[हर्षवर्धन त्रिपाठी]। इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी को लेकर ढेर सारी समानताएं समर्थक और विरोधी गिनाते रहते हैं। राजनीतिक कौशल से लेकर व्यक्तित्व तक नरेंद्र मोदी और इंदिरा गांधी में बहुत कुछ एक जैसा दिखता है। अब जब वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों की तिथि घोषित हो चुकी है, तो यह सवाल भी जायज है कि नरेंद्र मोदी के लिए 2019 का चुनाव या फिर वर्ष 2014 में जीता गया चुनाव, क्या इंदिरा गांधी के किसी चुनाव से मिलता-जुलता है। राजनीतिक आंकड़ों और परिस्थितियों के लिहाज से देखें तो वर्ष 1967 और 2014 में ढेर सारे साम्य हैं और उसी तरह वर्ष 2019 और 1971 में भी। 

अब सवाल यही है कि क्या 2019 में नरेंद्र मोदी की बीजेपी, वर्ष 1971 वाली इंदिरा कांग्रेस की तरह ज्यादा मजबूत होकर उभरेगी? इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी की इस राजनीतिक तुलना में एक और समानता है कि 1967 में ही भारतीय जनसंघ को पांव पसारने का अवसर मिला था, जब इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी 283 सीटें ही जीत सकी थी।

जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद या कहें कि इंदिरा गांधी का यह पहला आम चुनाव था। वर्ष 2014 में अटल बिहारी वाजपेयी भी बीमारी की वजह से राजनीतिक जीवन से निष्क्रिय हो चुके थे। लिहाजा 2014 का चुनाव भारतीय जनता पार्टी ने पूरी तरह से नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व पर ही लड़ा था। इंदिरा और मोदी के 1967 और 2014 में बस एक फर्क था कि नरेंद्र मोदी को अपनी पार्टी को पूर्ण बहुमत तक हर हाल में ले जाना था और इंदिरा गांधी को 1967 में हर हाल में नेहरू से विरासत में मिले पूर्ण बहुमत को बचाकर रखना था।

1967 और 1971 के चुनाव
वर्ष 2019 के चुनाव से पहले 1967 और 1971 के आम चुनावों का संदर्भ जरूरी हो जाता है, क्योंकि 1967 के चुनाव से कई बड़े संदेश निकले थे। वर्ष 1967 में सीपीआइ यानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पांच प्रतिशत से कुछ ज्यादा मत ही हासिल कर सकी और उसकी सीटें भी घटकर 23 रह गई। भारतीय जनसंघ के उभार की बुनियाद भी 1967 में ही पड़ी थी, जब उसे करीब साढ़े नौ प्रतिशत मत के साथ 35 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाबी मिल गई थी। हालांकि साढ़े आठ प्रतिशत से कुछ ज्यादा मत हासिल करने वाली स्वतंत्रता पार्टी को 44 सीटें मिलीं थीं। इसी साल सीपीआइ से टूटकर बनी सीपीएम यानी माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने पहली बार चुनाव लड़ा था और साढ़े चार प्रतिशत से कुछ कम मतों के साथ 19 सीटें जीती थीं।

वर्ष 1967 का ही चुनाव था, जब मद्रास यानी मौजूदा तमिलनाडु में कांग्रेस को 39 में से केवल तीन सीटें मिलीं थीं और द्रविड़ मुनेत्र कणगम 25 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। ओडिशा में कांग्रेस 20 में से महज छह सीटें जीत पाई थी। राजस्थान में 20 में से आधी और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को 40 में से सिर्फ 14 सीटें मिली थीं। केरल में 19 में से कांग्रेस सिर्फ एक सीट जीत सकी थी और देश की राजधानी दिल्ली में भारतीय जनसंघ ने सात में से छह सीटें जीतकर कांग्रेस को बड़ा झटका दिया था। कांग्रेस सिर्फ एक सांसद दिल्ली से जिता पाई थी। 1967 में कांग्रेस नेहरू से इंदिरा में बदली और करीब 41 प्रतिशत मत ही हासिल कर सकी और उस कुल 283 सीटें मिलीं। भारतीय राजनीति में कांग्रेस की बेदखली की बुनियाद 1967 ही थी। इसी साल कांग्रेस देश के छह राज्यों से सत्ता से बाहर हो गई थी।

दूसरे नंबर पर रही सीपीआइ
एक कमाल का विश्लेषण यह भी है कि सीपीआइ जब तक देश में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी रही, तब तक कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी यानी सत्ताधारी पार्टी बनी रही। वर्ष 1971 में भी जब कांग्रेस को 352 सीटें मिलीं तो सीपीएम उस वक्त दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी और सीपीआइ और सीपीएम को मिलाकर 48 सीटें मिली थीं। भारतीय राजनीति का एक चक्र 1967 में पूरा हुआ था और दूसरा चक्र 2014 में। फर्क इतना था कि 1967 में नेहरू से इंदिरा कांग्रेस हुई तो कांग्रेस की सरकार बन गई, लेकिन उसकी ताकत कम हुई, जबकि 2014 में अटलआडवाणी- जोशी से नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी बनी तो भारतीय जनता पार्टी की ताकत अनुमान से बहुत ज्यादा बढ़ी।

