[शिवानंद द्विवेदी]। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विकास को लेकर विद्वानों ने अलग-अलग वैचारिक दर्शन प्रतिपादित किए हैं। लगभग प्रत्येक विचारधारा समाज के राजनीतिक, आर्थिक उन्नति के मूल सूत्र के रूप में खुद को प्रस्तुत करती है। पूंजीवाद हो, साम्यवाद हो अथवा समाजवाद, प्रत्येक विचारधारा समाज की समस्याओं का समाधान देने के दावे के साथ आती है। हालांकि इनके दावों की सफलता का प्रश्न अभी भी बहस और चर्चा का विषय है। स्वतंत्रता के बाद भारत में विचारधाराओं का प्रभाव किस प्रकार रहा, इस पर व्यापक चर्चा होती रही है। यह सच है कि जवाहर लाल नेहरू का समाजवादी नीति के प्रति आकर्षण था। नेहरू के उस आकर्षण का परिणाम हुआ कि देश लंबे कालखंड तक समाजवाद की आर्थिक नीतियों के अनुरूप चलता रहा और उसका व्यापक प्रभाव अभी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था में काफी हद तक कायम है।

जब पंडित नेहरू समाजवाद की नीतियों के सहारे देश की दशा-दिशा तय कर रहे थे, तब भारतीय जनसंघ के नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय अनेक बिंदुओं पर उन नीतियों का न सिर्फ विरोध कर रहे थे, बल्कि भारत एवं भारतीयता के अनुकूल वैचारिक दर्शन की पृष्ठभूमि भी तैयार कर रहे थे। दीन दयाल उपाध्याय समाजवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद को मानव कल्याण का संपूर्ण सूत्र नहीं मानते थे। उनका मानना था कि भारतीय विचार नहीं होने की वजह से यह भारत की समस्याओं से निपटने और समाधान देने में अक्षम हैं। उन्होंने एकात्म मानववाद का ऐसा वैचारिक आदर्श सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसमें मानव को संपूर्णता में एक इकाई मानकर उसकी संपूर्ण जरूरतों को समझने एवं उनकी संतुलित आपूर्ति करने का सूत्र प्रस्तुत किया है।

दीन दयाल उपाध्याय के अनुसार,‘व्यक्ति मन, बुद्धि, आत्मा व शरीर का एक समुच्चय है।’ अत: मानव के संदर्भ में इन चारों को विभाजित करके नहीं देखा जा सकता है, ये परस्पर अंतर्सम्बद्ध हैं। सरल शब्दों में कहें तो दीन दयालजी द्वारा व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और फिर मानवता और चराचर सृष्टि के बीच अंतर्निहित, पूरक संबंध की आवश्यकता पर विचार किया गया है। वह व्यक्ति को परिवार से, परिवार को समाज से, समाज को राष्ट्र और राष्ट्र को चराचर सृष्टि से अलग करके नहीं देखते। उनका कहना था, प्रत्येक व्यक्ति ‘मैं’ और ‘मेरा’ विचार त्यागकर ‘हम’ और ‘हमारा’ विचार करना चाहिए। उनके विचार दर्शन में ‘यत पिंडे, तत ब्रह्मांडे, अर्थात जो ब्रह्मांड में है वही पिंड में भी है’ का भाव नजर आता है।

मानव की आवश्यकताओं का संबंध भी इसी व्यापकता में है। मनुष्य की जरूरतें भी उसकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक इच्छाओं के अनुरूप ही होती हैं। अत: एक मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति अथवा उसकी संतुष्टि का समाधान विभाजित करके नहीं खोजा जा सकता है। वह मानवमात्र का हर उस दृष्टि से मूल्यांकन करने की बात करते हैं, जो उसके संपूर्ण जीवन काल में छोटी अथवा बड़ी जरूरत के रूप में संबंध रखता है। उन्होंने मानवमात्र से जुड़े प्रश्न की समाधानयुक्त विवेचना अपने वैचारिक लेखों में की है। भारतीय अर्थनीति का स्वरूप क्या हो, इन विषयों को दीन दयाल उपाध्याय ने ‘भारतीय अर्थनीति विकास की दिशा’ में रखा है। धर्म और अर्थ को वह परस्पर संबद्ध करके देखते थे। उनका मानना था कि धर्म सर्वोपरि है, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ के अभाव में धर्म का पालन नहीं किया जा सकता।

