डॉ. अजय खेमरिया। संसद के दोनों सदनों में पारित होने और राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद एफसीआरए संशोधन विधेयक कानून बन चुका है। इसके बाद से देश के कई संगठन इसके निशाने पर आ गए हैं। ऐसा ही एक संगठन है एमनेस्टी इंटरनेशनल, जिसने भारत से अपना कामकाज बंद करने की घोषणा कर दी है।

दरअसल इस संगठन के विरुद्ध प्रवर्तन निदेशालय द्वारा विदेशी धन के दुरुपयोग और सीबीआइ द्वारा एफसीआरए के उल्लंघन के गंभीर आरोपों की जांच प्रक्रियाधीन है। असल में फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट यानी विदेशी अभिदाय संशोधन कानून (एफसीआरए) भारत में एनजीओ की संदिग्ध गतिविधियों को निषिद्ध करने का विधिक प्रावधान स्थापित करता है।

कुछ एनजीओ ने अवरुद्ध करने का काम किया : देखा जाए तो मानवाधिकार, गरीबी, शिक्षा, कुपोषण और नागरिक अधिकारों के नाम पर भारत में विदेशी षड्यंत्र लंबे समय से फलफूल रहे हैं। मामला चाहे झारखंड, छत्तीसगढ़ या आंध्र प्रदेश में नक्सलियों के समर्थन का हो या फिर तमाम विकास परियोजनाएं। कुछ एनजीओ ने राष्ट्रीय महत्व की तमाम परियोजनाओं को अवरुद्ध करने का काम किया है। यूपीए सरकार के दौर में अमेरिका से परमाणु ऊर्जा समझौते के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस पर नाराजगी जता चुके हैं। इसी वर्ष के आरंभ में दिल्ली दंगे और बेंगलुरु की घटनाओं के अक्स में पीएफआइ और पिंजरा तोड़ जैसे प्रतिक्रियावादी संगठनों की भूमिका को समझने की जरूरत है। अभी सरकार के समक्ष ऐसे अनेक प्रकरण सामने आए हैं, जिनमें विदेशों से प्राप्त धन को भारत में सरकार और विकास परियोजनाओं के विरुद्ध लोगों को भड़काने में किया गया है।

विदेशी चंदा वृद्धि से बढ़ी आशंका : भारत में वर्ष 2010 से 2019 की अवधि में गैर सरकारी संगठनों को मिलने वाले विदेशी चंदे की वार्षकि आमद दोगुनी हुई है। वर्ष 2016-17 और 2018-19 में 58 हजार करोड़ रुपये विदेशों से भारतीय एनजीओ के खातों में आए हैं। देश में करीब 22,500 ऐसे एनजीओ हैं, जो इस धनराशि को अपने कार्यक्रमों के नाम पर अमेरिका, चीन, जापान, यूरोप व इस्लामिक देशों से प्राप्त करते हैं। अध्ययन के नाम पर कुछ एनजीओ ने यूरोपीय आयोग, आयरलैंड सरकार और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम जैसे संगठनों से भी बड़ा चंदा हांसिल किया। पिछले साल गृह मंत्रलय ने 12 एनजीओ की पहचान की जो रोहिंग्या मुसलमानों को भारत में अवैध रूप से प्रवेश कराने और उन्हें सयुंक्त राष्ट्र शरणार्थी प्रावधानों के अनुरूप कतिपय दस्तावेज उपलब्ध कराने का काम कर रहे थे। इन संगठनों में एमनेस्टी इंटरनेशनल के भारतीय पदाधिकारियों के अलावा कोलकाता का बोंदी मुक्ति संगठन भी शामिल था। रोहिंग्या के मामले में सक्रिय अधिकतर एनजीओ दिल्ली में समाजकर्म के नाम पर पंजीकृत हैं। इस मामले में जामिया मिलिया के एक प्रोफेसर के साथ भारतीय विदेश सेवा के एक पूर्व अधिकारी प्रमुख भूमिका में थे।

