[दिव्य कुमार सोती]। जब से न्यायालय के आदेश पर ज्ञानवापी परिसर में हुए सर्वे में प्राचीन हिंदू मंदिर होने के प्रतीक चिह्न मिले और शिवलिंग जैसी आकृति मिलने का दावा किया गया, तब से वामपंथी बुद्धिजीवियों और इस्लामिक कट्टरपंथियों ने हिंदू समाज की धार्मिक भावनाओं को आहत करना शुरू कर दिया। किसी ने शिवलिंग की तुलना फव्वारे से की तो किसी ने सड़क किनारे लगे पत्थरों से और किसी ने परमाणु संयंत्रों से। नि:संदेह ज्ञानवापी परिसर का मूल धार्मिक स्वरूप न्यायालय द्वारा ही तय किया जाना है, परंतु हिंदू पक्ष के दावे को नकारने के लिए आदि विश्वेश्वर से जुड़ी आस्था को इस प्रकार अपमानित करने की आवश्यकता नहीं थी।

फिर भी ऐसा ही हुआ। शिवलिंग को लेकर की गईं इन भद्दी टिप्पणियों से हिंदू उद्वेलित तो हुए, पर कोई हिंसा पर उतारू नहीं हुआ। ऐसे माहौल में ही एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान कथित मुस्लिम बुद्धिजीवी तस्लीम रहमानी की ओर से शिवलिंग को लेकर भद्दी टिप्पणी की गई, जिससे भड़कीं नुपुर शर्मा ने भी इस्लामिक मान्यताओं को लेकर एक तल्ख बात कह दी।

देश में आग लगाने की ताक में रहने वाले कुछ तत्वों ने इस बहस का एक खास हिस्सा वायरल किया। इसके बाद कई शहरों में मुस्लिम समुदाय की भीड़ सड़कों पर उतरी। इस दौरान कुछ शहरों में हिंसा भी हुई। कतर जैसे इस्लामिक देशों की ओर से भारत के इस आंतरिक मामले में दखल देने के प्रयास ने माहौल को और विषाक्त बनाया। यह मसला तब राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जुड़ गया, जब यह पाया गया कि पाकिस्तान और पश्चिम एशिया में बैठे कट्टरपंथी भारत और भारतीयों को निशाना बनाने के लिए लोगों को उकसा रहे हैं।

इस सबके बीच भाजपा ने नुपुर शर्मा को निलंबित कर दिया। नुपुर ने भी अपने शब्द वापस लेते हुए माफी मांग ली, परंतु इससे 'सिर तन से जुदा' के नारे लगाती भीड़ और इंटरनेट मीडिया पर नुपुर के खिलाफ जहर उगलने वालों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। इसकी परिणति उदयपुर में दो मुस्लिम चरमपंथियों द्वारा कन्हैयालाल की बर्बर हत्या के रूप में हुई। हत्यारों ने खून से सने छुरे लेकर प्रधानमंत्री को भी धमकाया।

कन्हैयालाल की बर्बर हत्या भारत के सांस्कृतिक आत्मा और हिंदू जनमानस को ऐसा घाव दे गई है, जो आसानी से नहीं भरेगा, परंतु ऐसा पहली बार नहीं हुआ। इस्लामिक कट्टरपंथियों ने जब-जब हिंदू देवी-देवताओं को लेकर भद्दी टिप्पणियां कीं और उन्हें लेकर हिंदू समाज द्वारा जुबानी या लेखन के माध्यम से जवाब देने कोशिश की गई तो उसे हिंसा और हत्याएं ही झेलनी पड़ीं। फिर चाहे वह मुगल काल में गुरु तेगबहादुर और हकीकत राय की हत्या हो या ब्रिटिश राज में महाशय राजपाल की हत्या या फिर स्वतंत्र भारत में कमलेश तिवारी और कन्हैयालाल की हत्या।

