समस्याएं बढ़ाता अधिक खपत: कोरोना से बचने के लिए उपयोगिता के सिद्धांत को करना होगा पुन: परिभाषित
भविष्य में यदि हमें कोविड जैसी मुश्किलों से बचना है तो हमें उपयोगिता के सिद्धांत को पुनर्परिभाषित करना ही होगा। खपत की अंधाधुंध मात्रा बढ़ाने के स्थान पर अचेतन द्वारा बताई गई दिशा में समाज को सीमित मात्रा में खपत करने के लिए प्रेरित करना होगा।
[ भरत झुनझुनवाला ]: विद्वानों का मानना है कि वर्तमान कोविड संकट प्रकृति और मनुष्य के बीच असंतुलन के कारण पैदा हुआ है। जैव विविधता पर वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्ट, 2019 में एडवार्डो ब्रोंडीजियो ने कहा है कि पिछले 50 वर्षों में वैश्विक अर्थव्यवस्था में चार गुना और वैश्विक व्यापार में 10 गुना वृद्धि हुई है। व्यापार में वृद्धि का अर्थ हुआ कि आज किसी भी स्थान पर बैठा व्यक्ति दूर-दराज के प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग कर रहा है। आधुनिक अर्थशास्त्र में इसे ‘ग्लोबल वैल्यू चेन’ कहा जाता है। हमने नए-नए ऐसे स्थानों को खोलना शुरू कर दिया है, जहां के प्राणी पहले मनुष्य के संपर्क में नहीं थे। जैसे आज समुद्र की तलहटी में कोरल रीफ को नष्ट करके जलमार्ग बनाए जा रहे हैं और पहाड़ों की चोटियों पर नदियों को रोककर जल विद्युत का उत्पादन हो रहा है। फलस्वरूप इन क्षेत्रों के जीव स्वयं को संकट में पा रहे हैं।
सामाजिक असमानता के कारण कोविड जैसे संकट गरीबों पर ज्यादा प्रभाव डालते हैं
अपने जीवन की रक्षा के लिए वे मनुष्य जैसे अन्य जीवों पर आक्रमण कर रहे हैं। इसी क्रम में फोब्र्स डॉट कॉम पर बताया गया है कि वायु प्रदूषण में नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड के फैलने से फेफड़ों में सूजन होती है। इससे फेफड़ों की वायरस के प्रवेश को रोकने की शक्ति कम हो जाती है। सामाजिक असमानता के कारण कोविड जैसे संकट गरीबों पर ज्यादा प्रभाव डालते हैं, क्योंकि उनमें कुपोषण के कारण रोग का प्रतिरोध करने की शक्ति कम होती है। गरीबों में फैला कोविड देर-सबेर पूरे समाज में फैल जाता है। इन सभी कारकों के पीछे अर्थशास्त्र का एक सिद्धांत है कि जितनी अधिक खपत की जाएगी, उतना ही समाज आगे बढ़ेगा।
पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाने से क्या देश की जनता सुखी हो जाएगी
यदि हम पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन गए तो क्या हम सहज ही स्वीकार कर लेंगे कि हमारे देश की संपूर्ण जनता सुखी हो गई? उत्तरोत्तर अधिक उत्पादन और खपत को ही हम जीवन का उद्देश्य मानते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम दूरदराज के क्षेत्रों से माल खरीदते हैं, समुद्र के नीचे रीफ्स को नष्ट करते हैं, पहाड़ के ऊपर जल विद्युत बनाते हैं, वायु को प्रदूषित करते हैं और सामजिक असमानता को अंगीकार करते हैं, लेकिन खपत की चाहत में लागू की गई इन्हीं नीतियों का परिणाम है कि आज कोविड से छुटकारा पाना मुश्किल हो रहा है।
खपत के उद्देश्य पर पुनर्विचार करने की जरूरत
मध्यधार्गी अर्थशास्त्री इस कटु सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहते कि खपत के उद्देश्य पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। इसलिए वे कहते हैं कि खपत को उत्तरोत्तर बढ़ाते हुए यदि हम स्वस्थ भोजनशैली और स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ाएं तो हम इस प्रकार के संकट से बच सकते हैं। मैं इससे सहमत नहीं हूं। थर्मल बिजली का उत्पादन पिछले पचास साल में बहुत साफ हुआ है, कार से होने वाले उत्सर्जन में भी कमी आई है, मेट्रो के कारण यातायात की कार्बन फुटप्रिंट कम हुई है, लेकिन ग्लोबल वैल्यू चेन फैलती जा रही है और कुल प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। इसलिए जब तक मनुष्य खपत को ही जीवन का अंतिम उद्देश्य मानेगा, तब तक हम कितनी भी स्वच्छ तकनीक का उपयोग कर लें, खपत बढ़ती ही जाएगी और अंतत: प्रकृति किसी न किसी रूप में हमसे बदला लेगी।
