धर्मशाला, नवनीत शर्मा। बात केवल इतनी नहीं है कि हिमाचल प्रदेश में परिचालक भर्ती के लिए आयोजित लिखित परीक्षा में दो अभ्यर्थियों ने परीक्षा शुरू होने के कुछ देर बाद ही प्रश्न पत्र वाट्सएप से बाहर भेज दिया। बात सिर्फ यह भी नहीं है कि बाद में उन्होंने समर्पण कर दिया या गिरफ्तार हुए। फिर विषय महज इतना भी नहीं कि दो सॉल्वर यानी प्रश्नपत्र हल करने वालों समेत छह पुलिस की पकड़ में आए हैं। हैरानी इस बात में भी नहीं कि सरकार ने विशेष जांच दल गठित कर दिया है और किसी गिरोह के होने की आशंका भी जताई जा रही है। अपराध हुआ है तो कानून अपना काम करेगा ही।

मुद्दा तो उस मानसिकता तक जाने का है जिसके तहत पहले से हिमाचल पथ परिवहन निगम में कच्चे तौर पर कार्यरत व्यक्ति परीक्षा के दौरान ऐसा कुछ कर गया जो भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध है। मकसद क्या था? यही कि पथ परिवहन निगम में ठेके पर नौकरी मिल जाएगी। निगम में पेंशन का न होना भी एक गम है, लेकिन यूं भी नई पेंशन योजना के तहत पेंशन है कहां।

ऐसे मामलों की तह में जाएं तो अपराधी बेशक कुछ लोग लगते हैं, लेकिन असल में यह जिम्मेदारी कई लोगों की है। क्या यह वह मानसिकता है जिसके अंतर्गत सरकारी नौकरी अब भी पहली प्राथमिकता है? क्या भर्ती व्यवस्था की विश्वसनीयता को प्रश्नवाचक चिह्न् स्थायी भाव से घूर रहे हैं? सामाजिक परिवेश अब भी छांव के लिए स्वावलंबन के पौधे को नहीं, बल्कि सरकारी नौकरी के पेड़ को ही पानी दे रहा है? क्या शब्द सरकारी के साथ जो आराम दिखाई पड़ता है, वह कुछ और करने नहीं देता? यह स्वत: समझा हुआ विमर्श क्यों बन जाता है कि भले ही कोई इंजीनियरिंग कर चुका या स्नातकोत्तर है, लेकिन सरकारी नौकरी सचिवालय में फ्राश की मिले, ठेके पर कंडक्टर की मिले। कम से कम एक छांव यानी कंफर्ट जोन तो रहेगा।

हिमाचल ने कई वर्षो से भर्ती प्रक्रिया के संदर्भ में बहुत कुछ असामान्य होता देखा है। अगर यह प्रकरण प्रक्रिया की विश्वसनीयता के लिए चेतावनी है तो सभी नौकरशाहों, राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के लिए बड़ा प्रश्न है। राजनीतिक दल कोई भी हो, किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। सरकारी नौकरी के जो वादे घोषणापत्रों में चहकते रहे हैं वे यथार्थ को अंगूठा दिखाते रहे। कोई सरकार शत प्रतिशत लोगों को रोजगार नहीं दे सकती। फिर यह मृगतृष्णा क्यों पोसी जाती है कि हिमाचल प्रदेश में 45 वर्ष की आयु तक सरकारी रोजगार के लिए आवेदन कर सकते हैं? सपनों का इतना लंबा जाल किसलिए? इस जाल में व्यक्ति ही नहीं, उसके जीवन के कुछ हरे वर्ष, कुछ कर गुजरने वाले लम्हे, उसकी ताकत खर्च हो जाती है। सूचनाएं हैं कि तहसील कल्याण अधिकारी के पांच पद हैं जिसके लिए तीस हजार से अधिक आवेदक हैं। जिन्हें पंजीकरण कार्यालय बेरोजगार कहते हैं, उनकी संख्या साढ़े आठ लाख थी, अब सूचना है कि बेरोजगार करीब दस लाख हैं।

दुखद यह है कि इनके विपरीत हमीरपुर के विपिन शर्मा जैसे वे लोग बहुत कम हैं जो कोरोना काल में अपनी धरती पर लौटे और मिट्टी के ओवन में पिज्जा बनाकर प्रसिद्ध हो जाते हैं। भारतीय विदेश सेवा में जाने वाली बद्दी की बेटी सबका आदर्श क्यों न हो। सवाल यह भी है कि जो उच्च शिक्षित हैं वे किस तरह शिक्षित हैं कि चपरासी के पद के लिए भी तैयार हैं। उदाहरण के लिए सिविल इंजीनियर पटवारी बन कर किस प्रकार देश या प्रदेश की उन्नति में सहायक हो सकेगा।

नई शिक्षा नीति में अभिरुचि के लिए स्थान है। शिक्षा के साथ ही व्यावहारिक कौशल के लिए भी स्थान है। लेकिन उसे व्यवहार में लाना ही उसकी सफलता का प्रमाण बनेगा। जिस नींव को पहले से मजबूत होना चाहिए था, उसे दसवीं या ग्यारहवीं में आकर आखिर कितना मजबूत कर लेंगे? कंडक्टर भर्ती परीक्षा पत्र की गुणवत्ता और प्रश्नों के प्रकार भी अपने आप में शोध का विषय हैं। ऐसी सरकारी अंग्रेजी पूछी गई थी जिसका कंडक्टर की भूमिका से संबंध नजदीक का तो नहीं ही है। परिवहन मंत्री कौन है, इस पर सही विकल्प गायब था।

पर्चा बाहर भेजने के प्रकरण की जांच तो हो ही रही है, इस बीच अभिभावकों, अध्यापकों, शिक्षा प्रशासकों, नौकरशाहों, भर्ती प्रक्रिया के लिए जिम्मेदार महत्वपूर्ण लोगों और राजनेता भी आत्ममंथन करें। सच तो यह है कि यह पर्चा व्यवस्थागत खामी और सामाजिक चेतना का लीक हुआ है। समाज भी समझे कि छांव की तलाश में तेज धूप के हाथ लगना अक्लमंदी नहीं है।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]