विवेक काटजू

करीब एक माह पहले जब अराकान रोहिंग्या सॉल्वेशन आर्मी यानी एआरएसए के आतंकियों ने म्यांमार सेना और पुलिस के ठिकानों पर सिलसिलेवार हमलों के जरिये धावा बोला तो उसका जवाब वहां की सेना ने भी दिया और परिणाम यह हुआ कि सुरक्षा बलों और रोहिंग्या आतंकियों के बीच संघर्ष छिड़ गया। इसी संघर्ष के चलते करीब चार लाख रोहिंग्यों को म्यांमार से पलायन कर बांग्लादेश में शरण लेनी पड़ी है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इतने बडे़ पैमाने पर लोगों के पलायन को लेकर म्यांमार सरकार को आड़े हाथों लिया है। खासतौर पर म्यांमार की स्टेट काउंसलर और नागरिक सरकार का चेहरा मानी जाने वाली आंग सान सू आलोचनाओं के केंद्र में हैं। उनका जीवन लोकतंत्र के लिए संघर्ष और त्याग का प्रतीक है, जिसके लिए उन्हें 1991 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित भी किया जा चुका है।

हालांकि उन पश्चिमी देशों में उनकी नायिका सरीखी छवि धूमिल होती जा रही है जो म्यांमार की वास्तविकता से परिचित नहीं। म्यांमार अभी भी पूर्ण रूप से परिपक्व लोकतंत्र नहीं बना है। संवैधानिक रूप से सुरक्षा मोर्चे का पूरा दायित्व सेना के पास है। ऐतिहासिक कारणों से सेना आंग सान सू पर विश्वास नहीं करती। सेना के कट्टर धड़ों की दिलचस्पी फिर सत्ता हासिल कर सैन्य तानाशाही कायम करने में होगी। इस प्रकार आंग सान को बेहद मुश्किल राह पर चलना होगा। एक तो उन्हें अपने बर्मन नस्लीय समुदाय की भावनाओं को लेकर संतुलन साधना होगा जिनकी देश में सबसे ज्यादा संख्या है और जो नि:संदेह सबसे शक्तिशाली समूह भी है, लेकिन यह संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त 125 समूहों में से एक ही है। ये सभी समूह दक्षिण पूर्व मूल के हैं और इनमें से तमाम ने म्यांमार सेना के खिलाफ कई हिंसक अभियान भी चलाए हैं। सेना पर बर्मन लोगों का ही नियंत्रण है।


रोहिंग्या ऐसा नस्लीय समूह है जिसका भारत से म्यांमार में तब पलायन हुआ जब दोनों देशों में अग्रेजी राज कायम था। उस वक्त अंग्रेज भारत से ही म्यांमार की सत्ता चलाते थे। इस बात के भी साक्ष्य हैं कि रोहिंग्या पहले से ही रखाइन प्रांत में जाते रहे, लेकिन ब्रिटिश राज में यह सिलसिला काफी बढ़ गया। रोहिंग्यों का आगमन म्यांमार के मूल निवासियों को बेहद नागवार गुजरा और इसके चलते ही वहां की सरकार ने आजादी के बाद ऐसे सभी विस्थापितों को नागरिक अधिकार देने से इन्कार कर दिया जो कभी उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु और बंगाल के अलग-अलग इलाकों से वहां गए थे। परिणामस्वरूप तमाम लोगों ने म्यांमार छोड़ दिया। जो लोग वहां रह गए उन्हें भारी भेदभाव का सामना करना पड़ा।

रोहिंग्यों की स्थिति कमोबेश वैसी ही बनी हुई है जैसी दक्षिण एशिया के अन्य समूहों की है, लेकिन इसमें एक और पहलू यह है कि म्यांमार में बौद्धों और मुसलमानों के बीच रिश्ते काफी खराब हो चले हैं। दशकों से रोहिंग्या बांग्लादेश की ओर पलायन करते आए हैं। ऐसे में म्यांमार से हो रहा रोहिंग्या विस्थापन कोई हालिया परिघटना नहीं है। कुछ रोहिंग्यों में अलगाववादी प्रवृत्ति भी पनप रही है जिसे रखाइन प्रांत में खूब खाद-पानी मिल रहा है। सऊदी अरब और पाकिस्तान में भी रोहिंग्या समुदाय की मौजूदगी है जहां उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव होता है और उन्हें किसी तरह के अधिकार भी नहीं मिले हैैं। इस मसले पर पाकिस्तान मुखरता के साथ म्यांमार का विरोध तो कर रहा है, लेकिन इसमें उसका पाखंड ही जाहिर होता है। उसने अपनी धरती से संचालित होने वाले आतंकी समूहों के तार रोहिंग्यों से जोड़ दिए। इन्हीं संपर्कों से रोहिंग्या जिहादी समूहों की स्थापना हुई जिन्होंने हिंसा को बढ़ावा दिया। अभी ऐसी रिपोर्ट आई हैं जिनके मुताबिक रोहिंग्या आतंकियों ने रखाइन प्रांत में हिंदुओं को भी निशाना बनाया।