यह नया कानून लोकसेवकों की भूमिका को स्पष्ट करता है। अभी ऊंचे पदों से रिटायर होने के बाद बहुत से लोग अपने प्रशासनिक अनुभव से विदेशी एनजीओ में सीधे ट्रस्टी या डायरेक्टर बन जाते हैं। अब इन बड़े नामवाले सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए अध्ययन और वेतन के नाम पर करोड़ों खर्च करना संगठन के लिए आसान नहीं होगा। देश में सिविल सोसायटी के बैनर तले सक्रिय तमाम बुद्धिजीवियों को यह संशोधन इसीलिए रास नहीं आ रहा है। देश में ऐसे सैकड़ों वामपंथी शिक्षक हैं जो सरकारी खजाने से लाखों रुपये वेतन लेने के बावजूद विदेशी चंदे पर सामाजिक कार्यकर्ता बन कर उन मामलों में खड़े नजर आते हैं जिनका सीधा संबंध राष्ट्रीय सुरक्षा या आधारभूत विकास परियोजनाओं से जुड़ा होता है। 50 फीसद प्रशासनिक व्यय जब घटकर 20 फीसद रह जाएगा तो बुद्धिजीवियों के शाही खर्चे उठाना भी अब इन एनजीओ के लिए बंद हो जाएगा।

इस बीच शोर यह मचाया जा रहा है कि मोदी सरकार अल्पसंख्यक संस्थानों को डराने में लगी है। जबकि हकीकत यह है कि तमाम अल्पसंख्यक संगठनों पर धर्मातरण और समाज तोड़ने के कुत्सित एजेंडे पर काम करने का आरोप है। कुछ समय पूर्व एक सरकारी रिपोर्ट में यह तथ्य भी सामने आ चुका है कि विदेशी धन का 13 फीसद धर्मातरण पर खर्च किया गया। यह आंकड़ा इससे कई गुना अधिक भी हो सकता है, जब इस पूरी रकम का बारीकी से अध्ययन किया जाए, क्योंकि अधिकांश बड़े एनजीओ शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और आश्रय के नाम से छोटे एनजीओ को यह रकम आबंटित कर देते हैं। पीपुल्स वॉच के प्रमुख हेनरी टिफेन को एमनेस्टी इंटरनेशनल ने आठवें मानवाधिकार सम्मान से सम्मानित किया था। देश में इस संगठन के पांच हजार स्कूल होने का दावा किया जाता है। छत्तीसगढ़ में इसकी भड़काऊ भूमिका विवादों में रही है। मोदी सरकार ने इसका एफसीआरए निरस्त किया तो हेनरी हाईकोर्ट तक गए थे।

गरीबी और अशिक्षा का उठा रहे फायदा : एनजीओ के गठबंधन ने देश के मैदानी क्षेत्रों में तो अपना प्रभाव स्थापित किया ही, समानांतर रूप से शासन और राजनीति को भी लंबे समय से अपनी जकड़ में ले रखा है। ग्रीन पीस और फोर्ड फाउंडेशन समेत अनेक मिशनरीज और जेहादी उद्देश्यों वाले एनजीओ भारत में न केवल गरीबी और अशिक्षा का फायदा उठा रहे हैं, बल्कि शासन व राजनीति को भी प्रभावित कर रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश का माहौल बिगाड़ने में इसी वर्ग की भूमिका संदेह में है। देश के कई राज्यों में अब राजनीतिक एजेंडे को भी यह एनजीओ आधारित समूह अपने हिसाब से चलाने की कोशिश कर रहा है। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार बिजली घर, यूरेनियम खदान, जीएम तकनीक, पनबिजली परियोजना के मामलों में एनजीओ आधारित कानूनी अड़ंगों व धरना-प्रदर्शन के चलते भारत को तीन फीसद जीडीपी का घाटा उठाना पड़ता है। मोदी सरकार ने 2014 से अभी तक 20 हजार से अधिक एनजीओ के लाइसेंस रद किए हैं। देशभर में संचालित करीब 33 लाख एनजीओ में से केवल 10 फीसद ही सरकार को नियमित रिपोर्ट करते हैं।

नए सिरे से परिभाषित होने के बाद बहुत से नामी-गिरामी लोगों को इन संगठनों से अलग होना पड़ेगा। विदेशी धन को स्थानांतरित करने की कार्रवाई रोकने में भी नया संशोधित कानून कारगर होगा, क्योंकि अभी गरीबी या शिक्षा के नाम पर ली गई विदेशी सहायता को बगैर किसी रोकटोक के दूसरे एनजीओ को अन्य कामों में दे दिया जाता था। इसे प्रशासनिक व्यय सीमा के पूर्ववर्ती प्रावधान से समझा जा सकता है।

