अभिजीत / विजय कुमार। U.S. Commission on International Religious Freedom भारत ने हाल में यूएससीआइआरएफ यानी अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग के सदस्यों के भारत दौरे के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग दरअसल अमेरिकी संघीय सरकार का एक स्वतंत्र निकाय है जो विदेश में धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघनों की निगरानी करता है और इस संबंध में एक रिपोर्ट जारी करता है जिसके माध्यम से वह अमेरिका के नीति निर्माताओं को इस बारे में सलाह देता है। इस आयोग के सदस्य भारत में धार्मिक आजादी की समीक्षा करने के लिए आने वाले थे। इन्हें वीजा नहीं देने के संदर्भ में भारत का कहना है कि किसी भी विदेशी संस्था के पास कोई आधार नहीं है कि वह उसके नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का आकलन करे।

यूएससीआइआरएफ सदस्यों को वीजा नहीं दिया गया : उल्लेखनीय है कि बीते दिनों सांसद निशिकांत दुबे को विदेश मंत्रलय की तरफ से एक अधिकारिक पत्र में यूएससीआइआरएफ के सदस्यों को वीजा नहीं देने की सूचना दी गई थी। दरअसल निशिकांत दुबे ने इस संस्था की वार्षकि रिपोर्ट को लेकर आपत्ति दर्ज की थी और इस मामले को संसद में उठाया था। हालांकि यह पहली बार नहीं हुआ है कि यूएससीआइआरएफ सदस्यों को वीजा नहीं दिया गया हो। इससे पहले वर्ष 2001, 2009 और 2016 में भी भारत ने उनको वीजा नहीं दिया था, जिसका उल्लेख संस्था ने अपनी 2019 की वार्षकि रिपोर्ट में किया था। वीजा नहीं देने के पीछे कारण एक ही रहा है कि किसी विदेशी संस्था का भारत में आकर धार्मिक आजादी की समीक्षा या टिप्पणी करना उचित नहीं है।

यह भारत का आंतरिक मामला है और इसमें किसी भी विदेशी हस्तक्षेप या टिप्पणी का कोई स्थान नहीं है। भारत के किसी भी नागरिक को अगर कोई समस्या है तो उसे यहां का संविधान और उसके द्वारा बनाए गए संस्थान हल करने में सक्षम हैं। अमेरिका को किसी अन्य देश के आंतरिक मामलों में दखल देने के बजाय अपने यहां की समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए। जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु और उसको लेकर जो विरोध सामने आया है उसने यह स्पष्ट कर दिया है कि किस तरह से अमेरिका में एक बड़े वर्ग को सैकड़ों वर्षो से नस्लीय आधार पर भेदभाव ङोलना पर रहा है।

नागरिकता संशोधन अधिनियम के बहाने भारत पर निशाना : इस रिपोर्ट में भारतीय संसद द्वारा पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम को मुस्लिम विरोधी बताते हुए यह आरोप लगाया गया है कि इसके विरोध में किए गए प्रदर्शनों के दौरान पुलिस ने विशेष तौर पर मुस्लिमों को निशाना बनाया। इसी तरह रिपोर्ट में गौ हत्या कानून, धर्म-परिवर्तन विरोधी कानून और जम्मू-कश्मीर में धाíमक स्वतंत्रता को लेकर सवाल उठाए गए। साथ ही रिपोर्ट में भाजपा का केंद्र की सत्ता में दोबारा चुनाव जीत कर काबिज होने, गृह मंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बयानों को भी देश में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रहे तथाकथित प्रतारणा का कारण माना गया। यह भी मांग की गई थी कि गृह मंत्री अमित शाह पर अमेरिका पाबंदी लगाए और इसको लेकर भारत पर भी दबाव बनाए। पिछले वर्ष दिसंबर में ही संसद सत्र के दौरान इस विषय को सांसद निशिकांत दुबे ने उठाया था। इस रिपोर्ट को गौर से देखने पर यह पता चलता है कि इसमें कई अंतíवरोध हैं जिससे यह खुद सवालों के घेरे में आ जाता है।

