अमित शर्मा। पंजाब में कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसान व मजदूर संगठनों के आंदोलन और केंद्र सरकार के खिलाफ राजनीतिक दलों की लामबंदी ने क्या सूबे की राजनीति में भाजपा को हाशिये पर धकेल दिया है? यह एक ऐसा प्रश्न है जो आज प्रदेश के हर गांव की चौपाल से लेकर शहर के चौराहों पर चल रही चर्चा का अहम हिस्सा है। हो भी क्यों न! भाजपा को छोड़ कर सभी प्रमुख राजनीतिक दल खुलेआम आंदोलित संगठनों की हिमायत जो कर रहे हैं। भाजपा के तमाम आला नेताओं के घरों के बाहर प्रदर्शनकारियों का जमावड़ा एक स्थायी रूप ले चुका है।

अमृतसर-दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग पर किसान संगठनों द्वारा पार्टी नेताओं का गांवों में प्रवेश प्रतिबंधित करने का निर्देश देते बड़े-बड़े बैनर और होर्डिंग्‍स हर राहगीर का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। ऐसे राजनीतिक माहौल के बीच इस तरह के कयास लगना कि भाजपा इस बाजी में बहुत पिछड़ गई है, स्वाभाविक है और वाजिब भी। लेकिन इन्हीं कयासों के बीच एक अहम सवाल यह भी उठता है कि क्या पंजाब भाजपा के पास वास्तव में खोने के लिए इतना सब है या फिर राज्य के इतिहास में पहली बार केसरिया पार्टी के ऐसे चौतरफा विरोध ने भाजपा को चर्चा का केंद्रबिंदु बना राजनीतिक गलियारों में लौटने का अवसर दिया है?

फिलहाल स्थिति कुछ ऐसी ही है। उसी पंजाब में जहां 2014 और 2019 में देशभर में चली प्रचंड केसरिया लहर के बावजूद ब्रांड मोदी चुनावी चर्चाओं से लगभग गायब रहा, आज यह स्थिति है कि राजधानी चंडीगढ़ से लेकर अंतरराष्ट्रीय भारत-पाकिस्तान सीमा पर स्थित देश के आखिरी गांव पुल कंजरी तक अगर कोई चर्चा या बहस का केंद्रबिंदु है तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र की भाजपा सरकार है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन कृषि कानूनों ने मौजूदा हालातों में किसान बहुल पंजाब में भाजपा के लिए रास्ता और भी कठिन एवं चुनौतीपूर्ण कर दिया है। लेकिन एक सच यह भी है कि हर चुनौती अपने आप में एक अवसर भी लेकर आती है। पिछले बीस दिनों के घटनाक्रम में जिस तरह शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा से नाता तोड़ पुन: कट्टरपंथी सोच आगे रख मूल वोट बैंक हासिल करने का प्रयास किया, राहुल गांधी की पंजाब यात्रा के उपरांत अमरिंदर सिंह सरकार ने विधानसभा में नया बिल लाकर केंद्रीय कानूनों को निरस्त करने की संभावनाएं तलाशी और आम आदमी पार्टी ने अमरिंदर सिंह व अकाली दल सुप्रीमो प्रकाश सिंह बादल के आवास के बाहर उग्र प्रदर्शनों का आयोजन किया, उससे राज्य में भाजपा का बढ़ता विरोध किसानों का आंदोलन कम और राजनीतिक दलों की रणनीति अधिक जरूर प्रतीत होने लगी है।

शुरुआती दौर में बेशक इस आंदोलन को राज्यभर में हर वर्ग का भरपूर समर्थन मिला हो, लेकिन अब वैसा नहीं है। किसानों द्वारा रेल या सड़क मार्ग अवरुद्ध करने से या फिर शहरी क्षेत्रों में लगातार जारी धरना-प्रदर्शनों के चलते जिस तरह त्योहारों में भी बाजार में अराजकता और मंदी का माहौल रहा उससे व्यापारियों और उद्योगपतियों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में इस आंदोलन से दूरी बनानी आरंभ कर दी है। जिस तरह कांग्रेस सरकार द्वारा रेल व सड़क मार्ग रोकने या फिर प्रदर्शनकारियों पर किसी भी तरह की पुलिस कार्रवाई न करने का एलान किया गया है, अकाली-भाजपा गठबंधन टूटने के उपरांत शिरोमणि अकाली दल अपने बिखरे हुए मूल वोट बैंक को हासिल करने की जुगत में पंथक कट्टरता को प्राथमिकता दे रहा है, उससे आमजन में अनेक आशंकाएं जन्म ले रही हैं।

ठीक वैसी ही आशंकाएं जो 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले उस समय पनपी थीं, जब आम आदमी पार्टी के नेता अर¨वद केजरीवाल ने कुछ अराजकतावादी सोच के लोगों के साथ बैठक की थी और चुनावी बाजी ऐसी पलटी थी कि वही आम आदमी पार्टी जिसकी सरकार बनना लगभग तय माना जा रहा था, मात्रा 20 सीटों पर सिमट गई।

पिछले 23 वर्षो में सूबे की राजनीतिक बिसात पर पहले से ही हाशिए पर बैठी भाजपा के लिए गंवाने को अब बहुत कुछ है नहीं। वर्ष 1992 के विधानसभा चुनावों में शिरोमणि अकाली दल के बहिष्कार के बीच बागी अकालियों ने जहां 58 सीटों पर चुनाव लड़ केवल तीन सीटों पर जीत दर्ज की थी, वहीं भाजपा ने 66 विधानसभा क्षेत्रों में अपने प्रत्याशी उतार कर छह पर जीत दर्ज की थी। लेकिन पिछले दो दशकों में राज्य में भाजपा केवल अकाली दल की छाया ही बन कर रह गई थी, जिस कारण भाजपा में भीतर ही भीतर यह सुगबुगाहट थी कि वह गठबंधन से मुक्त हो एक बार स्वयं चुनौतियों का सीधे सामना करे।

(लेखक पंजाब के स्‍थानीय संपादक हैं)