म्यांमार में सभी जिम्मेदार पक्षों को ऐसे कदम उठाने की जरूरत है जिनसे रोहिंग्या समुदाय में विश्वास बहाल हो और बांग्लादेश की ओर हो रहे उनके पलायन पर विराम लगे। इसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी म्यांमार सेना पर है, लेकिन मुश्किल यह है कि वैश्विक जिहाद का हिस्सा बनते जा रहे रोहिंग्या आतंकी भी हालात बिगाड़ने के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं। आंग सान सू को परंपरागत नस्लीय समुदायों विशेषकर बर्मन समुदाय को यह समझाना चाहिए कि वे पिछले दो सौ वर्षों के दौरान भारत छोड़ म्यांमार में बस चुके लोगों के साथ समानता से पेश आएं। इसके लिए उन्हें समय दिए जाने की जरूरत है। इसमें दबाव या आलोचना कारगर साबित नहीं होगी।

रोहिंग्या मसले पर भारतीय कूटनीति की भी कड़ी परीक्षा हो रही है। भारत में यह राजनीतिक रूप से संवेदनशील मसला बन गया है। भारत में कुछ राजनीतिक दल और विद्वानों का एक वर्ग सरकार पर निशाना साध रहा है। उनकी एक शिकायत तो यह है कि सरकार ने म्यांमार पर नरम रवैया अपनाया हुआ है और दूसरी यह कि वह भारत में रह रहे रोहिंग्यों को अवैध रूप से रह रहे लोगों में गिनती है और वापस म्यांमार भेजना चाहती है। क्या उनकी बातें जायज हैं? भारत सरकार को अपने यहां रह रहे रोहिंग्यों और म्यांमार के रोहिंग्या मसले को अलग-अलग नजरिये से देखना होगा।

भारत सरकार का रुख है कि देश में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थी नहीं, बल्कि अवैध अप्रवासी हैं जिन्हें म्यांमार वापस भेजा जाएगा। फिलहाल इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है जहां सरकार ने कहा है कि वह हस्तक्षेप न करे, क्योंकि यह मसला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है। सरकार ने कुछ रोहिंग्यों को लेकर ऐसे साक्ष्य भी उपलब्ध कराने की बात कही है जिनसे यह पता चलता है कि उनके तार आतंकी समूहों से जुडे़ हैं। हालांकि विपक्षी दल और मुस्लिम समूहों सहित सरकार के अन्य आलोचक यह याद दिला रहे हैं कि वह अंतरराष्ट्रीय कानूनों से बंधी है और उन लोगों को वहां नहीं भेजा जा सकता जहां उनकी जान को खतरा हो। बेहतर होगा कि इस मसले को सांप्रदायिक चश्मे से न देखा जाए और राष्ट्रीय सुरक्षा एवं विदेश नीति से जुड़े मसलों पर फैसलों का दारोमदार सरकार पर ही छोड़ दिया जाए।

भारतीय कूटनीति के समक्ष दुविधा इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि बांग्लादेश और म्यांमार, दोनों ही महत्वपूर्ण पड़ोसी हैं। बांग्लादेश उम्मीद करता है कि भारत म्यांमार से कहेगा कि वह रोहिंग्यों को इंसाफ दिलाए जिससे शरणार्थियों के रूप में आ रहे रोहिंग्यों की आवक रुके, क्योंकि वे उसके संसाधनों पर दबाव बढ़ा रहे हैं। वहीं म्यांमार उम्मीद करता है कि भारत उसकी सुरक्षा चिंताओं को समझे। भारत को यहां संतुलन साधने की दरकार होगी ताकि दोनों देशों में उसके महत्वपूर्ण हितों को कोई नुकसान न पहुंचे। बांग्लादेश को शरणार्थी संकट से निपटने के लिए वित्तीय और हर तरह की मदद मुहैया कराने के साथ ही भारत को चाहिए कि वह म्यांमार से भी इस मामले में उचित कदम उठाने के लिए कहे। इसी के साथ उसे रोहिंग्यों के आतंकी संपर्कों पर भी कड़ी नजर रखनी चाहिए और म्यांमार के सहयोग से सुनिश्चित करना चाहिए कि रखाइन प्रांत में जडें जमा रहे जिहादी संगठन उखाड़ फेंके जाएं।

[ लेखक म्यांमार में भारत के राजदूत और विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं ]