[यशपाल सिंह]। बीते दिनों उत्तर प्रदेश में हुआ एक और एनकाउंटर चर्चा में आया। लखनऊ में हुए इस एनकाउंटर में पूर्व ब्लॉक प्रमुख अजीत सिंह की हत्या का मुख्य आरोपित और कुख्यात शूटर गिरधारी मार गिराया गया। पुलिस के अनुसार गिरधारी उसकी गिरफ्त से भागने की कोशिश कर रहा था। अजीत सिंह की हत्या जनवरी के पहले सप्ताह में लखनऊ में ही कर दी गई थी। उसका स्वयं का आपराधिक इतिहास था। वह हिस्ट्रीशीटर था, परंतु एक संगीन वारदात का अहम गवाह भी था। उसकी गवाही चार दिन बाद आजमगढ़ में होनी थी।

गवाहों की हत्या का यह पहला मामला नहीं। इस तरह के मामले रह-रहकर सामने आते ही रहते हैं। कई बार तो अदालत परिसर में ही गवाहों की हत्या हुई है। गवाहों को धमकाने के मामले भी आम हैं। ऐसे मामले यही बताते हैं कि बाहुबली अपराधियों या फिर माफिया के सामने हमारा आपराधिक न्यायिक तंत्र घुटने टेक चुका है। गवाही पर आधारित हमारे न्यायिक तंत्र में जब गवाह कोर्ट के सामने जा ही नहीं पाएगा तो कोर्ट क्या करेगा? पहले प्रलोभन, फिर धमकी और कुछ नहीं चला तो हत्या। अब स्थिति यहां तक आ गई है कि कुछ वादी पैरवी तो दूर, अपनी ही गवाही में कोई रुचि नहीं दिखाते। न्याय और कानून का राज ही समाज को जीवंत रखने का मूल आधार स्तंभ है।

न्यायिक तंत्र हर कीमत पर बना रहे शक्तिशाली और प्रभावशाली 

देश और समाज के हित में यह जरूरी है कि न्यायिक तंत्र हर कीमत पर शक्तिशाली और प्रभावशाली बना रहे। अंग्रेजों ने वर्तमान आपराधिक न्यायिक तंत्र को 1861 के आसपास स्थापित किया अर्थात 1857 के विद्रोह के बाद। ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों ने आननफानन इस तंत्र को खड़ा कर दिया। उन्होंने जो भी किया, सोची-समझी रणनीति के तहत किया। उस समय उनके सामने दो उद्देश्य थे-दोबारा कोई विद्रोह न हो और तंत्र को खड़ा करने में कम से कम खर्च आए। इसलिए तंत्र की पहली कड़ी पुलिस को थाने स्तर पर बहुत सशक्त बनाते हुए थानेदार को ढेर सारे अधिकार दिए और पुलिस को दबंग बनाया। तब एक थाना बहुत बड़ा क्षेत्र नियंत्रित करता था। उस समय अंग्रेज शासकों ने पुलिस की दमनकारी मानसिकता को जानबूझकर विकसित किया, ताकि पुलिस जनता में लोकप्रिय बिल्कुल न हो सके। वे जानते थे अगर ऐसा हुआ तो गांव-गांव घूमने वाली पुलिस जब चाहे, विद्रोह करा देगी।

पुलिस पर लगा है अविश्वसनीयता का ठप्पा 

अंग्रेज यह भी जानते थे कि समाज का व्यापक विश्वास वे तभी प्राप्त कर सकेंगे जब सामान्य जन को न्याय देंगे। इसके लिए उन्होंने न्यायपालिका को कानूनी सुरक्षा और संरक्षण दिया। इसी कारण जनता का विश्वास न्यायपालिका पर बना। इस रणनीति में सबसे बड़ी हानि पुलिस की हुई। उसे समाज में पूर्णत: अविश्वसनीय बना दिया। यहां तक कि कानूनी रूप से भी उसे अविश्वसनीय माना। पुलिस का विवेचक गवाहों के बयान पर हस्ताक्षर तक नहीं करा सकता। गवाह जब मुकर जाता है तो दारोगा की आंख में आंख डालकर कहता है कि सब झूठ लिखा है। दारोगा जी तो आज तक मुझसे कभी मिले ही नहीं। उसके कथन को इसलिए सही मान लिया जाता है, क्योंकि पुलिस पर अविश्वसनीयता का ठप्पा लगा है और उसके पास अपने को सही साबित करने का प्रमाण ही नहीं होता। आखिर इसमें अभियुक्त के साथ कौन सा अन्याय होगा, अगर दारोगा उसकी बात पर हस्ताक्षर या फिर अंगूठे का निशान लगवा ले। विवेचक, जो केस की विवेचना के दौरान हर प्रकार के व्यक्तियों और साक्ष्यों से रूबरू होता है, उसकी बातों को पूरा महत्व नहीं दिया जाता।

