राजीव सचान: पिछले दिनों पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में उन्मादी भीड़ ने एक थाने को इसलिए जला दिया, क्योंकि पुलिस ईशनिंदा के एक आरोपित को हिंसक भीड़ को सौंपने के लिए तैयार नहीं थी। यदि वह ऐसा कर देती तो उसका वही हश्र होता जो थाने का हुआ। पाकिस्तान में यह पहली बार नहीं, जब अराजक भीड़ ने ईशनिंदा के किसी आरोपित को अपने कब्जे में लेने के लिए थाने पर हमला किया हो। वहां ऐसा होता ही रहता है। पाकिस्तान में ईशनिंदा के आरोपितों को खुद सजा देने की सनक तब बढ़ती जा रही है, जब वहां इसके लिए कानून बना हुआ है और उसमें फांसी की सजा का भी प्रविधान है। हालांकि यह सजा इक्का-दुक्का लोगों को ही दी गई है, लेकिन उन्मादी भीड़ के हाथों ईशनिंदा के सैकड़ों आरोपित मारे जा चुके हैं-अदालतों में, जेलों में और अपने घरों एवं मोहल्ले में। पाकिस्तान में उन्मादी भीड़ उनकी भी जान की दुश्मन बन जाती है, जो ईशनिंदा कानून को हटाने की मांग करते हैं या फिर उसे सभ्य समाज के लिए कलंक बताते हैं।

पाकिस्तान में ऐसे खौफनाक नतीजों वाले ईशनिंदा कानून के बावजूद भारत में भी कुछ लोग ऐसा ही कानून बनाने की मांग कर रहे हैं। अभी हाल में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने कानपुर में एक बैठक कर यह मांग की कि ईशनिंदा को लेकर कानून बनाया जाए। बोर्ड ने इसकी जरूरत इसलिए जताई, क्योंकि उसकी समझ से इन दिनों मुहम्मद साहब की शान में गुस्ताखी के मामले बढ़ते जा रहे हैं। हालांकि बोर्ड ने अपनी मांग को वजन देने के लिए यह भी कहा कि ईशनिंदा कानून के तहत किसी भी धर्म की धार्मिक हस्तियों के खिलाफ बातें करने वालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन कोई भी समझ सकता है कि उसका मकसद यह है कि इस्लामी मान्यताओं की आलोचना न हो सके। पर्सनल ला बोर्ड की बैठक में यह भी कहा गया कि उसे समान नागरिक संहिता किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं होगी। उसने न्यायपालिका से धार्मिक शास्त्रों की व्याख्या करने से परहेज करने को भी कहा।

यह अच्छा है कि ईशनिंदा कानून बनाने की मांग का मुस्लिम समाज के लोगों की ओर से भी विरोध शुरू हो गया है। जावेद अख्तर, शबाना आजमी के साथ नसीरुद्दीन शाह ने ईशनिंदा कानून बनाने की आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की मांग का कड़ा विरोध किया है, लेकिन ऐसे कानून की वकालत करने वाले भी आगे आ सकते हैं। एक समय पंजाब से इसी तरह की मांग उठी थी। 2018 में पंजाब विधानसभा ने ईशनिंदा पर पाकिस्तान जैसा कानून बनाने का एक प्रस्ताव पास किया था। शुक्र है कि इस प्रस्ताव पर केंद्र सरकार ने गौर नहीं किया। इस प्रस्ताव के अनुरूप कानून बनने का मतलब होगा भारत को पाकिस्तान के रास्ते पर ले जाने की कोशिश करना।

पंजाब में ईशनिंदा पर कठोर कानून बनाने की पैरवी करने वालों के साथ ऐसे भी लोग हैं, जो ईशनिंदा के आरोपितों को खुद सजा देने के हामी हैं। ऐसे ही तत्वों ने दशहरे के दिन दिल्ली-हरियाणा सीमा पर किसान संगठनों के धरने के निकट मजदूर लखबीर सिंह को तालिबानी तरीके से मार डाला था। लखबीर के हत्यारों ने उस पर आरोप मढ़ा था कि उसने गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की। यह अपुष्ट आरोप फर्जी ही जान पड़ता है।

ईशनिंदा पर कानून बनाने की मांग केवल इसलिए खारिज नहीं की जानी चाहिए कि यह भारत को पाकिस्तान की राह पर ले जाएगी, बल्कि इसलिए भी की जानी चाहिए ताकि अभिव्यक्ति की आजादी जिंदा रहे। अभिव्यक्ति की आजादी केवल किसी की तारीफ करने के लिए नहीं होती। यह आलोचना करने और असहमति जताने का भी अधिकार देती है।

आलोचना के इस दायरे से किसी को बाहर नहीं रखा जा सकता-न तो धर्मग्रंथों को और न ही धार्मिक हस्तियों को। इस आलोचना की भी एक सीमा है और इसी कारण भारतीय दंड संहिता की धारा 295 ए में धार्मिक भावनाओं को आहत करने पर दंड का प्रविधान है। जब धार्मिक भावनाओं को आहत करने का कानून पहले से है, तब फिर ईशनिंदा का कानून बनाने की मांग का कोई औचित्य नहीं। ऐसा कोई कानून बनने का मतलब है तर्कशील लोगों, मुक्त चिंतकों, खुद को नास्तिक या एग्नास्टिक कहने वालों के मुंह पर ताला लगाना और वह भी उस देश में जहां न जाने कितने दार्शनिकों ने ईश्वर के अस्तित्व पर न केवल प्रश्न उठाए, बल्कि उसकी सत्ता को खारिज भी किया। यह भारत में विचार की स्वतंत्रता को सम्मान दिए जाने का ही प्रतिफल है कि यहां नास्तिक केंद्र भी चलते हैं। ऐसा एक प्रमुख केंद्र विजयवाड़ा में है, जिसे महात्मा गांधी के सहयोगी गोपाराजू रामचंद्र राव ने स्थापित किया था। ईशनिंदा पर कानून बनने का यह भी मतलब होगा कि स्वयं को एक्स मुस्लिम कहने वाले तसलीमा नसरीन जैसे लोगों को कैद में डाल देना तथा कमलेश तिवारी की हत्या करने वालों का मनोबल बढ़ाना।

कहीं आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की मांग के पीछे वसीम रिजवी तो नहीं, जो मुहम्मद साहब पर लिखी गई अपनी किताब के कारण चर्चा में हैं? हैरानी नहीं कि पर्सनल ला बोर्ड को वे मुस्लिम युवा भी खटक रहे हों, जो यूट्यूब पर सक्रिय होकर इस्लामी मान्यताओं पर सवाल उठा रहे हैं। एक साल पहले देश में ऐसे दो-तीन लोग ही थे। आज उनकी संख्या एक दर्जन से अधिक हो चुकी है। इनमें जफर हेरेटिक, सचवाला, साहिल, कोहराम, आजाद ग्राउंड, एपोस्टेट इमाम, यास्मीन खान आदि प्रमुख हैं। जरूरत उनके तार्किक सवालों का जवाब देने की है, न कि उन्हें धमकाने या फिर उनका मुंह बंद करने के लिए ईशनिंदा का कानून बनाने की मांग करने की। यह हर लिहाज से एक खतरनाक मांग है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)