शाहिद ए चौधरी। दुनियाभर में कोरोना महामारी के संक्रमण के बीच निरंतर यह सवाल उठ रहा है कि इसकी वैक्सीन आमजन तक कब पहुंच पाएगी। कोरोना के संक्रमण से बचने का वैक्सीन के अलावा एक अन्य तरीका हर्ड इम्युनिटी है। वर्तमान दर से अगले वर्ष इस समय तक लगभग छह करोड़ लोग नए कोरोना वायरस से संक्रमित हो जाएंगे। यह संख्या हर्ड इम्युनिटी उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

दरअसल हर्ड इम्युनिटी वह स्थिति है, जब किसी खास वायरस के संक्रमण से देश-दुनिया की व्यापक आबादी संक्रमित हो जाए और उस वायरस के प्रति उनके शरीर में प्रतिरोधी क्षमता पैदा हो जाए। विश्व की जनसंख्या 7.5 अरब है, जिसमें हर्ड इम्युनिटी उत्पन्न करने के लिए करीब 3.6 अरब लोगों का संक्रमित होना आवश्यक है। इस स्थिति में हमारे लिए यही बेहतर है कि वैक्सीन विकसित करके संसार को इम्यून कर दिया जाए, ताकि सामान्य सामाजिक व व्यापारिक जीवन के दरवाजे खोले जा सकें।

अनुमान है कि रूस के वैज्ञानिकों ने वैक्सीन लाने की जल्दबाजी में म्यूटेशन को संज्ञान में नहीं लिया है, तो बात यह है कि जल्दबाजी दिखाने की बजाय यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि वैक्सीन सुरक्षित व प्रभावी हो, जो सही से ट्रायल करने से ही संभव है। इस संदर्भ में डॉ. सेठ बर्कले का कहना है कि कोविड वैक्सीन को लाने में तेजी दिखाई जा रही है, लेकिन जल्दबाजी सुरक्षा की कीमत पर नहीं की जा सकती। मालूम हो कि डॉ. बर्कले गावि यानी ग्लोबल एलायंस फॉर वैक्सीन एंड इम्यूनाईजेशन के सीईओ हैं। गावि ने संसार के लगभग आधे बच्चों को जानलेवा व निर्बल करने वाले रोगों से बचाने के लिए टीकाकरण किया है। डॉ. बर्कले कहते हैं, नए कोरोना वायरस को नियंत्रित करने के लिए वैक्सीन बनाने में मुख्य चुनौती विज्ञान है।

यह नया वायरस है जिसकी खोज लगभग नौ माह पहले ही हुई है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस संकट का सामना करने के लिए वैज्ञानिक समुदाय व दवा निर्माताओं ने बहुत तेजी से प्रयास किए हैं, लेकिन मैं इस बात पर बल देना चाहता हूं कि कोविड वैक्सीन के विकास, टेस्टिंग और नियामक मंजूरी में सुरक्षा पहली वरीयता होनी चाहिए।आमतौर पर एक वैक्सीन के सुरक्षित विकास में एक दशक तक का समय लग जाता है। फिलहाल आपात स्थिति ऐसी है कि 18 माह की अवधि में ही इसे विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है। इस जल्दबाजी में असफलता भी हाथ लग रही है, जैसे एस्ट्राजेनेका वैक्सीन का क्लिनिकल ट्रायल कामयाब न हो सका। दूसरी समस्या यह है कि अधिकतर देश दवा निर्माताओं से द्विपक्षीय समझौते कर रहे हैं। यह बेरोकटोक वैक्सीन राष्ट्रवाद बहुत खतरनाक है।

मसलन 2009 में रईस देशों ने स्वाइन फ्लू वैक्सीन की अधिकतर सप्लाई पर कब्जा कर लिया था। इसलिए जरूरी है कि सभी देश संसाधनों को पूल करें, ताकि जब कोविड वैक्सीन उपलब्ध हो जाए, तो उसके निर्माण में सबका सहयोग हो और हर देश को जल्दी और अपनी जरूरत की मात्र में वैक्सीन मिल जाए। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी कोविड वैक्सीन आवंटन का एक फ्रेमवर्क तैयार कर रहा है, जिसकी वितरण में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, बशर्ते कि रईस व प्रभावी देश उसे ऐसा करने दें।

मानवता का तकाजा यही है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी को टीकाकरण का समान अवसर उपलब्ध कराया जाए। रूस अपनी वैक्सीन की समीक्षा तीसरे चरण के ट्रायल के बाद करेगा। बड़ी संख्या में मानवीय परीक्षण और वैक्सीन के निर्माण के लिए रूस ने भारत से संपर्क किया है। गौरतलब है कि विकासशील संसार की 60 प्रतिशत वैक्सीन सप्लाई की पूíत भारत के वैक्सीन निर्माता करते हैं और अब इन भारतीय निर्माताओं ने उन संस्थानों से समयबद्ध सप्लाई का अनुबंध किया है जो कोविड वैक्सीन विकास में लगे हुए हैं। इन अनुबंधों से भी लगता है कि कोविड वैक्सीन अगले साल ही किसी समय आ पाएगी।

(ईआरसी)