पाकिस्तान में हिंदुओं पर अत्याचार : आयोग के 2019 की वार्षकि रिपोर्ट में पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे जुल्मों का उल्लेख है कि किस तरह इन समुदायों के लोगों को जबरन धर्मातरण से लेकर महिलाओं के अपहरण, बल-पूर्वक विवाह और दुष्कर्म तक को ङोलना पड़ता है। पाकिस्तान में हिंदू, सिख और ईसाइयों के साथ हो रहे अत्याचारों के बारे में 2020 की वार्षकि रिपोर्ट में लिखा गया है कि कैसे पाकिस्तान में लगातार अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित किया जा रहा है और उनका धर्मातरण कराया जा रहा है। इस बात को यह आयोग भी मानता है। यह सब जानते हैं कि इन अत्याचारों के कारण ही बड़ी संख्या में इन समुदायों के लोगों ने भारत में पलायन किया है। ऐसे में नागरिकता संशोधन अधिनियम को एक सराहनीय पहल माना जाना चाहिए, न कि देश के अल्पसंख्यकों में डर पैदा करने वाला, जैसा कि 2020 की वार्षकि रिपोर्ट कहती है। यह अपने आप में विरोधाभासी है कि जहां एक ओर इस रिपोर्ट में पाकिस्तान में हो रहे अत्याचारों को तो स्वीकार किया गया है, वहीं दूसरी ओर इसके निराकरण के लिए उठाए गए भारत द्वारा सकारात्मक कदम पर भी सवाल किया गया है। इससे यह भी पता चलता है कि या तो इस रिपोर्ट को बनाने वालों ने पहले से ही फैसला कर रखा था या उन्होंने भारत के नागरिकता संशोधन अधिनियम को ठीक से समझना जरूरी नहीं समझा।

यह अधिनियम मुस्लिमों को लेकर भेदभावपूर्ण : नागरिकता संशोधन अधिनियम की बात करें तो इस विधेयक में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से विस्थापित हुए हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को नागरिकता देने की बात की गई है। इन समुदायों का जो भी व्यक्ति 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत आ गया है और यदि वह चाहे तो उसे भारत की नागरिकता दी जा सकती है। यह अधिनियम उन सभी शोषितों को न्याय देने की एक पहल है, लिहाजा इसे धार्मिक भेदभाव करने वाला मानना गलत होगा। एक प्रश्न जो इस कानून को लेकर इस रिपोर्ट में उठाया गया है कि यह अधिनियम मुस्लिमों को लेकर भेदभावपूर्ण है, इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश के संविधान में राज्य धर्म की व्यवस्था है जिस कारण अन्य समुदायों के धाíमक अधिकार नहीं के बराबर हो जाते हैं। चूंकि इन देशों में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, लिहाजा उन्हें सभी अधिकार प्राप्त हैं और वहां की व्यवस्था में उनकी आवाज सुनी जाती है, इसलिए उनके हालात अलग हैं।

यह अधिनियम मुख्य तौर पर भारत में इन तीन देशों से आए प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता एवं उनके मौलिक अधिकार प्रदान करेगा, न कि यहां के वर्तमान नागरिकों से वापस लेगा, जैसा कि इस रिपोर्ट को पढ़ने से लगता है। भारत के इतिहास को देखें तो पीड़ितों को आश्रय देना हमारे लिए कोई नई बात नहीं है। चाहे वह अल्पसंख्यक पारसी समुदाय हो या द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पोलैंड से आए हुए लोग जिन्हें जामनगर के राजा ने अपने यहां आश्रय दिया।

गौ हत्या एवं सुरक्षा संबंधी आशंका : गौ हत्या और उसकी सुरक्षा को लेकर हो रही हिंसा के बारे में भी इस रिपोर्ट में सवाल उठाया गया है कि इसके बहाने भारत में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। जहां तक बात गौ वध को रोकने की है तो ध्यान रहे कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 48 राज्यों को गाय और बछड़े की हत्या को रोकने के लिए कदम उठाने को कहता है।

