एमजे अकबर। चुनावी कोलाहल का दौर अच्छी खबरों के लिए बुरा साबित होता है। राजनीतिक शोरशराबे में कई ऐसी खबरें दम तोड़ देती हैं जो बेहतरी का सूचक होती हैं। सरकार के खिलाफ आक्रामक होता विपक्ष अपने तरकश के सारे तीरों को आजमाने पर आमादा होता है। विपक्ष की पूरी कोशिश होती है कि हंगामे के बीच सरकार की उपलब्धियों पर ग्रहण लग जाए। उदाहरण के लिए महंगाई को ही लें। खाद्य उत्पादों की महंगाई दर वर्ष 1991 के बाद के सबसे निचले स्तर पर है।

क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के अनुसार वर्ष 2018-19 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में मात्र 0.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई। किसी भी पैमाने पर परखें तो यह मोदी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि है। मगर सवाल यह भी है कि मतदाता इस तथ्य को लेकर कितना सजग है? खान-पान की वस्तुएं किसी भी व्यक्ति की खरीदारी सूची में स्वाभाविक रूप से सबसे महत्वपूर्ण अवयव होती हैं। समाज के सबसे गरीब तबके पर खाद्य उत्पादों की महंगाई सबसे ज्यादा मारक होती है। समाज के अन्य वर्ग अपने बजट को संतुलित करने के लिए तो अन्य खर्चों में कटौती कर सकते हैं, लेकिन गरीबों के पास अपने खाने के उपभोग को घटाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। खाद्य वस्तुओं की बढ़ती महंगाई का अर्थ है कि समाज के हाशिये पर मौजूद लोगों को आधे पेट ही गुजारा करना पड़ता है। मोदी सरकार में कुल महंगाई दर चार प्रतिशत के नीचे ही कायम रही है जिसे असाधारण उपलब्धि ही कहा जाएगा।

अब कुछ अतीत के पन्ने पलटते हैं। श्रीमती इंदिरा गांधी 1980 का चुनाव आलू और प्याज के बढ़ते दामों की वजह से ही जीत गईं। उनके चुनावी प्रचार पोस्टरों में बुनियादी जरूरत की ऐसी वस्तुओं के मार्च 1977 के दाम छपे होते थे, जब उनकी सरकार की विदाई हुई थी। उसी पोस्टर में उन कीमतों की तुलना 1980 की सर्दियों में इन उत्पादों के मूल्यों से होती थी। आम मतदाता के लिए यह बड़ी कसौटी थी, क्योंकि इससे वह अपने लिए उपयोगी और अनुपयोगी सरकार का फैसला कर सकता था।

वर्ष 2014 के चुनाव में महंगाई एक बड़ा चुनावी मुद्दा था। राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका वाड्रा 2019 में महंगाई के मुद्दे पर आखिर क्यों मौन साधे हुए हैं? उनकी इस चुप्पी का एक ही कारण है कि इस मसले पर कहने के लिए उनके पास कुछ है ही नहीं। वास्तव में वे अगर इस मुद्दे पर कुछ कहेंगे तो लोग उन्हें यह याद दिला देंगे कि संप्रग सरकार के दौर में महंगाई कैसे काबू से बाहर हो गई थी। यह समय उन मुद्दों पर उनकी चुप्पी को भांपने का है जो मसले चुनावी तकदीर को तय कर सकते हैं। वर्ष 2014 में कांग्रेस का दुष्प्रचार मुसलमानों में मोदी का खौफ पैदा करने पर केंद्रित था। वह मुस्लिमों को डरा रही थी कि अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे तो देश में हर हफ्ते सांप्रदायिक दंगे होंगे।

पांच साल बीत चुके हैं। देश में कहीं कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। राहुल गांधी लगभग हर मुद्दे को असंयमित रूप से उठाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं, लेकिन उन्होंने भी कभी सांप्रदायिक दंगों के बारे में बात नहीं की। इसके बजाय कांग्रेस मुसलमानों के बीच एक नया झूठ गढ़ रही है कि अगर भाजपा सत्ता में वापस लौटी तो वह संविधान ही बदल देगी। यह भी पूरी तरह से मिथ्यारोप है। अव्वल तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की ऐसी कोई मंशा नहीं। राजग में कोई भी ऐसा नहीं चाहता।

