नई दिल्ली [प्रो. गुलशन सचदेवा]। पिछले तीन दशकों से लगातार अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने एशिया में उभरती ताकतों को संतुलन के लिए भारत की शक्ति को मान्यता दी है। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2000 के दशक के मध्य में नागरिक परमाणु और रक्षा ढांचे के समझौते के जरिए उत्पादक रणनीतिक साझेदारी की नींव रखी थी।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रिश्तों को आगे बढ़ाया है। एक सीमा तक दोनों देश एशिया में चीन के बढ़ते उभार को लेकर एकजुट हैं। चीन के तेजी से आगे बढ़ते रथ को धीमा करने के लिए नई दिल्ली अमेरिका के साथ सैन्य और लॉजिस्टिक समझौतों, चतुर्भुज सुरक्षा संवाद, भारत-प्रशांत क्षेत्र पर आम दृष्टिकोण आदि साझेदारी कर रही है।

अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती निकटता के चलते निश्चित रूप से यूरोप और मध्य-पूर्व की साझेदारियों पर असर पड़ेगा। परंपरागत रूप से यूरोप और अमेरिका के बीच ट्रांस अटलांटिक साझेदारी बहुत करीब रही है। ज्यादातर यूरोपीय देश नाटो के भी सदस्य हैं। इसलिए अमेरिका के लिए भारत की निकटता ने वास्तविक रूप से यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देशों की मदद की है, विशेष रूप से सुरक्षा के क्षेत्र में।

इसी समय यूरोपीय देश अमेरिका के साथ भारतीय हथियार बाजार के लिए प्रतिस्पद्र्धा कर रहे हैं। 2008 से, भारत ने अमेरिका के साथ लगभग 15 अरब डॉलर के रक्षा अनुबंधों पर हस्ताक्षर किए हैं। इसी तरह भारत ने फ्रांस से राफेल भी खरीदा है। ईरान परमाणु समझौते में यूरोप ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसमें भारत ने भी सहयोग किया था। इस समझौते का मुख्य उद्देश्य तेहरान को परमाणु बम बनाने वाली तकनीक हासिल करने से रोकना था।

राष्ट्रपति ट्रंप का समझौते से हाथ खींच लेना और पुन: प्रतिबंध लगाया जाना भारत के लिए नई परेशानी है। भारत-ईयू संबंधों की धुरी व्यापार और निवेश है। यूरोपीय देश भारतअमेरिका के मध्य व्यापार को लेकर जारी तनाव को ध्यान से देख रहे हैं। मोदी सरकार व्यापार उदारीकरण को लेकर काफी सजग है। यदि भारत अमेरिका के साथ छोटे व्यापार समझौते के लिए भी तैयार नहीं हुआ तो इसका नकारात्मक प्रभाव भविष्य में भारत के साथ यूरोपियन यूनियन और ब्रिटेन से होने वाले समझौते पर पड़ेगा।

पश्चिम एशिया में भारत-अमेरिका संबंधों में निकटता का सबसे ज्यादा असर ईरान और इजरायल पर पड़ेगा। अमेरिका के साथ घनिष्ठ भारतइजरायल संबंधों के लिए बेहद सकारात्मक होगी। वहीं यह समझौता ईरान के साथ हमारे संबंधों के लिए गंभीर मुद्दों को बनाएगी। ऐतिहासिक और सभ्यतागत कड़ी से अलग, ईरान ऊर्जा का मुख्य स्रोत है। भारत-पाकिस्तान संबंधों के कठिन होने के कारण, ईरान अफगानिस्तान और मध्य एशिया के लिए भारतीय रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना रहेगा।

ईरान के साथ बढ़ता अमेरिकी वैमनस्य उस क्षेत्र में हमारे विकल्पों को सीमित कर रहा है। अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण, ईरान से ऊर्जा आयात में गिरावट आई है। यद्यपि भारत चाबहार बंदरगाह सहित कई बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के साथ ईरान पर काम कर रहा है। तेहरान को लगता है कि भारतीय कार्य अमेरिकी डिजाइनों से प्रभावित होंगे। ईरान के साथ तनाव को छोड़कर, अमेरिका का पश्चिम एशिया में महत्वपूर्ण प्रभाव है।

गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल देशों (बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और यूएई) में भारत के अमेरिका के साथ बढ़ते संबंधों को लेकर कोई गंभीर मुद्दे नहीं हैंं। भारत को मूल रूप से ईरान, इजरायल, सऊदी अरब जैसे प्रमुख देशों के साथ द्विपक्षीय रूप से अपनी प्राथमिकता के आधार पर काम करना है। क्योंकि अमेरिका भी ऊर्जा उत्पादों का निर्यातक बन रहा है, इसलिए अमेरिका के साथ भविष्य में होने वाले ऊर्जा सौदों का पश्चिम एशिया के देशों के साथ हमारे संबंधों पर भी प्रभाव पड़ेगा। कुल मिलाकर, ईराक, लीबिया, सीरिया और ईरान में अमेरिकी कार्रवाइयों ने क्षेत्र में अस्थिरता पैदा की है, जिसने भारतीय ऊर्जा सुरक्षा के लिए नई चुनौतियां पैदा की हैं।

(चेयरपर्सन, सेंटर फॉर यूरोपियन स्टडीज, जेएनयू)