गोविंद सिंह। जम्मू-कश्मीर को इस हाल तक लाने में मीडिया की भूमिका भी कम जिम्मेदार नहीं है। मीडिया चाहे जम्मू-कश्मीर का हो, राष्ट्रीय हो या अंतरराष्ट्रीय हो, सभी ने आग में घी डालने का काम किया। कम से कम क्षेत्रीय मीडिया को तो इस बारे में सोचना चाहिए था। सबने अलगाववादियों के आगे घुटने टेक दिए। नतीजन हम पकिस्तान के जाल में फंसते चले गए।

हालांकि जून में यहां नई मीडिया नीति लागू की गई है, जिसमें कहा गया है कि झूठी खबरें देने, अनैतिक सामग्री परोसने और राष्ट्र-विरोधी सूचनाएं छापने वालों को कड़ा दंड दिया जाएगा। वहां आज भी केवल 2जी इंटरनेट चल रहे हैं और सोशल मीडिया को भी आधा-अधूरा ही खोला गया है। एक तरह से वह पूरी तरह से शक के घेरे में है। पिछले एक वर्ष में प्रशासन की तरफ से उसे सुधारने की कवायदें हुईं, पर जब तक उसके मूल चरित्र में बदलाव नहीं होता, उसका सुधरना मुश्किल लगता है।

जम्मू-कश्मीर के आज के मीडिया का हाल जानने के लिए हमें पिछली सदी के आखिरी दशक पर एक नजर डालनी होगी। 1990 के आसपास वहां आतंकवाद चरम पर था। राष्ट्रीय स्तर पर लुंज-पुंज सरकार थी। 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक ऐसे व्यक्ति को देश का गृह मंत्री बनाया जिसके रिश्ते आतंकवादियों के साथ ज्यादा गहरे थे, और जिसकी आस्था भारत के बजाय अलगाववादियों के प्रति अधिक थी। जनरल एसके सिन्हा, जो बाद में वहां राज्यपाल बनाए गए, उन्होंने साफ लिखा है कि उस दौर में जो लोग कश्मीरी पंडितों के घाटी से महा-पलायन के लिए जिम्मेदार थे, मुफ्ती मोहम्मद सईद उनसे मिले हुए थे। पाकिस्तान की रणनीति यह थी कि किसी भी तरह से घाटी से अन्य धर्मावलंबियों को बाहर खदेड़ा जाए और वहां इस्लामी कट्टरवाद के बीज बोए जाएंगे। वहां एक ऐसा विमर्श तैयार किया जाए, जिसमें भारत-भारतीयता की कोई जगह न हो। वहां के इतिहास-संस्कृति से भारतीयता के तमाम चिह्न् सदा के लिए मिटा दिए जाएं।

कश्मीरी पंडितों के निकल जाने के बाद दूसरी सफाई हुई मीडिया की, क्योंकि इस भारत-विरोधी विमर्श को फैलाने और जमाने में मीडिया की भूमिका सबसे ऊपर थी। इसलिए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया के जो भी ब्यूरो श्रीनगर में थे, उन्हें निशाने पर लिया गया। गैर इस्लामी संवाददाताओं को बाहर खदेड़ा गया। कुछ को मार दिया गया। उनके प्रधान कार्यालयों को भी धमकियां दी गईं। नतीजन सभी अखबारों ने श्रीनगर से अपने संवाददाता बुला लिए। कश्मीर की खबरों के लिए वहीं के लोगों को संवाददाता बनाया गया। यही भारत-विरोधी चाहते थे। उसके बाद कश्मीर में जम कर भारत-विरोध के बीज बोए गए। कोई विरोध करने वाला नहीं था। अखबार मालिकों ने खुलेआम उनकी लाइन का समर्थन किया ही, हाल के वर्षो में सोशल मीडिया ने भी भारत विरोधी विचारों को हवा देने में भूमिका निभाई। अलगाववादियों ने सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया। पाकिस्तानी आइएसआइ द्वारा बनाए गए सोशल मीडिया समूहों के जरिये भरपूर भारत-विरोधी प्रचार किया गया।