दूसरी बात यह कि संसद और विधानसभाओं में दो-तिहाई बहुमत के बिना संविधान के मूल ढांचे में कोई भी संशोधन नहीं किया जा सकता। देश में फिलहाल किसी भी दल की ऐसी राजनीतिक हैसियत नहीं जो इसे अंजाम दे सके। चूंकि मोदी विरोधियों के पास उनके खिलाफ कोई ठोस आधार नहीं है तो वे उनके विरुद्ध माहौल बनाने में विशुद्ध रूप से कपोल-कल्पना और गल्प का ही सहारा ले रहे हैं। तथ्य यह है कि विकास की अपनी ध्वजवाहक योजनाओं से प्रधानमंत्री मोदी ने अपेक्षित परिणाम दिए हैं। मुद्रा, जन-धन, स्वच्छ भारत, उज्ज्वला, सौभाग्य और आवास जैसी सभी योजनाओं में अच्छे नतीजे हासिल हुए हैं। जब उन्होंने मुफ्त रसोई गैस सिलेंडर वाली योजना शुरू की थी तो जिन दो महिलाओं को सबसे पहले इसका लाभ मिला उनमें से एक मुस्लिम महिला थी। महिलाओं का सामाजिक एवं आर्थिक सशक्तीकरण ही प्रधानमंत्री के सुशासन मंत्र का मूल आधार है।

हाल में प्रोफेसर नजमा अख्तर को जामिया मिलिया इस्लामिया का 16वां कुलपति नियुक्त किया गया। 1920 में इस संस्थान के अस्तित्व में आने के बाद यह सम्मानित ओहदा हासिल करने वाली वह पहली महिला हैं। प्रधानमंत्री मोदी वास्तविक सशक्तीकरण में विश्वास रखते हैं। वह उन लोगों से अलग हैं जो तमाम तिकड़मों के सहारे मुसलमानों के वोट हासिल करने की फिराक में रहते हैं। इसके लिए वे बिचौलियों और वोट बैंक को प्रभावित करने वाले भावुकता भरे मुद्दों को भुनाने से भी गुरेज नहीं करते। कांग्रेस नेताओं ने तो प्रोफेसर अख्तर को उनकी ऐतिहासिक नियुक्ति पर बधाई देना भी गवारा नहीं समझा।

जब प्रधानमंत्री ने जन कल्याणकारी योजनाएं शुरू की थीं तो कांग्रेस और उसके हिमायतियों ने उनका उपहास उड़ाया था। जन-धन योजना पर आई प्रतिक्रियाएं बरबस मेरे जेहन में ताजा हो जाती हैं। विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं ने इन्हें ‘जीरो’ अकाउंट कहकर खारिज किया था। उन्होंने यह महसूस नहीं किया कि इतिहास में पहली बार कोई नेता पैसे वालों के बजाय उन लोगों के लिए बैंकों का दरवाजा खोल रहा है जिनके पास पैसे नहीं हैं। यह एक क्रांतिकारी पड़ाव था। अब उनकी हंसी कहां गुम हो गई? अगर इसे लेकर उन्होंने अब मजाक उड़ाया तो फिर गरीब लोग उन्हें सबक भी सिखा देंगे। जन- धन और अन्य योजनाओं को लेकर अब राहुल गांधी को भी सांप सूंघ गया है।

इसका मतलब यही है कि ये योजनाएं कारगर साबित हुई हैं। जैसे-जैसे चुनावी चक्र आगे बढ़ रहा है वैसे- वैसे मतदाताओं में भी विमर्श बढ़ रहा है। सबसे दिलचस्प विमर्श पहली दफा मतदान करने वाले मतदाताओं के बीच से आ रहा है। इन्होंने बीते पांच वर्षों में अपने किशोरवय की दहलीज पार की है। दुनिया को देखने का उनका नजरिया एकदम तरोताजा है। इस चुनाव में 13 करोड़ युवा मतदाता भाग ले रहे हैं और वे बदलाव से भलीभांति परिचित हैं। उन्हें मालूम है कि राष्ट्रीय सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और आय सुरक्षा के लिए वे मोदी पर भरोसा कर सकते हैं। वर्ष 2014 में मोदी आस जगाने वाले नेता थे तो 2019 में वह उन उम्मीदों को पूरा करने के प्रतीक बन गए हैं। यही वजह है कि मतदाता अगले पांच साल फिर से देश की बागडोर उन्हें सौंपना चाहते हैं।

 (लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)