[ विवेक काटजू ]: पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम नए सिरे से यह संकेत देने वाले रहे कि कांग्रेस मुक्त भारत के हालात बन रहे हैं, लेकिन आज देश की जनता की सबसे बड़ी मांग कोरोना मुक्त भारत की है। लोग फिलहाल केंद्र और राज्य सरकारों के साथ-साथ समूचे राजनीतिक वर्ग से यह चाहते हैं कि वे दलगत भावना और वैचारिक आग्रह से ऊपर उठकर काम करें। यह मांग इस कारण से बहुत स्वाभाविक है कि देश विभाजन के बाद अपने सबसे मुश्किल दौर से जूझ रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना की दूसरी लहर को उचित ही तूफान की संज्ञा दी। यह सच में एक तूफान ही है, जो लोगों की जान पर आफत बनकर टूटा है। तमाम परिवारों ने अस्पतालों में बेड या आक्सीजन न मिलने और कई मामलों में उपचार के अभाव में अपने प्रियजनों को खो दिया। इससे आक्रोश उत्पन्न हो रहा है। कोरोना संकट लोगों के स्वास्थ्य पर आघात करने के साथ ही आर्थिक दुष्प्रभाव पैदा कर रहा है, जिसके सामाजिक एवं राजनीतिक परिणाम भी सामने आ सकते हें। इन दुष्प्रभावों को दुनिया भी देख रही है।

भले ही नंदीग्राम से ममता हार गईं, लेकिन तृणमूल कांग्रेस पूरे बंगाल पर छा गई 

नंदीग्राम की हार भले ही ममता बनर्जी के लिए व्यक्तिगत शर्मिंदगी का सबब बनी हो, लेकिन उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस पूरे बंगाल पर छा गई। कोई भी निष्पक्ष राजनीतिक विश्लेषक इसे नहीं झुठला सकता कि ममता ने अकेले अपने दम पर भाजपा का सामना किया। पीएम मोदी से लेकर भाजपा के तमाम दिग्गजों की कोई भी रणनीति ममता के तीसरे कार्यकाल में बाधा नहीं डाल सकी।

भाजपा ने अपनी सीटों में किया भारी इजाफा 

हालांकि राज्य में भाजपा ने अपनी सीटों में भारी इजाफा किया। बंगाल में अब उसके 77 विधायक हो गए हैं। वहीं असम की विषम परिस्थितियों के बावजूद भाजपा राज्य की सत्ता बचाने में सफल रही तो पुडुचेरी में भी उसका गठबंधन जीत गया। उधर वाम मोर्चे ने केरल की परंपरा को पलटकर सत्ता में वापसी की तो दशक भर बाद द्रमुक तमिलनाडु की सत्ता में लौटी। अब इन सभी विजेताओं सहित शेष भारतीय राजनीतिक वर्ग को महामारी से मुकाबले की संपूर्ण प्रतिबद्धता प्रदर्शित करनी होगी। उनके पास गंवाने के लिए वक्त बिल्कुल नहीं है। यह अच्छा लगा कि अपने विजयी भाषणों में नेताओं ने महामारी से लड़ने को अपनी प्राथमिकता बताया। 

महामारी से निपटने के लिए राजनीतिक वर्ग को मतभेद भुलाकर एकजुट होकर काम करना चाहिए

भारतीय राजनीतिक वर्ग के लिए यह ऐसा समय है कि वह जनता को यह संदेश दें कि महामारी जैसी बड़ी चुनौती से निपटने के लिए वे अपने मतभेद भुलाकर एकजुट होकर काम करने में सक्षम हैं। इस मिशन की मशाल प्रधानमंत्री मोदी को ही थामनी पड़ेगी, जो निर्विवाद रूप से देश की सबसे बड़ी राजनीतिक हस्ती हैं और लोगों पर उनका गहरा प्रभाव भी है। यदि प्रधानमंत्री कोई पहल करते हैं तो अन्य नेताओं की भी यह उतनी बड़ी जिम्मेदारी होगी कि वे उस पहल पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दें। जिन नेताओं और प्रशासनिक एवं तकनीकी दिग्गजों से प्रधानमंत्री संपर्क साधें तो उन्हेंं अपनी क्षमताओं के दायरे में जनसेवा करने में कोई हिचक नहीं दिखानी चाहिए। इससे विश्व में यही संदेश जाएगा कि जब भारत किसी भीषण संकट का सामना करता है तो उससे निपटने के लिए उसकी राजनीतिक और प्रशासनिक बिरादरी में एकजुट होकर उसका समाधान करने की क्षमता आ जाती है।

