संजय मिश्र। मध्य प्रदेश के मुरैना में जहरीली शराब कांड के बाद एक बार फिर राज्य में शराब की सियासत शुरू हो गई है। कांग्रेस के साथ भाजपा के अंदर भी शराब की नई सियासत पर चर्चा छिड़ गई है। आíथक संकट से जूझ रही राज्य सरकार अपनी आय बढ़ाने के लिए शराब दुकानों की संख्या बढ़ाने पर विचार कर रही थी, लेकिन राजनीतिक बखेड़ा खड़ा होने के कारण उसे बैकफुट पर जाना पड़ा। सरकार की योजना का कांग्रेस तो विरोध कर ही रही थी, पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने भी राज्य में पूरी तरह शराबबंदी की मांग करके नई सियासत को हवा दे दी। इससे सरकार पर स्वाभाविक दबाव बन गया है जिस कारण दुकानों की संख्या बढ़ाने का प्रस्ताव फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी शराब की दुकानों का विस्तार करने के खिलाफ माने जाते हैं। अपने पिछले दो कार्यकाल में उन्होंने शराब की एक भी नई दुकान नहीं बढ़ने दी, लेकिन कोरोना जनित परिस्थितियों ने अधिकारियों को दुकानें बढ़ाने की योजना पर काम करने को विवश किया। हालांकि सरकार न इसे फिलहाल रोक दिया है।

दरअसल, मध्य प्रदेश में उमा भारती अकेली राजनेता नहीं हैं जिन्होंने शराबबंदी की मांग की है। यदाकदा इसे लेकर आवाजें उठती रही हैं। कभी सामाजिक संगठनों की तरफ से मांग उठती है तो कभी राजनीतिक दलों के भीतर ही इसे लेकर बातें होती रहती हैं। शराबबंदी की मांग के बीच सरकार आज तक इस सवाल का जवाब नहीं खोज पाई कि यदि शराब को पूरे प्रदेश में प्रतिबंधित कर दिया तो इससे मिलने वाले राजस्व की भरपाई कहां से होगी?

मध्य प्रदेश सरकार को शराब के कारोबार से साल भर में लगभग 10 हजार करोड़ रुपये आय होती है। शराब सरकार की सुरक्षित आय का बड़ा जरिया है। यही कारण है कि लॉकडाउन के बाद जब अनलॉक की शुरुआत हुई तो सबसे पहले शराब की दुकानें ही खोली गईं। वर्ष 2020-21 में नौ हजार करोड़ रुपये का बजट अनुमान रखा गया है। देसी और विदेशी शराब दुकानों की नीलामी से सरकार को निश्चित आय होती है। कमल नाथ सरकार के समय दुकानों की नीलामी 25 फीसद अधिक दर पर करने का निर्णय लिया गया था। इसके लिए जिले की समस्त दुकानों का एक समूह बनाकर ठेके दिए गए। इससे सरकार को शुल्क तो अधिक मिल गया, परंतु ठेकेदारों का एकाधिकार हो गया। शराब महंगी हुई तो अवैध कारोबार करने वालों को मौका मिल गया।

हालांकि सरकार को कोरोना संकट की वजह से शराब दुकानों को बंद करना पड़ा। इससे ठेकेदारों को नुकसान हुआ और वे शुल्क माफ कराने के लिए पहले सरकार और फिर अदालत की शरण में पहुंच गए। सरकार ने कुछ रियायत भी दी। कारोबार बंद रहने और छूट दिए जाने के कारण सरकार को वर्ष 2019 के मुकाबले अप्रैल से नवंबर 2020 के बीच 1,432 करोड़ रुपये कम मिले। हालांकि अब शराब दुकानें खुल चुकी हैं। वाणिज्यिक कर विभाग को उम्मीद है कि वित्तीय वर्ष समाप्त होने तक 9,300 करोड़ रुपये हासिल होंगे। यही वजह है कि सरकार किसी की भी हो वह शराब की दुकानें बंद करने जैसा फैसला आसानी से नहीं कर पाती है।

वैसे भी किसी राज्य में शराबबंदी का फैसला लोकलुभावन जरूर लगता है, लेकिन बिहार का अनुभव बताता है कि यह व्यावहारिक फैसला नहीं है। शराबबंदी के फैसले को लागू करना सरकारों के लिए बहुत मुश्किल है। खासतौर पर मध्य प्रदेश में, जहां आदिवासियों में शराब से जुड़ी बहुत पुरानी परंपराएं मौजूद हैं। सुदूर इलाकों के साथ बड़े शहरों में भी अवैध शराब के कारोबार पर रोक लगा पाना संभव नहीं हो रहा है। ऐसे में शराबबंदी के बारे में सोचना ही चुनौतीपूर्ण है।

वैसे देखा जाए तो उमा भारती की मांग पर विचार करना सरकार के लिए बिल्कुल आसान नहीं होगा, क्योंकि एक तरफ शराब से होने वाली सरकार की आय खत्म हो जाएगी तो दूसरी तरफ शराबबंदी के फैसले को लागू करने के लिए उसे भारी-भरकम पैसा खर्च करना होगा। मध्य प्रदेश की स्थिति गुजरात जैसी नहीं है। बड़ा औद्योगिक क्षेत्र होने की वजह से गुजरात के पास आय के बहुत से अन्य प्रकार के साधन हैं। मध्य प्रदेश सरकार के पास वैट और आबकारी ही आय के बड़े स्नोत हैं। पिछले छह माह में प्रदेश में जहरीली शराब के दो बड़े कांड हुए हैं।

उज्जैन और मुरैना में जहरीली शराब पीने की वजह से 30 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। ये दोनों घटनाएं साबित करती हैं कि प्रदेश में बड़े पैमाने पर अवैध शराब का धंधा चल रहा है और प्रशासन इस पर नियंत्रण नहीं लगा पा रहा है। सिर्फ सुदूर इलाकों में ही नहीं, राजधानी भोपाल में भी अवैध शराब का कारोबार फल-फूल रहा है। पिछले दिनों जैसे ही मुरैना में जहरीली शराब से लोगों की मौत की घटना हुई, कई जिलों की पुलिस अवैध शराब का कारोबार करने वालों के यहां दबिश डालने पहुंच गई। मुरैना में तो पुलिस ने ऐसे 147 लोगों की पहचान की है, जो संगठित रूप से अवैध शराब का कारोबार चलाते हैं। उन्हें जिला बदर करने की तैयारी है, लेकिन ऐसी कार्रवाई भी तभी होती है, जब कोई बड़ी घटना हो जाती है। मतलब यह कि प्रशासन को अवैध कारोबार करने वालों के बारे में पता तो रहता है, लेकिन वह आंखें मूंदे रहता है। बेहतर होगा कि पूर्ण शराबबंदी की मांग करने के बजाय सरकार अवैध शराब के धंधे पर पूरी तरह चोट करने की योजना बनाए। जब तक ऐसी नहीं होगा, तब तक शराबबंदी की मांग भी सिर्फ सियासी होकर रह जाएगी।

[स्थानीय संपादक, नवदुनिया, भोपाल]