संयोग एक जैसा इस मामले में रहा कि इंदिरा कांग्रेस 1967 में 283 सीटें जीतने में कामयाब रही थी और मोदी बीजेपी भी 2014 में 282 सीटें जीत सकी थी। भारतीय जनता पार्टी की अपने सहयोगियों के साथ 336 सीटें लोकसभा में आई थीं। एक और संयोग देखिए कि वर्ष 1967 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की स्वतंत्रता पार्टी मुख्य विपक्षी पार्टी थी और उसे 44 सीटें मिली थीं। इधर वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी रही और उसे भी 44 सीटें हासिल हुईं।

युद्ध जैसी स्थिति का फायदा
दरअसल 1967 और 2014, फिर 1971 और 2019 में ढेर सारे साम्य दिख रहे हैं। वर्ष 1967 और 2014 में आए राजनीतिक परिणाम किस तरह एक जैसे थे, इसके बारे लिखा ही जा चुका है। वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ के अपने कार्यक्रम पर चुनाव लड़ीं और 352 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रहीं, लेकिन गरीबी हटाओ कार्यक्रम के साथ ही पाकिस्तान से युद्ध जैसी स्थिति में होने का फायदा भी इंदिरा गांधी को मिला। इंदिरा गांधी को पाकिस्तान से अलग होने की कोशिश कर रहे बांग्लादेश के नेताओं का साथ देने का भी फायदा मिला।

इंदिरा गांधी और शेख मुजीबुर्रहमान के रिश्तों का अंदाजा इस बात से भी लगता है कि 1968में पाकिस्तान की सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान के नेता शेख मुजीबुर्रहमान पर, भारत के साथ मिलकर पाकिस्तान को बांटने की साजिश का आरोप लगाया। राजनीतिक घटनाक्रम यह भी बताते हैं कि वर्ष 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ भारत को मिली जीत एक बड़ी वजह थी, जिसने 1967 में इंदिरा गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस को सत्ता दिला दी। अन्यथा यह हो सकता था कि कांग्रेस को पूर्ण बहुमत न मिल पाता।

मोदी पर कायम देश का भरोसा
वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव के समय पूर्वी पाकिस्तान यानी आज का बांग्लादेश, पाकिस्तान से अलग होने की लड़ाई लड़ रहा था और 1968 में शेख मुजीबुर्रहमान पर भारत के साथ मिलकर देश तोड़ने की साजिश का आरोप साफ करता था कि किस तरह से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इस मौके का इस्तेमाल पाकिस्तान पर बड़ी चोट करने के लिए कर रही थीं। इसकी चर्चा 1971 के चुनावों में जमकर हो रही थी और इसीलिए नेतृत्व मजबूत करने के लिए देश की जनता ने 1971 में 352 सीटें जिता दी थी।

अब 2019 में भी देश में कुछ 1971 जैसा ही माहौल है। भारत और पाकिस्तान के बीच हालात तनावपूर्ण बने हुए हैं। वर्ष 2014 से 2019 के बीच विकास के मुद्दे के साथ ढेर सारी योजनाओं को लागू करके नरेंद्र मोदी देश की जनता के बीच अपना व्यापक भरोसा बना चुके हैं। पहले सर्जिकल स्ट्राइक और उसके बाद अभी बालाकोट एयर स्ट्राइक ने नरेंद्र मोदी पर देश की जनता का भरोसा कुछ उसी तरह से बना दिया है, जैसा भरोसा भारतीयों को इंदिरा गांधी पर 1965 और 1971 में हुआ था।

व्यापक राजनीतिक गोलबंदी
वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव को लेकर जितनी तरह की गोलबंदी हो रही है, इतनी भारतीय राजनीतिक इतिहास में कभी नहीं हुई और अगर भारतीय राजनीतिक इतिहास में नहीं हुई तो जाहिर है कि दुनिया में कहीं नहीं हुई है। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि दुनिया में कहीं भी इतनी राजनीतिक ‘गोलबंदी’ होती ही नहीं है। मतलब इतने राजनीतिक दलों वाला दुनिया का शायद अकेला देश भारत है। जिस भारतीय जनता पार्टी की ताकत इतनी ज्यादा है कि उससे लड़ने के लिए राजनीति के उत्तरीदक्षिणी ध्रुव समझे जाने वाले यानी धुर विरोधी भी एक हो जा रहे हैं, उस भारतीय जनता पार्टी की गोलबंदी भी 42 पार्टियों के साथ है।

यूपीए में 26 से ज्यादा पार्टियां हैं। इस आंकड़े का जिक्र केवल इसलिए ताकि आसानी से समझ आ सके कि भारत में कितने तरह के राजनीतिक दल हैं और कितनी ज्यादा गोलबंदी है। इसकी एक वजह यह भी थी कि जब आजादी के बाद भारत में कांग्रेस के सामने राष्ट्रवादी जनसंघ, साम्यवादी वामपंथी पार्टियां और समाजवादी पार्टियों का छिटपुट वजूद था, तो लंबे समय तक भारतीय राजनीति में कांग्रेस के पास इतना बड़ा हिस्सा रहता था कि बाकी पार्टियां बचे में से बचा हिस्सा लेने की लड़ाई लड़ती थीं। वर्ष 2019 में भारतीय जनता पार्टी से बचे हिस्से की लड़ाई कांग्रेस के साथ दूसरी पार्टियां लड़ रही हैं, लेकिन क्या कोई भी गोलबंदी बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद मजबूत बनी रह पाएगी या फिर इंदिरा गांधी के 1967 में 283 से 1971 में 352 की तरह नरेंद्र मोदी भी भारतीय जनता पार्टी को 2014 के 282 से 2019 में 350 से ज्यादा सीटें जिताने में कामयाब हो पाएंगे।
[वरिष्ठ पत्रकार]