सुरेंद्र किशोर। यदि इस देश के भ्रष्टाचार को ‘रावण’ मान लिया जाए तो सवाल है कि उसकी नाभि का ‘अमृत कुंड’ कहां है? पिछले ढाई दशकों का अनुभव बताता है कि वह अमृत कुंड सांसद क्षेत्र विकास निधि है। घोटाले-महाघोटाले राष्ट्र-राज्य की काया को कमजोर करते हैं, लेकिन सांसद निधि घोटाला तो लोकतंत्र की आत्मा को प्रभावित कर रहा है। आम धारणा है कि सांसद निधि की 40 प्रतिशत राशि वह आफिस ले लेता है जहां से फंड खर्च किया जाता है। 20 प्रतिशत ठेकेदार और जन प्रतिनिधि के बीच बंटता है यानी फंड का 40 प्रतिशत ही जमीन पर लग पाता है। सांसद निधि आवंटित करने के लिए रिश्वत लेने के आरोप में उत्तर प्रदेश के एक सांसद की 2007 में सदस्यता जा चुकी है। उनकी सदस्यता इसलिए गई, क्योंकि वह स्टिंग में फंस गए थे।

दरअसल जो व्यक्ति पहली बार सांसद बनता है और जिसे ऊपरी आय से गुरेज नहीं है उसकी आदत यहीं से बिगड़नी शुरू हो जाती है। यही बात अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों पर भी लागू होती है। ऐसे जन प्रतिनिधियों के मंत्री और अफसरों के और ताकतवर अफसर बन जाने के बाद देश के अन्य फंडों के साथ वे क्या सुलूक कर सकते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।

1960-70 के दशकों में जनप्रतिनिधि अफसरों के भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर आवाज उठाते थे, लेकिन जब जनप्रतिनिधि ही भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाएं तो सोचिए क्या होगा? इस समस्या की गंभीरता की एक झलक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 15 अगस्त 2014 के लाल किले के भाषण में ही देश को दिखाई थी। उन्होंने कहा था कि जब किसी अफसर के यहां किसी काम को लेकर कोई जाता है तो वह पूछता है-‘इसमें मेरा क्या?’ जब उसे पता लगता है कि उसे कुछ नहीं मिलेगा तो वह कह देता है-‘तो फिर मुझे क्या?’ ऐसी ही बातों पर विचार करते हुए वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने सांसद निधि बंद कर देने की सिफारिश 2007 में की थी, लेकिन इसे लेकर ‘राजनीतिक सुनामी’ आने के डर से मनमोहन सरकार यह काम नहीं कर पाई। बिहार सरकार ने विधायक फंड को 2010 में बंद भी किया तो उसे बाद में शुरू करना पड़ा।

चुनाव आयोग के अलावा अदालत, कैग और अनेक कमेटियों की रपटों ने इस ‘अमृत कुंड’ पर बाण मारने की विफल चेष्टा की है। इस आम चुनाव के बाद यदि एक बार फिर नरेंद्र मोदी की सरकार बनती है तो शायद यह काम संभव है। उम्मीद इसलिए जगती है कि भारी दबाव के बावजूद उन्होंने सांसद निधि की राशि नहीं बढ़ाई। हालांकि राशि बढ़ा देने के लिए संसद की एक कमेटी की एक सिफारिश है।

2014 में सत्ता संभालने के एक महीने बाद ही प्रधानमंत्री मोदी की नजर सांसद निधि की ओर गई थी। भ्रष्टाचार की शिकायतों के बीच उन्होंने कहा था कि सांसद निधि के काम की ‘थर्ड पार्टी’ निगरानी कराई जाएगी। यह भी कहा गया था कि इस निधि से हो रहे विकास कार्यों की निगरानी के लिए जियोग्राफिकल इन्फॉर्मेशन सिस्टम का सहारा लिया जा सकता है। तब उम्मीद जगी थी कि इस योजना की सूरत बदलेगी, सांसद और अफसर बदनामी से बचेंगे, शासन के अन्य क्षेत्रों के भ्रष्टाचार पर भी सकारात्मक असर पड़ेगा और प्रशासन में स्वच्छता लाने में मदद मिलेगी, लेकिन इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं हो सका। संभवत: इस निधि के बेलगाम उपयोग के लिए सरकार पर अघोषित सर्वदलीय दबाव है।