गलत बयान लिखने वाले विवेचकों के खिलाफ किए जा सकते हैं सजा के प्रावधान

चूंकि विवेचना की एजेंसी ही संदेहास्पद मानी जाती है इसलिए अभियोजन पक्ष आधी लड़ाई तो प्रारंभ होते ही हार जाता है। जघन्य से जघन्य अपराध के अपराधी धमकी और प्रलोभनों से गवाह को तोड़ लेते हैं। जब ये नहीं टूटते तो कई बार उनकी हत्या भी करा दी जाती है। विवेचना के दौरान पुलिस के विवेचक द्वारा लिया गया बयान अगर स्वीकार्य साक्ष्य और विश्वसनीय बना दिया जाए तो गवाहों को तोड़फोड़, लालच, धमकी और हत्या की समस्या ही समाप्त हो जाए। गवाह को बयान की प्रतिलिपि उपलब्ध कराई जानी चाहिए। वह यह शिकायत भी कर सकता है कि उसका बयान ही गलत लिखा गया। गलत बयान लिखने वाले विवेचकों के खिलाफ सजा के प्रविधान किए जा सकते हैं। गवाही की समस्या ने आपराधिक न्यायिक तंत्र को ही ध्वस्त कर दिया है। पेशेवर अपराधी और माफिया कानून के लंबे हाथों की पकड़ से बिल्कुल बाहर होते जा रहे हैं।

किसी गवाह की हत्या पूरे आपराधिक न्यायिक तंत्र को खुली चुनौती है। यहां तक कि शासन तंत्र को चुनौती है, फिर भी हमारी विधायिका न्यायिक प्रक्रिया या फिर साक्ष्य अधिनियम की धाराओं को बदलने पर विचार ही नहीं कर रही है। जो नियम-कानून अंग्रेजों ने देश को गुलाम बनाए रखने के उद्देश्य से एक रणनीति के अंतर्गत बनाए थे, वे आज भी चल रहे हैं।

आज पुराने कानूनों से पेशेवर अपराधियों को रोक पाना असंभव

अखबारों में विपक्षी नेताओं के रोज बयान आते हैं, ‘कानून व्यवस्था बहुत खराब है।’ कोई नहीं पूछता कि जब आप शासन में थे तो कौन से कानून में क्या बदलाव किया? देश आज भी उन्हीं आपराधिक कानूनों, प्रक्रियाओं और साक्ष्य अधिनियम से शासित है, जिन्हें अंग्रेजों ने देश को गुलाम बनाए रखने के लिए डेढ़ शताब्दी पहले बनाए थे तो हम अपने को पूर्णत: स्वतंत्र कैसे कह सकते हैं? डेढ़ सौ साल पहले लोगों और समाज की सोच भिन्न थी। आज स्थिति बिल्कुल भिन्न है। आज पुराने कानूनों से पेशेवर अपराधियों को रोक पाना असंभव है, खास कर तब जब उन्हें विधायक/सांसद तक बनने की छूट हो और राजनीतिक पार्टियां अपना टिकट लेकर उनके दरवाजों पर खड़ी हों। सदियों पुराने कानून, कानूनी प्रक्रियाओं और साक्ष्य नियमों को स्वतंत्र भारत की नई सोच और मानसिकता के परिवेश में ढालने के लिए व्यापक बदलाव के कदम उठाने की आवश्यकता है।

(लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं)

[लेखक के निजी विचार हैं]