[शंकर शरण]। लद्दाख में चीन के साथ विवाद को लेकर प्रधानमंत्री की ओर से बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में माकपा नेता सीताराम येचुरी ने भारत सरकार को पंचशील पर चलने की सलाह दी। किसी को सीताराम येचुरी से पूछना चाहिए कि क्या वह जानते हैं कि उस समझौते में क्या था? चूंकि येचुरी की पार्टी माओभक्त थी इसलिए उनकी पार्टी के साहित्य में पंचशील होने का सवाल ही नहीं। यदि स्वत: प्रेरणा से उन्होंने पढ़ा हो तो उनके बयान से इसकी झलक नहीं मिलती। पीकिंग (अब बीजिंग) में 29 अप्रैल, 1954 को हुआ यह समझौता भारत और तिब्बत के संबंध पर हुआ था। इस समझौते के शीर्षक में ही दर्ज है-चीन के तिब्बत क्षेत्र और भारत के बीच व्यापार और संबंध के बारे में समझौता। मात्र छह अनुच्छेदों के इस समझौते में कुल नौ बार तिब्बत का नाम आया है। पांच अनुच्छेदों में इसी का वर्णन है कि भारत-तिब्बत संबंध लगभग पूर्ववत चलते रहेंगे।

1951 तक तिब्बत स्वतंत्र देश था जब चीनी कम्युनिस्टों ने हमला कर उस पर कब्जा शुरू किया। मार्च 1947 में दिल्ली में एशियन रिलेशंस कांफ्रेंस में तिब्बत और चीन, दोनों ने स्वतंत्र देशों की तरह हिस्सा लिया था। 1914 में भी शिमला में चीन, तिब्बत और भारत ने आपसी सीमांकन समझौता किया। अभी चीन 1890 के दस्तावेज का हवाला देकर डोकलाम को अपना बताता है तो 1914 वाले दस्तावेज के अनुसार तिब्बत भी स्वतंत्र देश है। चूंकि नेहरू जी ने चीनी कम्युनिस्टों को तिब्बत हड़पने दिया इसलिए उसी के एवज में चीन ने भारतीय और तिब्बती जनता को संतुष्ट करने के लिए पंचशील समझौते के बहाने उन्हें बहलाने का उपाय किया। इस समझौते का संपूर्ण कथ्य यही था कि तिब्बत और भारत के सांस्कृतिक, व्यापारिक, सामाजिक संबंध पहले जैसे चलते रहेंगे-बिना किसी पासपोर्ट, वीजा या परमिट आदि के। क्या येचुरी यह मांग करते हैं?

येचुरी बताएं कि किसने पंचशील समझौते को रौंदा

पंचशील समझौता स्वयं प्रमाण है कि भारत और तिब्बत के संबंध कितने स्थापित, खुले और पारस्परिक थे, जिसमें चीन का कोई दखल न था। इसी दखल का रास्ता खोलने को पंचशील को बहाना बनाया गया। अंगुली पकड़कर गर्दन पकड़ी गई। येचुरी बताएं कि किसने पंचशील समझौते को रौंदा? क्या उसके अनुच्छेद 2 और 5 के अनुरूप भारत और तिब्बत के लोग पहले की तरह इस पार से उस पार मिलने-जुलने या खरीदारी करने जा रहे हैं? यदि नहीं तो पंचशील की नसीहत किसलिए? तिब्बत पर कब्जे के बाद 1952-53 में कोरिया संकट के समय पीकिंग में भारतीय राजदूत ने कम्युनिस्ट चीन की मंशा की चेतावनी शुरू में ही दे दी थी, लेकिन नेहरू जी कम्युनिज्म से सम्मोहित थे और अपनी महत्ता एवं सद्भावना पर स्वयं फिदा रहते थे। उन्हें चीनी नेताओं से कृतज्ञता मिलने की कल्पना थी, पर उन्हें धोखा मिला।

उपनिवेश की मुक्ति के लिए उसका साथ देना लोकतांत्रिक अधिकार

यदि सीताराम येचुरी और उनके सहयोगी पंचशील समझौते का पालन चाहते हैं तो उन्हें डंका पीट कर चीन से कहना चाहिए कि वह उसे लागू करे, वरना तिब्बत अपनी मुक्ति और उसकी सहायता के लिए भारत उसी तरह स्वतंत्र है जैसे कोई भी उपनिवेश अपनी मुक्ति के लिए होता है। किसी उपनिवेश की मुक्ति के लिए उसका साथ देना लोकतांत्रिक अधिकार है। प्रसिद्ध हिंदी लेखक निर्मल वर्मा ने तिब्बत को संसार का अंतिम उपनिवेश बताया था। इस सच्चाई को रेखांकित करना और तदनुरूप अपना धर्म निभाना ही हमारे लिए सही उपाय है। तभी चीन से हमारे संबंध मैत्रीपूर्ण बनेंगे जैसे कम्युनिस्ट सत्ता से पहले थे।

