[धर्मकीर्ति जोशी]। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही समाप्त हो गई है। इस दौरान कुछ संकेत बेहतरी की उम्मीद जगाने वाले रहे। सबसे बड़ी राहत तो यही है कि वैश्विक महामारी की छिटपुट लहरों के बावजूद आर्थिक गतिविधियों की गति मंद नहीं पड़ी है। गूगल मोबिलिटी डेटा इसकी पुष्टि करता है। इसमें भी सेवा क्षेत्र सबसे अधिक फायदे में दिखता है। सेवा क्षेत्र के लिए मई में जारी हुआ पीएमआइ डाटा विगत 11 वर्षों के उच्चतम स्तर पर रहा। वैश्विक बाजार में उथल-पुथल को देखते हुए भी निर्यात की स्थिति ठीक-ठाक कही जाएगी। महंगाई के मामले में भी कुछ राहत मिलती दिखी है।

मुद्रास्फीति की दर 7.8 प्रतिशत से घटकर सात प्रतिशत के स्तर पर आ गई है। हालांकि यह अभी भी असहज स्तर पर है। इस बीच खाद्य तेल और स्टील जैसी वस्तुओं के दाम भी घटे हैं। इससे जहां आम आदमी की रसोई का बजट सुधरेगा तो बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को गति मिलती दिख रही है, क्योंकि उनमें स्टील एक बहुत अहम घटक होता है। बुनियादी ढांचे के काम में तेजी अन्य आर्थिक गतिविधियों को सहारा देने में सक्षम है। क्षमता उपयोगिता यानी कैपेसिटी यूटिलाइजेशन का आंकड़ा इसकी गवाही देता है। जनवरी से मार्च के बीच क्षमता उपयोगिता का आंकड़ा 74.5 के स्तर पर पहुंच गया, जो महामारी के दौर में 60 प्रतिशत के दायरे तक सिमट गया था। स्टील के साथ ही सीमेंट की कीमतों में मिली राहत भी क्षमता उपयोगिता को बढ़ावा देगी।

आर्थिक गतिविधियों में तेजी का असर निवेश की रफ्तार भी दिख रहा है। सरकार तो बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर पहले से ही अपना निवेश बढ़ा रही है। अब निजी क्षेत्र की ओर से भी निवेश के लिए झोली खोले जाने की उम्मीद बढ़ी है। विशेषकर हरित ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहनों जैसे क्षेत्रों और उससे जुड़े इकोसिस्टम में निवेश बढ़ा है। निवेश के मामले में उल्लेखनीय पहलू यही है कि बड़ी कंपनियां इसमें तेजी दिखा रही हैं, लेकिन छोटी कंपनियों के स्तर पर यह गति उतनी तेज नहीं है। विनिर्माण क्षेत्र के लिए उत्पादन आधारित प्रोत्साहन यानी पीएलआइ योजना को भी संबल मिल रहा है। तात्कालिक तौर पर तो नहीं, किंतु मध्यम और दीर्घ अवधि में पीएलआइ से अर्थव्यवस्था को बड़ी ताकत मिलेगी। अनुमान है कि आने वाले समय में पीएलआइ के माध्यम से विनिर्माण गतिविधियों में 13 से 15 प्रतिशत की वृद्धि आ सकती है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए मानसून एक महत्वपूर्ण पहलू है और उसमें अभी तक सब कुछ ठीक दिख रहा है। जून तक की स्थिति के अनुसार मानसून औसत से आठ प्रतिशत ही कम रहा है, जो कोई बड़ी चिंता का सूचक नहीं। साथ ही यह अलग-अलग क्षेत्रों में मानसून की कमी भी असंगत रही है। इसका बस इतना ही असर हुआ है कि धान जैसी फसल की बोआई में देरी हुई है। वैसे भी जुलाई-अगस्त की वर्षा कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है और उसके बेहतर रहने का अनुमान है। इससे फसल उत्पादन बेहतर रहने के आसार हैं। वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों में यह और महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते कई आवश्यक खाद्यान्नों की किल्लत हो गई है। ऐसे में मानसून की मेहरबानी न केवल ग्र्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी साबित होगी, बल्कि बेहतर उत्पादन से आपूर्ति को सुगम कर महंगाई को नियंत्रित रखने में भी मदद करेगी।