सांसदों के भारी दबाव के कारण किस तरह पिछले दो प्रधानमंत्री न-न कहते सांसद निधि की राशि बढ़ाते चले गए, इसकी तह तक जाना प्रासंगिक होगा। 1993 में जब यह योजना शुरू की गई थी तो यही मंसूबा बांधा गया था कि इससे कुछ विकास कार्य कराकर जन प्रतिनिधियों को चुनाव जीतने में सुविधा होगी, लेकिन इसका कभी इतना विकृत रूप सामने आएगा, इसकी कल्पना कम ही लोगों को रही होगी। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब करीब 40 भाजपा सांसदों ने उनसे आग्रह किया कि सांसद निधि तत्काल बंद करा दें, क्योंकि अनेक कर्मठ और त्यागी कार्यकर्ता भी अब सांसद निधि के ठेकेदार बनकर रह गए हैं। वाजपेयी सांसद निधि समाप्त कर देने का मन बना ही रहे थे कि सौ से अधिक सांसद उनसे मिले।

उन्होंने सांसद निधि की राशि सालाना एक करोड़ रुपये से बढ़ाकर दो करोड़ रुपये करने का आग्रह किया। प्रधानमंत्री ने ऐसा ही किया। उन दिनों राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता मनमोहन सिंह ने इसका विरोध करते हुए सदन में कहा, ‘यदि आप चीजों को इस तरह होने देंगे तो जनता नेताओं और लोकतंत्र पर विश्वास खो देगी।’ विडंबना यह रही कि जब मनमोहन सिंह खुद प्रधानमंत्री बने तो 2011 में सांसदों के दबाव में आकर उन्होंने सांसद निधि बढ़ाकर सालाना पांच करोड़ रुपये कर दी।

सांसद निधि के उद्देश्य को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे। सांसद इरा सेझियन से लेकर विधि विशेषज्ञ एजी नूरानी तक और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एमएन वेंकटचलैया से लेकर संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप तक ने समय-समय पर इस योजना के खिलाफ अपनी राय दी है। सांसद निधि के खिलाफ सबसे मजबूत सैद्धांतिक पक्ष यह है कि पंचायती राज संस्था देश भर में अस्तित्व में आ जाने के बाद अब विधायक-सांसद निधि पंचायती राज के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप है, क्योंकि इस पैसे से आम तौर पर वही काम होते हैं जो काम पंचायतों और नगर निगमों को करने होते हैं। एक तर्क यह भी है कि कोई मौजूदा सांसद जब चुनाव मैदान में जाएगा तो वह 25 करोड़ रुपये के विकास कार्यों की पूंजी के साथ चुनाव लड़ेगा, जबकि उसका प्रतिद्वंद्वी इस मामले में शून्य होगा।

यह समानता के अधिकार के खिलाफ है। सांसद निधि की सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह विभिन्न दलों के कार्यकर्ताओं को व्यवसायी बना रही है। इस फंड के कारण राजनीति में वंशवाद और परिवारवाद को भी मजबूती मिल रही है। सांसद निधि के अधिकतर ठेकेदार सांसदों के कार्यकर्ता की भूमिका में आ जाते हैं। जब ठेकेदार ही कार्यकर्ता बन गए तो दलों से जुड़े कार्यकर्ताओं से राजनीतिक काम लेने की जरूरत ही नहीं रही। काम लेने पर उनमें से कोई बेहतर कार्यकर्ता टिकट का दावेदार भी हो सकता है, लेकिन अपने बाद अब आमतौर पर टिकट तो अब अपने वंश या परिजन को ही देना है। वंशवादी नेतागण, जिनकी संख्या बढ़ती जा रही है, न सिर्फ सांसद निधि जारी रखने के पक्ष में हैं, बल्कि उसकी राशि बढ़वाते जाना चाहते हैं ताकि अधिक से अधिक ठेकेदार यानी कार्यकर्ता उपलब्ध हो सकें।

आज जब चुनाव प्रक्रिया जारी है तब लोगों को और बातों के साथ यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि सांसद निधि की खामियां चुनावी मुद्दा बनें और उसे समाप्त किए जाने का माहौल बने। नि:संदेह राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि वे सांसद निधि बढ़ाने की नहीं, बल्कि उसे खत्म करने की जरूरत पर बल दें।

 (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)