एक प्रसिद्ध उक्ति है- जो भूख से मर रहा हो वह कोई पाप करने से जरा भी नहीं हिचकिचाएगा। दीन दयाल उपाध्याय ने सरकार द्वारा व्यापारिक गतिविधियों में हाथ डालने से असहमति प्रकट की। उनका स्पष्ट मानना था कि शासन को व्यापार नहीं करना चाहिए और व्यापारी के हाथ में शासन नहीं आना चाहिए। 1960 के दशक में जो चिंताएं उन्होंने अपने लेखों तथा विचारों के माध्यम से प्रस्तुत की थीं, वे चार दशक के बहुधा समाजवादी नीतियों वाले शासन प्रणाली में समस्या की शक्ल में दिखने लगी थीं। वह उस दौरान लाइसेंस राज में भ्रष्टाचार की चिंताओं से शासन को अवगत कराते रहे। विकेंद्रित व्यवस्था के वह पक्षधर थे तथा समाजिक क्षेत्रों के अतिवादी राष्ट्रीयकरण के खिलाफ थे। वह जानते थे कि यह देश मेहनतकश लोगों का है, जो अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए राज्य पर आश्रित कभी नहीं रहे हैं।

लेकिन समाजवादी नीतियों से प्रभावित कांग्रेस की सरकारों ने सत्ता की शक्ति का दायरा बढ़ाने की होड़ में समाज की ताकत को राष्ट्रीयकरण के बूते अपने शिकंजे में ले लिया। वे उन्हीं क्षेत्रों में सरकार को उतरने के लिए बोल रहे थे, जिनमें निजी क्षेत्र जोखिम लेने को तैयार नहीं थे अथवा स्थितियां प्रतिकूल थीं। लेकिन तत्कालीन सरकारों द्वारा इसके उलट काम किया गया। दीन दयाल उपाध्याय द्वारा व्यक्त असहमतियों की अनदेखी तत्कालीन सरकारों द्वारा की गई, जिसका परिणाम हुआ कि हमारी व्यवस्था समाजवादी नीतियों के चक्रव्यूह में ऐसे उलझती गई कि अब उसमें से निकलना अथवा निकलने की सोचना कठिन नजर आता है। सरकार आश्रित प्रजा तैयार करने की समाजवादी नीति ने इन 70 वर्षों में समाज को इतना पंगु बना दिया है कि हम स्वच्छता के लिए भी प्रधानमंत्री पर आश्रित हैं! दीन दयाल उपाध्याय का राजनीतिक चिंतन भी अत्यंत स्पष्ट और पारदर्शितापूर्ण था।

यही वजह है कि 1965 में भारतीय जनसंघ ने उनके वैचारिक दर्शन को पार्टी के मूल दर्शन के रूप में आत्मसात कर लिया। 1950 और 1960 के दशक में उनकी भूमिका एक विचार वाहक की रही। उनके विचारों में भारतीयता के चिंतन की छाप थी। राजनीति में मूल्य, विचारधारा, समर्पण और ध्येय की जो परिभाषाएं दीन दयाल उपाध्याय ने रखीं, वह आज भी भारतीय जनता पार्टी के लिए प्रेरणा वाक्य की तरह हैं। उनका मत था, ‘राजनीतिक दलों को अपना एक विचार दर्शन विकसित करना चाहिए, जिससे कि वे राजनीतिक दल कुछ लोगों के निजी स्वार्थों पर टिके झुंड की तरह न बनें।’ पंडित दीन दयाल उपाध्याय के विचारों के प्रति आग्रह रखते हुए आयातित विचारधाराओं के तंत्र से निकलकर अंत्योदय के लक्ष्य और एकात्म मानववाद के वैचारिक सिद्धांत को आत्मसात करके ही भारतीयता के मूल स्वरूप में मानव कल्याण के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।

[फेलो, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन]