आरके सिन्हा। आगामी लोकसभा चुनावों की घोषणा शीघ्र ही होने वाली है। इस सिलसिले में विभिन्न राजनीतिक दल अपनी चुनावी रणनीति और उम्मीदवारों के नामों को अंतिम रूप देने में लगे हैं। इसी के साथ उन्होंने लोकलुभावन घोषणाएं करना भी शुरू कर दिया है। यह मानकर चलिए कि आने वाले दिनों में राजनीतिक दल जनता को लुभाने के लिए बहुत कुछ मुफ्त में देने का वादा करेंगे। राहुल गांधी ने नारी न्याय गारंटी के नाम पर ऐसी कई घोषणाएं कर भी दी हैं। उन्होंने हर गरीब महिला को सालाना एक लाख रुपये देने का वादा किया है। उन्होंने इस तरह की घोषणाएं पिछले लोकसभा चुनाव के समय भी की थीं, लेकिन उनसे जनता प्रभावित नहीं हुई। इस पर विचार किया जाना चाहिए कि मुफ्त बिजली, पानी और दूसरी तमाम चीजें देना कहां तक उचित है और वह भी चुनाव जीतने के लिए?

लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मुफ्त की घोषणाएं करना कोई नया चलन नहीं है। इस चलन पर बहस होती रहती है और इसके विरोध में कई स्वर भी सुनाई देते रहे हैं, पर होता कुछ नहीं है। अपने देश में रेवड़ियां बांटने का वादा और फिर उन पर जैसे-तैसे और अक्सर आधे-अधूरे ढंग से अमल का दौर चलता ही रहता है। लोकलुभावन वादों को पूरा करने की लागत अंततः मतदाताओं को खासकर करदाताओं को ही वहन करनी पड़ती है-अक्सर करों अथवा उपकरों के रूप में। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने तेलंगाना विधानसभा चुनाव के समय मुफ्त रेवड़ियां देने के मुद्दे को उठाते हुए कहा था कि कई राज्यों ने अपनी वित्तीय स्थिति की अनदेखी करते हुए मुफ्त की सुविधाएं देने का वादा कर दिया है।

मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने भी मुफ्त रेवड़ियां बांटने के चलन पर गंभीर चिंता जताई थी। नीति आयोग के साथ रिजर्व बैंक भी मुफ्त की रेवड़ियों पर आपत्ति जता चुका है, लेकिन राजनीतिक दलों पर कोई असर नहीं। कई बार तो वे अपात्र लोगों को भी मुफ्त सुविधाएं देने के वादे कर देते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कुछ समय पहले उन दलों को आड़े हाथों लिया था, जो वोट लेने के लिए मुफ्त की रेवड़ियां देने के वादे करते हैं। उनका कहना था कि रेवड़ी बांटने वाले कभी विकास के कार्यों जैसे रोड, रेल नेटवर्क आदि का निर्माण नहीं करा सकते। वे अस्पताल, स्कूल और गरीबों के घर भी नहीं बनवा सकते।

रेवड़ी संस्कृति अर्थव्यवस्था को कमजोर करने के साथ ही आने वाली पीढ़ियों के लिए घातक भी साबित होती है। इससे मुफ्तखोरी की संस्कृति जन्म लेती है। मुफ्त की सुविधाएं पाने वाले तमाम लोग अपनी आय बढ़ाने के जतन करना छोड़ देते हैं। दिल्ली में उन महिलाओं को भी डीटीसी बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा दी गई है, जिन्हें इस तरह की सुविधा की जरूरत नहीं। आधी आबादी को मुफ्त यात्रा की सुविधा देने से दिल्ली में डीटीसी को हर साल 15 करोड़ रुपये तक का नुकसान होगा। इस राशि का उपयोग दिल्ली के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर किया जा सकता है।

अब चूंकि लोकसभा के चुनाव करीब हैं तो अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि यदि आगामी आम चुनाव में सभी सातों सीटें आप और कांग्रेस के उम्मीदवारों को मिलीं तो वह 15 दिन के अंदर सबका पानी का बिल माफ कर देंगे। आखिर इस तरह की रेवड़ियां बांटने का क्या मतलब? केजरीवाल पानी के बिल माफ करने का वादा करते हुए यह भूल गए कि दिल्ली में लाखों लोगों को अब भी प्राइवेट टैंकरों से पानी खरीद कर गुजारा करना पड़ता है। जब मुफ्त पानी, बिजली आदि दी जाने लगती है तो उसका दुरुपयोग भी होने लगता है। अफसोस होता है कि हमारे देश में चुनाव में मुफ्त की सुविधाएं बांटना सामान्य हो गया है। तमिलनाडु से उपजा चलन अब सारे देश में फैल गया है।

यदि कोई नेता या राजनीतिक दल गरीबों को कोई सुविधा मुफ्त देने का वादा कर रहा है तो उसे यह भी बताना चाहिए कि वह उसके लिए धन कहां से लाएगा? अनेक अर्थशास्त्री मुफ्त उपहार बांटकर लोगों के वोट खरीदने की खतरनाक प्रवृत्ति के प्रति आगाह कर चुके हैं, लेकिन उनकी चिंताओं से नेता बेपरवाह हैं। वे यह देखने को तैयार ही नहीं कि अनाप-शनाप चुनावी वादों को पूरा करने की कीमत क्या होती है और उनसे आर्थिक सेहत पर कितना बुरा असर पड़ता है। चुनाव के समय किए गए वादों का राजकोषीय प्रभाव सरकार बनने के लगभग 12-18 महीनों के बाद ही महसूस किया जा सकता है। चूंकि यह पक्का है कि राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में लोकलुभावन वादे करेंगे ही, इसलिए चुनाव आयोग को अपने स्तर पर कुछ करना चाहिए। इसी के साथ मतदाताओं को भी इस प्रवृत्ति से परहेज करना होगा। उन्हें शिक्षा, सेहत और रोजगार जैसे जरूरी सवालों पर सर्वाधिक ध्यान देना चाहिए। इससे ही देश में एक स्वस्थ चुनावी संस्कृति का निर्माण होगा।

इस समय देश के सामने एक चुनौती टैक्स देने वाले नागरिकों की संख्या कम होना है। देश का एक बहुत छोटा सा हिस्सा टैक्स देता है। हालांकि पिछले दस साल में करदाताओं की संख्या और टैक्स की वसूली बढ़ी है, लेकिन अभी इसे और बढ़ाने की आवश्यकता है। अगर सभी लोग अपने हिस्से का टैक्स दें तो देश का विकास और तेज हो सकता है। यह ठीक नहीं कि राजनीतिक दल मुफ्त की सुविधाएं देने की होड़ तो लगाएं, लेकिन राजस्व बढ़ाने के लिए जरूरी उपायों पर ध्यान न दें। राजनीतिक दलों की इस आदत पर जनता को सतर्क होना होगा, क्योंकि रेवड़ियां बांटने के वादे पूरे करने से कई राज्यों पर कर्ज का जो बोझ बढ़ा, उसकी कीमत उसे ही चुकानी पड़ रही है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)