पाकिस्तान में आइएसआइ के मीडिया कक्षों में तैयार झूठी खबरों को हर सुबह घाटी के लगभग 500 वाट्सएप ग्रुपों में भेज दिया जाता, जो दोपहर तक अखबार के कार्यालयों में पहुंच जाते और शाम तक कश्मीर में जगह-जगह भारत विरोधी नारे लगने शुरू हो जाते। सोशल मीडिया का उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से इस्तेमाल किया। दुर्भाग्य से दिल्ली के तथाकथित राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय प्रेस ने आंख मूंद कर श्रीनगर से आने वाली खबरों पर भरोसा कर लिया। किसी बड़ी घटना के होने पर एकाध दिन के लिए दिल्ली से विशेष संवाददाता भेजे भी जाते तो वे अपने स्थानीय संवाददाताओं या अलगाववादी विचार वाले बुद्धिजीवियों से ही मिलकर लौट आते। अपने इन्हीं संपर्को के बल पर वे दिल्ली में कश्मीर विशेषज्ञ कहलाते।

कश्मीर को लेकर केंद्रीय सरकारों के लचर रवैये के कारण ही ऐसा हो पाया। यहां जम्मू के राष्ट्रवादी प्रेस का उल्लेख करना भी जरूरी है। बहुत चालाकी से जम्मू-कश्मीर की घाटी केंद्रित सरकारों ने जम्मू के मीडिया को उभरने नहीं दिया। कोई भी वारदात हो, भले ही वह जम्मू संभाग में ही क्यों न घटी हो, उसकी रिपोर्ट श्रीनगर संवाददाता ही लिखते। जम्मू क्षेत्र के विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता की पढ़ाई तक नहीं होने दी गई। आज जम्मू और कश्मीर घाटी दोनों जगहों से लगभग 350-350 अखबार निकलते हैं। बड़ी संख्या में पत्रकार हैं। घाटी के पत्रकार जम्मू में मिल जाएंगे, लेकिन जम्मू का एक भी पत्रकार घाटी में नहीं मिलेगा। जम्मू के उन्हीं पत्रकारों को ऊपर उठने दिया गया, जो श्रीनगर वालों के विमर्श में साथ देते। जम्मू में आज भी एकाध ऐसे अखबार हैं, जो अलगाववादी विमर्श को ढो रहे हैं। वैसे आम तौर पर अब जम्मू के अखबारों ने कश्मीरियों की हकीकत को समझ लिया है और वे जम्मू के हकों की बात करने लगे हैं।

इसीलिए अनुच्छेद 370 के हटने के बाद कश्मीर के मीडिया पर नकेल कसना जरूरी था। सोशल मीडिया पर आज भी कड़ी नजर रखी जा रही है। आज भी पाकिस्तान कोशिश करता है कि सोशल मीडिया के जरिये कश्मीरी समाज में जहर घोला जाए, पर अब उसकी दाल नहीं गल रही। इसीलिए जून में केंद्रशासित प्रशासन ने नई मीडिया नीति जारी की तो घाटी में उसका जमकर विरोध हुआ और जम्मू में दबे स्वर में ही सही, लेकिन इसका स्वागत हुआ। नई मीडिया नीति के तहत झूठी और राष्ट्रविरोधी खबरें फैलाने वाले पत्रकारों और मीडिया संस्थानों पर कड़ी निगरानी रखी जाएगी, आरोप सही पाए जाने पर उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी। पत्रकारों को मान्यता देने से पहले उनकी पृष्ठभूमि जांची जाएगी। कुल मिलकर देश विरोधी मीडिया के लिए अब राह आसान नहीं रह जाएगी। यह सबकुछ बदलाव अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने से ही संभव हो रहा है।

[प्रोफेसर, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय]