नई दिल्ली, प्रशांत मिश्र। अयोध्या में वर्षो से खड़े दो विवाद एक के बाद एक निपट गए हैं। पहले शांतिपूर्ण ढंग से राममंदिर पर फैसला आया और सौहा‌र्द्धपूर्ण माहौल में भूमिपूजन हो गया। बुधवार को यह भी अदालत से ही स्पष्ट हो गया कि विवादित ढांचे को गिराने में कोई साजिश नहीं थी। लालकृष्ण आडवाणी, डा मुरली मनोहर जोशी समेत 32 आरोपियों को बरी कर दिया गया।

लेकिन जिस तरह विवादित ढांचे के नीचे रामजन्मभूमि मंदिर होने के पुख्ता सबूत के आधार पर दिये गए सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ लोगों का रास नहीं आया था, उसी तरह सबूतों के अभाव में भाजपा और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं का रिहा होना भी कईयों को पसंद नहीं आ रहा है। कुछ लोग इसे काला दिवस बता रहे हैं, कुछ सीबीआइ पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि देश में ऐसे लोग हैं जिन्हें केवल अपनी मर्जी के फैसले चाहिए होते हैं। फैसला अलग हुआ नहीं कि सवाल खड़े। 

कांग्रेस, वाम जैसे कुछ दलों की ओर से तत्काल विशेष अदालत के फैसले पर सवाल उठाए गए। कांग्रेस ने कहा कि यह सुप्रीम कोर्ट के उस अवलोकन के खिलाफ है जिसमें कोर्ट ने ध्वंस को गैर कानूनी कहा था। तो विशेष अदालत ने कब कहा कि जो हुआ वह कानूनी था। कोर्ट ने भी तो यही कहा है कि अराजक तत्व ध्वंस के लिए जिम्मेदार थे। सीबीआइ को एक बार फिर से सरकार का 'तोता' कहा जाने लगा है। लेकिन सच्चाई का एक दूसरा पहलू भी है। 

बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद सीबीआइ को इसकी जांच सौंपी गई और सीबीआइ ने अज्ञात लोगों के खिलाफ एफआइआर दर्ज कर जांच भी शुरू कर दी। लेकिन उसके बाद राजनीतिक स्तर पर एक और साजिश शुरू हुई थी, जिसका पर्दाफाश अदालत के फैसले में आज हुआ है। यह साजिश थी भाजपा और विश्व हिंदू परिषद के वरिष्ठ नेताओं को इस मामले में फंसाने की।

आडवाणी समेत कई नेताओं को तो बहुत पहले ही कोर्ट ने बरी कर दिया था। हाईकोर्ट ने भी इस फैसले को नहीं बदला तो सुप्रीम कोर्ट खटखटाने की तैयारी हो गई। वर्ष 2010 में सीबीआइ को एक और एफआइआर दर्ज करने पर मजबूर किया गया, जिसमें लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, अशोक सिंघल समेत भाजपा व विहिप के 48 वरिष्ठ नेताओं को आरोपी बनाया गया।

एक सवाल जरूर उठता है कि आखिर इतने हाइप्रोफाइल केस का फैसला आने में इतना अधिक समय क्यों लग गया। तो इसका जवाब भी भाजपा और वरिष्ठ नेताओं को फंसाने के लिए की गई साजिश में ही छुपा है। सीबीआइ से दो एफआइआर दर्ज कराई गई थी। इस क्रम में यह ध्यान में रखा गया कि एक विवादित ढांचे की गिराने की साजिश के दोनों के केस का अदालती कार्रवाई का दायरा भी अलग-अलग हो गया है। एक लखनऊ में तो दूसरा रायबरेली में। 

हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक दशकों तक एक पूरी कानूनी जंग इस अदालती कार्रवाई के दायरे को तय करने को लेकर होती रही। कानूनी पेंच इस बात पर भी फंसता रहा कि दो एफआइआर की चार्जशीट भी दो होगी या एक। यदि दो चार्जशीट होती है तो उसकी सुनवाई रायबरेली और लखनऊ की अलग-अलग अदालत में होगी या फिर एक ही अदालत में।

यदि एक ही अदालत में सुनवाई होगी तो फिर रायबरेली या लखनऊ की अदालत में किसमें सुनवाई की जाएगी। आखिरकार 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि दोनों केस एक साथ रायबरेली की अदालत में ही सुने जाएंगे। अदालत के फैसले से विवादित ढांचे के गिरने के बाद भाजपा व विहिप के वरिष्ठ नेताओं को फंसाने की गई राजनीतिक साजिश का पर्दाफाश हो गया।