमानत पाने के बाद किसी अज्ञात स्थान पर चले गए। क्यों? क्योंकि साद को केवल यही अंदेशा नहीं कि उसके साथ मारपीट करने वाले फिर से उन्हें निशाना बना सकते हैं, बल्कि इस कारण भी कि शायद वह और उसके परिवार वाले इस नतीजे पर पहुंचे कि पुलिस उसकी सुरक्षा नहीं कर पाएगी।

नि:संदेह यह स्थिति कानून के शासन को शर्मसार करने वाली है कि लोग पुलिस पर भरोसा करने के बजाय अपना ठिकाना बदलने में अपनी भलाई समझें। इस दयनीय दशा में तब तक कोई बदलाव आने वाला नहीं, जब तक 'सिर तन से जुदा' का नारा लगाने वाले तत्वों के मन में पुलिस और कानून का भय नहीं पैदा होता। यह भय तब तक नहीं पैदा हो सकता, जब शासन और पुलिस-प्रशासन ऐसे तत्वों के समक्ष असहाय-निरुपाय दिखता रहेगा।

इंजीनियरिंग के छात्र साद अंसारी का 'गुनाह' केवल यह था कि उन्होंने इंस्टाग्राम पर नुपुर शर्मा के समर्थन में कुछ लिख दिया था। इस पर कुछ लोग उनके घर जा धमके और उनके साथ मारपीट की। क्या पुलिस ने मारपीट करने वालों को गिरफ्तार किया? नहीं। उसने माहौल खराब करने के आरोप में साद अंसारी को गिरफ्तार किया। उन्हें करीब दो हफ्ते जेल में रहना पड़ा। साद अंसारी जैसी कहानी इंजीनियरिंग के ही एक अन्य छात्र सनी गुप्ता की भी है। अगस्त 2018 में उन्हें फेसबुक पर यह लिखने के 'अपराध' में गिरफ्तार कर लिया गया था कि हिंदुओं को अजमेर शरीफ दरगाह नहीं जाना चाहिए था। किसी ने उनके खिलाफ महाराष्ट्र पुलिस की साइबर सेल में शिकायत दर्जा करा दी। इस पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें करीब 45 दिन बाद जमानत मिल सकी। यह ध्यान रहे कि तब महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार थी।

ऐसा नहीं है कि किसी खास किस्म के अपराधी तत्व ही दुस्साहस दिखा रहे हों और कानून अपने हाथ में लेकर मनमानी कर रहे हों। सच तो यह है कि हर तरह के अपराधी तत्व बेलगाम दिख रहे हैं। बतौर उदाहरण बीते कुछ समय से लगातार ऐसी खबरें आ रही हैं कि एप से लोन वालों को ब्लैकमेल किया जा रहा है। न जाने कितने लोग ऐसे हैं, जो लोन से अधिक राशि चुकाने के बाद भी परेशान किए जा रहे हैं। कुछ तो तंग आकर आत्महत्या तक कर चुके हैं, लेकिन ऐसा नहीं लगता कि पुलिस, प्रशासन या शासन के स्तर पर ऐसा कुछ किया जा रहा है, जिससे लोन देने के नाम पर लोगों को छल-बल से ठगने और उन्हें प्रताड़ित करने वालों पर लगाम लग सके।

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि इस देश में कोई भी कानून हाथ में ले सकता है। किसी समूह या भीड़ के लिए ऐसा करना कहीं आसान हो गया है। यह सिलसिला तबसे और तेज हुआ है, जबसे नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के बहाने देश भर में उपद्रव किया गया और फिर दिल्ली में एक मुख्य सड़क पर करीब तीन महीने तक कब्जा किया गया। चूंकि इस कब्जे के समक्ष सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक असहाय-निरुपाय दिखा, इसलिए कथित किसान आंदोलन के नाम पर ऐसा ही किया गया और दिल्ली के सीमांत इलाकों में मुख्य मार्गों को करीब एक साल तक बाधित किया गया। यदि अपराधी तत्वों और अराजकता का सहारा लेने वालों के खिलाफ सख्ती नहीं बरती जाती तो कानून के शासन की और फजीहत होना तय है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)