[बद्री नारायण]। भारत सहित पूरी दुनिया में जहां भी जनतांत्रिक राजनीति है, वहां जनकल्याण से जुड़ी नीतियां बनाना बहुत ही महत्वपूर्ण काम होता है, लेकिन इन नीतियों को जनता के बीच ठीक से ले जाना, उन्हें सरल ढंग से समझाना भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। जनतांत्रिक प्रशासन में यही वह खास बात होती है, जो जनतांत्रिक राजनीति में पक्ष-विपक्ष दोनों के लिए राजनीतिक संवाद का आधार तैयार करती है। सत्ता में रहने वाले दल उन्हें जनता के बीच ले जाने को प्रशासनिक के साथ-साथ आपना राजनीतिक कार्य मानते हैं, वहीं विपक्ष उनके अंतर्विरोधों को उभार कर और शासन की आलोचना से अपनी प्रासंगिकता साबित करने की कोशिश करता है।

दुनिया में प्रशासन एवं नीतियों के इर्द-गिर्द घटित हो रही राजनीति को देखें तो कई बार अच्छी नीतियों को भी ठीक से जनता के बीच न ले जाने के कारण सत्ताधारी दलों को आलोचना एवं अलोकप्रियता का सामना करना पड़ता है। यानी नीतियों, कानूनों, कार्यक्रमों को बनाने के साथ ही जनता को उनके बारे में समझाना, उसे अपने तर्क एवं पक्ष से जोड़ना भी जनतंत्र में एक अहम राजनीतिक कार्य होता है। किसी भी कानून की सफलता मात्र उसके प्रावधानों की जनपक्षधरता या प्रशासकीय खूबियों से ही नहीं, बल्कि उसके इर्द-गिर्द सबल सकारात्मक राजनीतिक संवाद से भी तय होती है। वास्तव में नीतियों की सफलता के लिए संबंधित लोगों से राजनीतिक संवाद एक आवश्यक तत्व होता है।

भारतीय समाज के तीन बड़े समूह

हाल में मोदी सरकार ने कृषि और श्रम सुधारों से संबंधित कई अहम कानून बनाए। इसके पहले राष्ट्रीय शिक्षा नीति को मंजूरी भी दी गई थी। ये तीनों कदम भारतीय समाज के तीन बड़े समूहों के वर्तमान एवं भविष्य के निर्माण से जुड़े हैं। ये तीन सामाजिक समूह हैं-कृषक, मजदूर एवं छात्र। भारत में कृषक आबादी 60 प्रतिशत से ज्यादा है। वर्ष 2012 की एक गणना के अनुसार देश में करीब 48 करोड़ श्रमिक हैं। चीन के बाद पूरी दुनिया में श्रमिकों की यह दूसरी बड़ी आबादी है। तीसरी बड़ी आबादी छात्रों एवं युवाओं की है।

नई शिक्षा नीति को लेकर लोगों में देखी जा रही स्वीकार्यता

भारत में लगभग आधी आबादी 25 वर्ष से कम उम्र के युवाओं की है, जिनमें छात्रों की एक बड़ी संख्या है। भारत में प्राथमिक एवं माध्यमिक छात्रों को छोड़ भी दें तो सिर्फ उच्च शिक्षा में ही करोड़ों छात्र पढ़ते हैं। यह जानना रोचक है कि जहां कृषि सुधार की पहल किसानों के एक वर्ग में विरोध और असहमति पैदा कर रही है, वहीं शिक्षा से जुड़ी नई शिक्षा नीति-2020 को लगभग स्वीकार्यता मिलती देखी जा सकती है। हालांकि नई शिक्षा नीति को लेकर असहमतियों के भी स्वर हैं, किंतु मोटे तौर पर सहमति के स्वर ही सुने जा रहे हैं।