भारत-तिब्बत समझौता

पंचशील समझौता दिखाता है कि भारत को तिब्बत पर अपनी साझी चिंताओं, व्यापारिक और सांस्कृतिक जरूरतों पर बोलने का पूरा अधिकार है। हमारे नेता और बुद्धिजीवी तिब्बत रीजन ऑफ चाइना की शब्दावली में सदैव चाइना पकड़ते हैं और तिब्बत भूल जाते हैं। होना उलटा चाहिए। हम सदैव तिब्बत का नाम लें और चीन को टोकें। हमारा पड़ोसी तिब्बत रहा है। चीन उसके पार है। पंचशील समझौता होते समय उसकी चर्चा इसी नाम से होती थी। कई पत्र-पत्रिकाओं में शीर्षक ही था-भारत तिब्बत समझौता। इसके दो दशक बाद भी दुनिया भर के नक्शों में तिब्बत अलग देश दिखता था। दुर्भाग्यवश हमारे नेता लोग जिन गंभीर चीजों का नाम लेते हैं उसका अर्थ नहीं समझते। चीन समझता है। वह यथार्थवादी है। इसीलिए वह तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को अपशब्द कहता है। उनसे भारतीय नेताओं के मिलने पर विरोध करता है, पर हमें जो करना चाहिए वह नहीं करते।

विश्व जनमत ने भारत की ओर देखा

चीन द्वारा 1951 में तिब्बत पर हमले के बाद ही विश्व जनमत ने भारत की ओर देखा था। तिब्बत से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला पड़ोसी भारत था। भारत द्वारा चीन का समर्थन करते रहने से ही दुनिया चुप रही। वरना तब तक चीन महाशक्ति तो क्या, मान्यताप्राप्त देश तक नहीं था। संयुक्त राष्ट्र में 1971 तक फारमूसा-ताइवान को मान्यता थी। चीन के साथ अमेरिका ने 1978 तक कूटनीतिक संबंध तक नहीं बनाए थे। तिब्बत हमारे राष्ट्रीय हित का प्रश्न है। इस पर चुप्पी रख कर हम अपनी हानि करते रहे हैं। इसीलिए चीन से हमारे संबंध बराबरी पर नहीं आते। यदि चीनी विश्वासघात के बाद भारत ने डटकर तिब्बती स्वतंत्रता का मुद्दा उठाया होता तो चीन को हमारे साथ सद्भाव बनाने की चिंता हमसे अधिक होती। तिब्बत की स्थिति भी सुधरती, क्योंकि वह उसकी शर्त होता।

तिब्बत से संबंध को प्रमुखता देकर हम सही मार्ग पर आ सकते हैं 

जिस पंचशील से हमने धोखा खाया उसी को फिर से उठाकर यानी तिब्बत से अपने संबंध को प्रमुखता देकर हम सही मार्ग पर आ सकते हैं। आज तिब्बत असहाय लगता है, पर यदि भारत ने इसे विश्व मंच पर पुन: ला दिया तो ऐसा नहीं रहेगा। चीनी सत्ता ने अपने देश में तानाशाही को औजार बनाया है तो हम लोकतांत्रिक स्वतंत्रता को बना सकते हैं। तिब्बतियों को अपना शांतिपूर्ण वैचारिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक अभियान चलाने में सहायता देना हमारे हाथ में है। उन्हें इससे वंचित रखना हमारी मानवीय संवैधानिक प्रतिज्ञा के विरुद्ध है। सरकार न सही, विविध सामाजिक-गैर राजनीतिक लोग तिब्बत के लिए आवाज उठा सकते हैं। जैसे हांगकांग की स्वायत्तता पर चीनी हमले के विरुद्ध दुनिया भर में लोग बोल रहे हैं। भारत की सुरक्षा और तिब्बत के प्रति हमारा कर्तव्य आपस में जुड़े हैं। तिब्बत पर चीनी औपनिवेशिक सत्ता स्थाई नहीं है। किसी भी घटनाक्रम से हालत बदल सकते हैं। हमें अपना धर्म निभाना चाहिए।

(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)