कम खपत में अधिक आनंद और अधिक खपत में कम आनंद
अमर्त्य सेन ने हमें ध्यान दिलाया था कि एक फकीर कम मात्रा में उपभोग करता है, फिर भी वह वातानुकूलित हवेली में रहने वाले लोगों की तुलना में अधिक प्रसन्न रहता है। कम खपत में अधिक आनंद और अधिक खपत में कम आनंद, दोनों देखे जाते हैं। दरअसल खपत के सिद्धांत में मौलिक खामी है। अर्थशास्त्र के प्राथमिक पाठ्यक्रम में बताया जाता है कि एक केले को खाने से आपको जितना आनंद अथवा उपयोगिता मिलती है, उससे कुछ कम उपयोगिता आपको दूसरे केले को खाने से मिलती है और उससे भी कुछ कम उपयोगिता तीसरे केले को खाने से। खपत तब तक बढ़ाते जाना चाहिए, जब तक उससे मिलने वाली उपयोगिता शून्य न हो जाए। यद्यपि उत्तरोत्तर खपत से उपयोगिता की मात्रा कम होती जाती है, लेकिन आनंद तो खपत से ही मिलता है। आधुनिक अर्थशास्त्र का यह मौलिक सिद्धांत है। इसके अनुसार खपत बढ़ाने के लिए ही हम वैश्विक व्यापार को बढ़ा रहे हैं। इसी कारण अन्य समस्याओं के साथ रक्तचाप, मधुमेह आदि के मामले भी बढ़ रहे हैं। इस कारण मनुष्य भी दुखी है और प्रकृति भी दुखी है।
उपयोगिता के सिद्धांत को पुन: परिभाषित करना होगा
उपयोगिता के सिद्धांत के विपरीत कार्ल यंग जैसे मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आनंद हमारे चेतन और अचेतन के समन्वय से प्राप्त होता है। जैसे साधु के अचेतन में प्रकृति के साथ एकांत में रहना पसंद है तो उसके लिए वातानुकूलित गाड़ी दुख का कारण बन सकती है। अत: जरूरत इस बात की है कि अर्थशास्त्री अपने इस मौलिक सिद्धांत का त्याग करें कि उपभोग से आनंद मिलता है और आनंद की नई व्याख्या करें कि आनंद का स्नोत मनुष्य के अचेतन में पड़ी इच्छाओं के चेतन कार्यों के साथ समन्वय में है। शहनाई सम्राट बिस्मिल्लाह खान को गंगा के किनारे बैठकर शहनाई बजाने में जो आनंद मिलता था, वह अमेरिका में शहनाई बजाने में नहीं मिलता था। उन्हें अमेरिका में उपभोग असीमित मात्रा में उपलब्ध था, पर वे नहीं गए। अत: हमें उपयोगिता के सिद्धांत को मनोविज्ञान की कसौटी पर रखकर पुन: परिभाषित करना होगा। कहना होगा कि आनंद उत्तरोत्तर अधिक खपत से नहीं, बल्कि अचेतन इच्छाओं के अनुरूप खपत से प्राप्त होता है।
खपत की मात्रा नहीं दिशा तय करती है कि वह आनंददायक होगी अथवा कष्टदायक
खपत की मात्रा महत्वपूर्ण नहीं होती है। खपत की दिशा तय करती है कि वह खपत आनंददायक होगी अथवा कष्टदायक। हर व्यक्ति को यह बताया जाना चाहिए कि वह अपने अचेतन में पड़ी इच्छाओं का संज्ञान ले और उनकी र्पूित मात्र के लिए जितना न्यूनतम खपत करना आवश्यक हो, उतनी ही खपत करे। खपत की इच्छा पैदा करने वाले विज्ञापन पर रोक लगानी होगी। तब मनुष्यों के लिए प्रकृति का उत्तरोत्तर दोहन करना जरूरी नहीं रह जाएगा और मनुष्य आनंद भी प्राप्त करेगा।
कोविड जैसी महामारी से बचने के लिए उपयोगिता के सिद्धांत को पुन: परिभाषित करना होगा
कोविड-19 फ्रांस, स्पेन, इंग्लैंड और अमेरिका जैसे विकसित देशों में ही ज्यादा बढ़ा है। इससे ‘विकास’ और प्रकृति के नष्ट होने और कोविड जैसे संकट आने का संबंध स्पष्ट दिखता है। भविष्य में यदि हमें कोविड जैसी मुश्किलों से बचना है तो हमें उपयोगिता के सिद्धांत को पुनर्परिभाषित करना ही होगा। खपत की अंधाधुंध मात्रा बढ़ाने के स्थान पर अचेतन द्वारा बताई गई दिशा में समाज को सीमित मात्रा में खपत करने के लिए प्रेरित करना होगा।
( लेखक अर्थशास्त्री हैं )