महामारी के दौरान नीतियों को लेकर स्पष्ट होना होगा

कहने का अर्थ यह नहीं कि मौजूदा सरकारें और अहम जिम्मेदारियां संभाल रहे नेता महामारी के दौरान अपनी नीतियों एवं गतिविधियों को लेकर जनता के प्रति जवाबदेह नहीं। ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने गलत ही किया, लेकिन उन्हें अपनी नीतियों एवं कदमों को लेकर स्पष्ट होना होगा। यह भारतीय लोकतंत्र का मूलभूत सिद्धांत है। यदि कोई व्यक्ति या वर्ग महामारी के दौर में जवाब मांग रहा है तो उसे राष्ट्रविरोधी या महामारी के खिलाफ मुहिम को कमजोर करने वाला नहीं करार दिया जा सकता। साथ ही यह ध्यान रखा जाए कि सवाल उठाने की मंशा किसी निहित स्वार्थ से प्रेरित न हो, जो स्वास्थ्य कर्मियों जैसे उस वर्ग के मनोबल पर आघात करे, जो इस मुश्किल वक्त में मोर्चे पर सबसे आगे डटा हुआ है।

पूरी दुनिया की नजरें भारत पर

इस समय पूरी दुनिया की नजरें भारत पर लगी हुई हैं। जहां कुछ देशों ने भारत के साथ सहानुभूति जताने के साथ मदद भी पहुंचाई, वहीं अंतरराष्ट्रीय मीडिया के कुछ वर्गों ने महामारी की दूसरी लहर से निपटने में मोदी सरकार की कड़ी आलोचना की है। हालात ऐसे बन गए कि विदेश मंत्री एस जयशंकर को भारतीय राजदूतों एवं उच्चायुक्तों के साथ एक वर्चुअल कांफ्रेंस तक करनी पड़ी। उसमें जयशंकर ने राजनयिकों से कहा कि वे अंतरराष्ट्रीय प्रभाव वाले अखबारों और चैनलों पर भारत को लेकर बनाए जा रहे खराब विमर्श की काट करें। इसके बावजूद हकीकत यही है कि विमर्श की धारा को मोड़ना मुश्किल है, क्योंकि स्वास्थ्य सुविधाओं की किल्लत को नकारा नहीं जा सकता।

अस्पतालों में दाखिल होने के इंतजार में ही दम तोड़ते दृश्यों ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा

हालांकि तमाम देशों में ऐसी किल्लत देखने को मिली, लेकिन अभी तक कहीं से ऐसे मामले सामने नहीं आए, जहां भारत जैसे किसी बड़े देश की राजधानी के प्रमुख अस्पतालों में संक्रमित लोग दाखिल होने के इंतजार में ही दम तोड़ते दिखे। स्पष्ट है कि ऐसे दृश्यों ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। श्मशानों-कब्रिस्तानों के हालात पर भी दुनिया की नजर पड़ी। संभव है कि भारत में स्थित विदेशी दूतावासों ने भी पिछले तीन महीनों के घटनाक्रम की रपट अपने-अपने देश भेजी होगी, जिसमें दूसरी लहर की भयावहता का उल्लेख होगा। इससे भी कुछ असर पड़ा होगा। ऐसे में राजनीतिक दलों को अपने स्तर पर दूतावासों की मदद से प्रचार पाने के मोह से बचना होगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कूटनीतिक परंपराओं का दूतावासों और भारतीय राजनीतिक बिरादरी दोनों को पालन करना चाहिए।

राजनीतिक वर्ग की एकजुटता से ही विमर्श की धारा बदली जा सकती है

राजनीतिक वर्ग की एकजुटता से ही विमर्श की धारा बदली जा सकती है। इससे ही दुनिया यह समझेगी कि भारत में राजनीतिक दलों के बीच भले ही मतभेद हों, लेकिन आपदा काल में वे एक हो जाते हैं। देश की जनता को भी नेताओं की एकजुटता से प्रेरणा और हौसला मिलेगा। विदेश मंत्री जयशंकर पिछले दिनों जी-7 सम्मेलन के लिए लंदन गए। यह पश्चिमी देशों की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं का समूह है। ऐसे मंचों पर भारत की शिरकत उसके कद को बढ़ाती है, लेकिन यह ध्यान रखा जाए कि जब दुनिया भारत की ओर देख रही है, तब संकल्प दिखाने वाले अवसर को गंवाया नहीं जाना चाहिए।

( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )