हृदयनारायण दीक्षित। हम चुनाव के माध्यम से अपने जनप्रतिनिधि और मन की सरकार चुनते हैं। राजनीतिक दल ही चुनावी खेल के मुख्य खिलाड़ी होते हैं, लेकिन कई दलों के रूप-स्वरूप लोकतांत्रिक नहीं दिखते। संविधान में राजनीतिक दल की परिभाषा नहीं है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में चुनाव आयोग को दल पंजीकरण के अधिकार हैं, लेकिन दल संचालन की व्यवस्थित नियमावली नहीं है। राजनीतिक सुधारों की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ और न चुनाव सुधारों पर।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कुछ दिन पहले चुनाव सुधारों की दृष्टि से एक देश एक चुनाव पर विचार करने की अपील की थी। इस दफा उन्होंने राजनीतिक सुधार की दृष्टि से परिवारवाद को राजनीति का बड़ा खतरा बताया है। उन्होंने कहा कि ‘परिवारवाद लोकतंत्र का सबसे बड़ा शत्रु है। इससे राजनीति में सक्रिय प्रतिभाशाली लोगों को कठिनाई आती है और गंभीर समझौते करने पड़ते हैं।’ यह सही भी है। यहां एक व्यक्ति और परिवार की तमाम पार्टियां हैं। वे एक परिवार की प्रापर्टी होती हैं। उनमें आजीवन राष्ट्रीय अध्यक्ष होते हैं। ऐसे दल असल में लोकतंत्र के लिए खतरा हैं।

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में अर्से से एक ही परिवार का कब्जा है। पं. नेहरू से लेकर उनकी पुत्री इंदिरा गांधी, फिर उनके पुत्र राजीव गांधी, फिर उनकी पत्नी सोनिया गांधी और पुत्र राहुल गांधी का परिवार ही कांग्रेस का नीति-नियंता है। सोनिया जी ही लंबे समय से पार्टी की मुखिया हैं। एक समय तेजतर्रार विपक्षी दलों ने कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप लगाया था। धीरे-धीरे उन दलों ने भी परिवारवाद की राह पकड़ी। जो परिवारवाद के विरोधी थे, वे भी परिवारवादी हो गए। उत्तर से लेकर दक्षिण तक एक परिवार की पार्टियां दिखाई पड़ती हैं। ऐसी पार्टियों का संचालन एक परिवार द्वारा ही किया जा रहा है। जदयू के नेता व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपवाद हैं। प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी की ओर इशारा करते हुए कहा कि इस पार्टी में 25 वर्ष की आयु के सभी परिजनों को चुनाव लड़ने का अवसर मिला है। पार्टी प्रापर्टी नहीं हो सकती। परिवारवादी चरित्र के कारण समय-समय पर कांग्रेस से निकली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां बनीं, जो परिवारवादी बनती गईं।

परिवार आधारित पार्टियों में स्वस्थ राजनीतिक परंपराएं नहीं होतीं। स्वस्थ राजनीतिक दल की एक स्पष्ट अर्थनीति होती है। उसकी एक समाज नीति होती है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों पर एक दृष्टिकोण होता है। संगठन संचालन की नियमावली होती है। परिवारवादी दलों में ऐसा विमर्श नहीं होता। पिता पुत्र, पुत्री और प्रियजन ही संसदीय बोर्ड होते हैं। घर के लोग ही सभी प्रश्नों पर विचार करते हैं। वे अपने-अपने हितों के लिए झगड़ालू होते हैं। उत्तर प्रदेश की एक विपक्षी पार्टी में ऐसे झगड़े प्रत्यक्ष दिखे हैं। यहां परिवार आधारित कई पार्टियां हैं। डेढ-दो जिलों तक प्रभावी पार्टियों में भी परिवार के ही लोग पदाधिकारी होते हैं। इन दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं होता। राष्ट्रीय चुनौतियों पर कोई बहस नहीं होती। परिवारवादी पार्टियों के अध्यक्ष प्रतिभाशाली लोगों की उपेक्षा करते हैं। उनका आचरण किसी निजी कंपनी के सीईओ जैसा होता है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। परिवारवादी राजनीति में प्रतिभाएं उपेक्षित और अपमानित होती हैं।