स्वतंत्रता से पहले इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा स्वामी श्रद्धानंद की हत्या तो सिर्फ इसलिए कर दी गई थी, क्योंकि उनके उपदेशों से प्रभावित होकर मुगलकाल में जबरन मतांतरित तमाम मुसलमान फिर से सनातम संस्कृति अंगीकार करने लगे थे। कन्हैयालाल की हत्या के बाद देश में एक वर्ग ऐसा है जो यह मांग कर रहा कि महाशय राजपाल और स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के बाद अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून को और सख्त कर उसमें उम्रकैद एवं फांसी जैसी सजाएं जोड़ दीं जाएं। ईशनिंदा का सख्त कानून बनाने की मांग करने वाला यह वही वर्ग है जो अपनी मजहबी मान्यताओं की समालोचना से इतना अधिक आतंकित है कि उसे लगता है कि अगर यह ऐसे ही चलता रहा तो उसकी आस्था तर्क और विज्ञान के इस युग में टिक नहीं पाएगी।

खुद आतंकित यह वर्ग दूसरों को ईशनिंदा के नाम पर हत्या का खौफ दिखाकर चुप कराना चाहता है। जब कोई दूसरे पंथ के व्यक्ति का मतांतरण अपने मत-मजहब में कराता है तो आम तौर पर वह उसके पंथ को झूठा और हीन ही बताता है। आखिर ऐसे में यह कैसे संभव है कि एक ओर संविधान उपासना पद्धतियों के प्रचार- प्रसार का अधिकार भी दे और दूसरी ओर ईशनिंदा कानून भी देश में लागू हो? दोनों में से किसी एक को ही चुनना पड़ेगा। क्या यह संभव है कि 130 करोड़ की आबादी वाले जिस देश में तमाम पंथ और संप्रदाय हों, वहां धार्मिक मान्यताओं और उनके इतिहास को लेकर कोई बहस न हो?

क्या इस स्वाभाविक सी बात के लिए भारत निर्मम हत्याएं झेलता रहे या फिर कानून बनाकर वह करने का प्रयास करे, जो भारत का स्वभाव ही नहीं? भारत धार्मिक देश रहते हुए भी किसी ईश्वर के आतंक में जीने का आदी कभी नहीं रहा। यही कारण है कि ईशनिंदा के लिए किसी ने किसी को सजा नहीं दी। नास्तिक चार्वाक ने तो सार्वजनिक स्थानों और यहां तक कि तीर्थस्थलों में जाकर ईशनिंदा की, लेकिन किसी ने उनकी हत्या नहीं की। उलटे वह ऋषि कहलाए, क्योंकि भारतवासी अपनी आस्थाओं को लेकर कभी असुरक्षा की भावना से ग्रस्त नहीं रहे।

वाद-विवाद से अपने मत को विजयी करना ही भारत की परंपरा रहा है। अपने शासन के आखिरी दिनों में खुद अकबर ने इस सच्चाई को समझा था। वह तमाम पंथों के विद्वानों को अपने दरबार में बहस के लिए बुलाता था। ऐसे में भारत के भविष्य और उसके आत्मा की खोज के लिए यह आवश्यक है कि वह आस्था से जुड़े प्रश्नों के उत्तर बिना किसी आतंक से घबराए हुए खोजे।

अगर यह राजपाल और स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के समय ही किया गया होता तो संभवत: देश का विभाजन न हुआ होता, क्योंकि जिन तत्वों ने इन दोनों की हत्या की, उन्हीं ने बाद में आतंक के दम पर पाकिस्तान बनवाया। आस्था से जुड़े सवालों के अर्थपूर्ण जवाब खोजने के लिए यह आवश्यक है कि कानून और राज्य द्वारा जहां किसी भी मत-मजहब के बारे में अपशब्दों का प्रयोग प्रतिबंधित किया जाए, वहीं तथ्यात्मक समालोचना और वाद-विवाद को संरक्षण दिया जाए। जैसे सत्य और तथ्य किसी की मानहानि का कारण नहीं बनते, वैसे ही मत-मजहब की तथ्यात्मक समालोचना न तो ईशनिंदा मानी जा सकती है और न ही उसके लिए किसी को दंडित किया जा सकता है।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक एवं विधि विशेषज्ञ हैं)