सरकार के पास बैंक के जरिये धन और मद दोनों पर निगरानी संभव होगी : किसी संगठन को एक लाख रुपये अगर विदेश से प्राप्त हुआ है तो वह 50 हजार तो केवल शोधकर्ताओं पर खर्च कर रहा था और इसके बाद भी बची राशि अन्य व्यक्ति को भी आबंटित की जा सकती थी। अब ऐसा किया जाना संभव नहीं होगा। एक अलग खाते में विदेशी धन को रखना होगा और व्यय मद का ब्यौरा निर्धारित प्रपत्र पर सरकार के पास जमा करना पड़ेगा। चूंकि तीन-चौथाई एफसीआरए प्राप्त संगठन कोई ब्यौरा ही सरकार को नहीं देते हैं, लिहाजा आधार से सभी पदाधिकारियों की जानकारी लिंक होने से सरकार के पास बैंक के जरिये धन और मद दोनों पर निगरानी संभव होगी। साथ ही संदिग्ध एनजीओ के विरुद्ध सरकार की कार्रवाई पर भी प्रमाणिक जवाब नहीं दिया जाता था, जिससे इनकी गतिविधियों को समग्रता में नहीं जाना जा सकता था।

भारत में बहुत से ऐसे एनजीओ भी हैं, जो वर्षो से सामाजिक क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। जैसे टाटा ट्रस्ट, इंफोसिस, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, रिलायंस, हिंदुजा, सेवा भारती, वनवासी कल्याण परिषद, गायत्री परिवार, ईशा फाउंडेशन, आर्ट ऑफ लिविंग और पतंजलि जैसे अनेक संगठन भारत में वर्षो से सामाजिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं। कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी प्रावधान के तहत हजारों करोड़ रुपये सामाजिक कार्यो पर व्यय हो रहा है, लेकिन क्या कारण है कि भारतीयों औद्योगिक घरानों या स्वयंसेवी संगठनों पर एमनेस्टी, ऑक्सफैम, फोर्ड, ग्रीन पीस, पीएफआइ जैसे संगीन आरोप कभी सामने नहीं आए हैं।

सदियों से भारतीय लोकजीवन में धर्मादा प्रकल्प चलते आए हैं। असल में जिस तरह भारत के पूवरेत्तर एवं अन्य वनवासी बहुल इलाकों में डेमोग्राफिक बदलाव आया है, वह कई मामलों में चिंता का विषय है। इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित क्रॉस परपजस नामक एक शोध पुस्तक में ईसाई संस्थानों को मिलने वाली आर्थिक मदद का सोद्देश्य खुलासा किया गया है।

दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में कार्यरत कम से कम 20 क्रिश्चियन संगठन ऐसे हैं, जिन्होंने वर्ष 2006 से 2011 के मध्य 100 करोड़ से अधिक का विदेशी चंदा हासिल किया। इनके अलावा, देशभर में 750 क्रिश्चियन एनजीओ हैं, जिन्होंने वर्ष 2006 से 2011 के बीच एक साल में एक करोड़ से अधिक की राशि विदेशी स्नोतों से हासिल की है। यह राशि कुल 10,706 करोड़ रुपये थी। इनमें सर्वाधिक 181 संगठन आंध्र प्रदेश में थे, जिन्होंने 3,395 करोड़ एफसीआरए से प्राप्त किया। इसी तरह केरल के 181 संगठनों ने भी 2,572 करोड़ की राशि चैरिटी के लिए प्राप्त की। कर्नाटक में यह आंकड़ा 150 संगठनों का 2,185 करोड़ है।

सवाल यह है कि कोई विदेशी संस्था भारत में इतनी बड़ी राशि क्यों दे रही है? अगर वाकई पीड़ित मानवता और वास्तविक जरूरतमंद के लिए यह अथाह दान दिया जा रहा है तो उस देश की सरकार को इस धन खर्ची का हिसाब जानने का हक नहीं होना चाहिए? क्या यूरोपीय देश अपने राज्यों में विदेशी फंड से उनके घरेलू या राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसलों पर एमनेस्टी, ऑक्सफेम, ग्रीन पीस या फोर्ड जैसी संस्थाओं के हस्तक्षेप स्वीकार करेंगे?

नए संशोधित कानून को लेकर सबसे ज्यादा सवाल ऑक्सफैम और एमनेस्टी द्वारा ही उठाए जा रहे हैं। ऑक्सफैम की गतिविधियां पिछले दो दशकों से सरकारों को अप्रिय किसी दुराग्रह के चलते नहीं, बल्कि कश्मीर और अन्य आंतरिक सुरक्षा के मुद्दों को लेकर है। ऐसा नहीं है कि केवल मोदी सरकार ने इस चिंता को समझा है, बल्कि यूपीए सरकार के दौरान भी मनमोहन सिंह से लेकर तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम तक संसद में इस मुद्दे पर गड़बड़ियों को स्वीकार कर चुके हैं।

[लोक नीति मामलों के जानकार]