इतिहास में देखें तो भारत में लालच और धोखे से कई जगहों पर धर्मातरण की बातें सामने आती रही हैं। इस रिपोर्ट में सितंबर 2019 में गृह मंत्रलय द्वारा लाए गए एक नियम की चर्चा की गई है जिसके अनुसार अगर किसी गैर सरकारी संस्था को विदेश से फंड लेना है तो उसके सभी सदस्यों को हलफनामा देना होगा कि उन पर जबरन धर्म परिवर्तन करवाने या सांप्रदायिक तनाव पैदा करने जैसी गतिविधियों में शामिल होने के लिए मुकदमा नहीं चलाया गया हो या दोषी नहीं माना गया हो। इन मुद्दों को अगर भारत की जमीनी हकीकत के संदर्भ में देखें तो यह स्पष्ट होता है कि धर्मातरण ये नियम इसलिए बनाए गए हैं ताकि भारत में किसी का जबरिया धर्म परिवर्तन नहीं कराया जाए। ये नियम कहीं से भी अल्पसंख्यक विरोधी या धाíमक स्वतंत्रता को ठेस पहुंचने वाले नहीं हैं, लेकिन इस रिपोर्ट के अनुसार ये धाíमक स्वतंत्रता को कुचलने वाले कदम हैं।

विशेष चिंता वाले देशों में शामिल भारत : अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धाíमक स्वतंत्रता आयोग की हालिया रिपोर्ट में भारत सरकार के जिन कदमों पर आपत्ति दर्ज की गई है, भारत में उनकी जरूरत और मांग लंबे समय से थी। इन आपत्तियों के अतिरिक्त एक अन्य आपत्ति का बिंदु यह भी है कि इस रिपोर्ट में भारत को विशेष चिंता के देश (कंट्री ऑफ पर्टकिुलर कंसर्न) की सूची में रखने की बात की गई है। इस सूची में चीन, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया और सीरिया जैसे देश शामिल हैं। इन देशों की दशा किसी से छिपी नहीं है और उनसे भारत की तुलना नहीं की जा सकती है।

गौर करने वाली बात यह भी है कि भारत को ‘विशेष चिंता के देश’ की श्रेणी में रखने को लेकर इस संस्था से ही जुड़े तेंजिन दोर्जी और गैरी एल बुयर ने अपनी असहमति व्यक्त की थी। इन तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि यह आयोग जानबूझकर भारत को और उसके नागरिकों द्वारा चुने गए सरकार और उसके प्रतिनिधियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करने के लिए एकतरफा और तथ्यहीन रिपोर्ट लेकर आता रहा है। इस रिपोर्ट के माध्यम से अमेरिकी सरकार को एक मौका मिलता कि वह भारत पर दबाव बना सके। ऐसे में इसके सदस्यों को वीजा नहीं देना एक सही कदम है।

क्या है यूएससीआइआरएफ : बात अगर इस संस्था की करें तो अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धाíमक स्वतंत्रता आयोग खुद को अमेरिकी संघीय सरकार का एक स्वतंत्र और द्विपक्षीय निकाय बताता है जो विदेश में धाíमक स्वतंत्रता के उल्लंघनों की निगरानी करता है। इसकी स्थापना 1998 में अंतरराष्ट्रीय धाíमक स्वतंत्रता अधिनियम द्वारा की गई थी।

यह विदेश में धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघनों की निगरानी के लिए अंतरराष्ट्रीय मानकों का प्रयोग करने का दावा करता है और अमेरिकी राष्ट्रपति, विदेश मंत्री तथा अमेरिकी कांग्रेस को सलाह देता है। साथ ही यह खुद को अमेरिकी विदेश मंत्रलय से पृथक एक स्वतंत्र निकाय बताता है। यह संस्था हर साल एक वार्षकि रिपोर्ट जारी करती है जिसके बारे में उसका कहना है कि इसे उसने जमीनी स्तर पर दर्ज किए गए मामलों, अध्ययनों एवं खोजबीन के आधार पर तैयार किया है।

[शोधार्थी, अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान, जेएनयू]