नकारात्मक संकेतों की बात करें तो रुपये की हालत लगातार पतली होती जा रही है। वैश्विक अनिश्चितताओं के बीच भारत से पूंजी पलायन भी रुपये को गिराने में भूमिका निभा रहा है। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि रुपये में गिरावट का रुख कुछ समय के लिए जारी रहे। इस दौरान डालर के मुकाबले रुपया 80 के स्तर पर या उसके आसपास घूम सकता है। यह देश से होने वाले निर्यात के लिए तो ठीक है, लेकिन आयात के प्रतिकूल। भारत के मामले में यह स्थिति मुश्किल है, क्योंकि हम निर्यात से अधिक आयात करते हैं और निर्यात के मामले में वैश्विक बाजारों में अस्थिरता कायम है। ऐसे में रुपये की हैसियत का सीधा संबंध वैश्विक घटनाक्रम से जुड़ा हुआ है।

कुछ काबू में आने के बावजूद महंगाई एक ज्वलंत मुद्दा है। इससे निपटने के लिए रिजर्व बैंक ने कमर कसी हुई है। मई से ही उसने दरें बढ़ाने का सिलसिला शुरू कर दिया है। जून में भी दरें बढ़ी हैं। महंगाई पर इसका असर कुछ समय बाद ही दिखेगा। ऐसे में पूरी संभावना है कि केंद्रीय बैंक आगे भी दरें बढ़ाना जारी रखे। अनुमान है कि अभी भी नीतिगत दरों में 75 आधार अंक यानी पौन प्रतिशत बढ़ोतरी की गुंजाइश है। उसके बाद परिस्थितियों का आकलन करके ही कोई रुझान तय होगा। सख्त मौद्रिक नीति का महंगाई के साथ-साथ रुपये की सेहत से भी संबंध है। दुनिया के प्रमुख केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं, जिसके चलते भारत से पूंजी पलायन हो रहा है। इस कारण रुपये पर बढ़ते दबाव के चलते भी रिजर्व बैंक को सक्रिय होना पड़ा है।

आने वाले दिनों में वैश्विक घटनाक्रम अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने में अहम कारक बने रहेंगे। जैसे कि थोक महंगाई में 60 प्रतिशत तक की तेजी के लिए वैश्विक कारण जिम्मेदार हैं। सामान्य परिस्थितियों में इनकी भूमिका 30 प्रतिशत तक रहती है। स्पष्ट है कि वैश्विक परिस्थितियों ने ही महंगाई की आग को मुख्य रूप से हवा दी हुई है, जो उपभोग की राह में सुधार और वृद्धि के मार्ग में अवरोध बना हुआ है। विश्व बैंक ने भी हाल में वैश्विक वृद्धि के अनुमान को घटाया है। जब वैश्विक वृद्धि में कमी आएगी तो उसका असर तात्कालिक रूप से निर्यात पर पड़ता है।

चूंकि हमारे निर्यात की तुलना में आयात कहीं ज्यादा अपरिहार्य हैं तो ऐसी स्थिति में व्यापार घाटे का बढऩा तय है। इसका असर चालू खाते के घाटे पर दिखेगा, जो पिछले साल जीडीपी के 1.2 प्रतिशत के दायरे में था जो इस साल बढ़कर करीब तीन प्रतिशत तक पहुंच सकता है। वैश्विक रुझानों के कारण ही खाद्य और उर्वरक सब्सिडी पर सरकारी खर्च में बढ़ोतरी से भी राजकोषीय स्थिति दबाव में है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि पहली तिमाही तो बढिय़ा बीती है, लेकिन दूसरी तिमाही के काफी अनिश्चित रहने के आसार हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि इसी दौरान तमाम देशों में ब्याज दरों में बढ़ोतरी संभव है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उथल-पुथल भी कायम रहेगी।

(लेखक क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री हैं)