प्रशासकों और बुद्धिजीवियों के संवाद से विकसित की गई नई शिक्षा नीति

आखिर इसके कारण क्या हैं? एक तो जहां कृषि एवं श्रमिक संबंधी सुधारों की पहल आर्थिक हितों से जुड़ी हैं, वहीं नई शिक्षा नीति मानवीय संसाधन एवं ज्ञान के निर्माण से जुड़ी है। इसमें दो राय नहीं कि आजीविका की चिंता हमें ज्यादा असुरक्षित बनाती है। फलत: ऐसे मुद्दे संशय एवं विरोध भी सृजित करते हैं। मानवीय संसाधन एवं ज्ञान का क्षेत्र सीधे हमें उद्वेलित नहीं करता, किंतु इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नई शिक्षा नीति-2020 जितनी तैयारी एवं जितने स्तरों पर छात्रों, शिक्षकों, प्रशासकों और बुद्धिजीवियों के संवाद से विकसित की गई, उतनी तैयारी एवं सामाजिक भागीदारी कृषि एवं श्रमिक सुधारों को लेकर की जाती नहीं दिखाई पड़ी। चूंकि शिक्षा मंत्रालय मीडिया, सोशल साइट्स के अनेक प्लेटफॉर्म पर जाकर लोगों की शंकाओं का निराकरण करता रहा, इसलिए नई शिक्षा नीति की स्वीकार्यता बढ़ी।

पीएम मोदी ने खुद नई शिक्षा नीति को समझाया 

शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक स्वयं तमाम अखबारों में लिखकर, मीडिया के तमाम मंचों पर बोलकर, सोशल साइट्स पर मौजूद होकर छात्रों, अभिभावकों, शिक्षकों, बुद्धिजीवियों एवं देश की जनता को नई शिक्षा नीति की खूबियों को समझाते रहे। इस सबके कारण विरोध के स्वर ज्यादा विकसित नहीं हो पाए। उन्होंने राज्य सरकारों से संवाद कर राज्यों में नई शिक्षा नीति को अपनाने की भूमिका बनाई। खुद पीएम मोदी ने भी कई कार्यक्रमों में नई शिक्षा नीति को समझाया। शिक्षा मंत्रालय के अनेक अधिकारी एवं यूजीसी ने भी नई शिक्षा नीति को जनता के बीच पहुंचाने के लिए अनेक आयोजन किए।

कृषि कानून खुले बाजार को बढ़ावा और प्रतिस्पर्धा देने वाले

दूसरी ओर कृषि एवं श्रमिक सुधारों की पहल पर विशेषज्ञों एवं नीति-निर्माताओं के साथ तो विमर्श हुआ, किंतु किसान नेताओं, श्रमिक संगठनों के साथ ब्लॉक स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक संवाद कर संबंधित कानूनों को समझने-समझाने का काम कम हुआ। यह ठीक है कि कृषि कानून खुले बाजार को बढ़ावा देने और प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने वाले हैं, किंतु उन्हें लेकर जैसा सघन राजनीतिक संवाद किया जाना चाहिए था, वैसा नहीं किया गया। वास्तव में मंत्रालयों के विशेषज्ञों और बौद्धिक कार्यशालाओं की वार्ताओं के पहले इन प्रस्तावित कानूनों को गांवों, खेत-खलिहानों, फैक्ट्रियों, लेबर चौराहों पर ले जाने की जरूरत थी। इनके संदर्भ में संसद एवं सड़क को यथासंभव एकमेव होना चाहिए था।

बेहतर जनसंवाद की रणनीति पर टिका एक प्रभावी राजनीतिक विचार-विमर्श

कानूनों की सफलता के लिए एक बेहतर संवाद की जरूरत सदैव एक आवश्यक शर्त होती है। चूंकि जनतंत्र में सुधार के कानून देश एवं समाज में बड़े परिवर्तन लाते हैं, फलत: जनता उन्हें लेकर संवेदनशील रहती है। सियासी दल उनकी संवेदना से ही अपना पक्ष एवं विपक्ष बनाते हैं। इसके लिए जरूरी होता है बेहतर जनसंवाद की रणनीति पर टिका एक प्रभावी राजनीतिक विचार-विमर्श। बिना इसके जनतंत्र में नीतियों की सफलता को लेकर संदेह होता है। इसी मामले में जनतंत्र एवं जनतांत्रिक राजनीति मात्र विशेषज्ञों की दुनिया नहीं है, वरन आमजन की दुनिया भी है। इस पर हैरानी नहीं कि राजग सरकार के सामने कृषि एवं श्रमिक संबंधी नीतियों को जनता के बीच स्वीकार्य बनाने की चुनौती बनी हुई है।

(लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं)

[लेखक के निजी विचार हैं]