परिवारवादी राजनीति की प्राथमिकता परिवार हित है। यहां राष्ट्रहित उपेक्षित होते हैं। चुनाव मुद्दा आधारित न रहकर दोषपूर्ण हो जाते हैं। इसके दोषी परिवारवादी दल ही होते हैं। संविधान सभा में 15 जून, 1949 के दिन पंडित हृदयनाथ कुंजरू ने कहा था कि दोषपूर्ण चुनाव से लोकतंत्र विषाक्त होगा।’ आमजन चुनाव में परिवार आधारित दलों की बढ़ती संख्या से निराश हैं। देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। सभी स्तरों के सैकड़ों चुनाव हो गए हैं, लेकिन भारतीय जनतंत्र विचारनिष्ठ नहीं हुआ। दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं बढ़ा। इससे लोकतंत्र की क्षति होती है।

परिवारवादी राजनीति की दो श्रेणियां हैं। पहली श्रेणी में पार्टी का समूचा कार्य संचालन एक ही परिवार द्वारा किया जाता है। दूसरी श्रेणी में किसी भी दल में काम करने वाले अपने पुत्रों-पुत्रियों के लिए टिकट मांगते हैं। उन्हें कभी-कभी जनता नकार भी देती है। इस दूसरी कोटि के लोगों द्वारा पार्टी का संचालन नहीं होता। जनता उनके नेतृत्व को नकार दे तो भी उन पर फर्क नहीं पड़ता। परिवारवादी दलों में राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव नहीं होते। वे आजीवन अध्यक्ष बने रहते हैं। उनके न रहने पर उनके परिजन पार्टी-प्रापर्टी का संचालन करते हैं। दोनों तरह के परिवारवाद में बुनियादी अंतर है। किसी पार्टी में किसी सांसद-विधायक का वृद्धावस्था व अन्य कारण से हटना और उनकी जगह पर उनके परिवार के किसी सक्षम कार्यकर्ता को पार्टी का टिकट देना स्वाभाविक है। ऐसे वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के पुत्र-पुत्री अपनी निष्ठा के कारण दूसरे दल में नहीं जा सकते।

भारतीय राजनीति में व्यापक राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता है। राजनीतिक दल हमारे लोकतंत्र का उपकरण हैं। मुख्य रूप से उनके दो कार्य क्षेत्र हैं। पहला विचारधारा के अनुसार आजजनों का राजनीतिक शिक्षण, विचारधारा का प्रचार, जनसंगठन और जन आंदोलन जैसे अभियानों का संचालन। दूसरा संसद और विधानमंडलों में मर्यादित बहसों के माध्यम से राष्ट्रहित का संवर्धन। हमारा दलतंत्र दोनों ही कर्तव्यों में असफल हुआ है। मूलभूत प्रश्न है कि दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र का विकास क्यों नहीं हुआ? राजनीतिक दलों में आजीवन अध्यक्ष क्यों हैं। उनके निधन पर पुत्र और पुत्री ही राष्ट्रीय अध्यक्ष क्यों बनते हैं? पार्टियां प्राइवेट प्रापर्टी क्यों है? ऐसे प्रश्न राष्ट्रीय बेचैनी हैं।

संविधान के कामकाज पर गठित एक आयोग ने विचारधारा के आधार पर दलों की संख्या सीमित करने का सुझाव दिया था, लेकिन दुर्भाग्य से यहां परिवारवादी पार्टियां कुटीर उद्योग की तरह बढ़ रही हैं। चुनाव कानून की धारा-29 ए में संशोधन करते हुए निर्वाचन आयोग को दल व्यवस्थित करने का अधिकार मिलना चाहिए। दलों को नियमों व कानूनों के दायरे में लाने में आदर्श जनतंत्र का भविष्य है। राष्ट्रनिष्ठ दलतंत्र से ही स्वस्थ जनतंत्र का विकास होगा। 

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)