भुवन भास्कर। बैंकिंग सेक्टर किसी भी देश की आर्थिक ही नहीं, सामाजिक प्रगति की भी रीढ़ होता है। यह एकमात्र मानदंड था, जिस पर बैंकों को असफल होता देख 19 जुलाई 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक झटके में देश के 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। ये बैंक उस समय देश के कुल कर्ज वितरण में 85 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखते थे, लेकिन सरकार को लग रहा था कि यह सारा कर्ज केवल बड़े कारोबारी घरानों को जा रहा था और प्राथमिक क्षेत्र पूंजी से वंचित रह जा रहे थे।

सरकार को ऐसा लगने की ठोस वजह थी। वर्ष 1951 से 1967 के बीच बैंकों से उद्योग जगत को मिलने वाला कर्ज 34 से बढ़कर 64 प्रतिशत हो गया था, लेकिन कृषि को मिलने वाला कर्ज दो प्रतिशत से नीचे बना रहा। 11 साल बाद 1980 में राष्ट्रीयकरण की इस प्रक्रिया को और विस्तार देकर उसमें छह और बैंकों को शामिल कर लिया गया। इस तरह भारतीय बैंकिंग सेक्टर पूरी तरह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) पर आश्रित हो गया।

अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार की बुनियाद: इससे देश का बैंकिंग सेक्टर बुनियादी तौर पर कई नई प्रवृत्तियों से ग्रस्त हो गया। प्रतिस्पर्धा खत्म हो गई, तकनीक को लेकर उदासीनता छा गई और रेगुलेटरी निगरानी में शिथिलता आ गई। इन घटनाओं से बैंकिंग सेक्टर में गवर्नेंस की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हुई। ढीले-ढाले रेगुलेटरी परिवेश के बीच दो दर्जन से ज्यादा पीएसबी सत्ताधारी नेताओं और बड़े कॉरपोरेट के बीच भ्रष्ट गठबंधन की पौध सींचने के साधन बन गए।

कई ऐसे उदाहरण सामने आए जब सरकारी बैंकों के प्रमुखों ने किसी प्रभावशाली नेता के फोन पर दिए निर्देशों का पालन करते हुए किसी कॉरपोरेट को हजारों करोड़ रुपये का कर्ज दे दिया। कई बार तो एक पीएसबी से कर्ज पाने वाले उद्योगपति पहले से ही किसी दूसरे बैंक से सैकड़ों-हजारों करोड़ रुपये डकार कर बैठे थे। विजय माल्या और नीरव मोदी तो केवल इक्का-दुक्का ऐसे हाई प्रोफाइल मामले हैं, जिन्हें मीडिया में ज्यादा तवज्जो मिली, लेकिन ऐसे दर्जनों मामले बाकायदा रिकॉर्ड पर हैं।

घोटालों व अदूरदर्शिता से बढ़ा एनपीए: इनके अलावा यूपीए के दूसरे कार्यकाल (2009-14) के दौरान हुए कई महाघोटालों ने बैंकिंग सेक्टर की कमर तोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई। कोयला घोटाले और टेलीकॉम घोटाले में हजारों करोड़ रुपये का कर्ज लेकर बोली लगाने वाले कई कंपनियों के लाइसेंस रद हो गए, जिससे कर्ज की रकम बैंकों के डूबे कर्ज यानी एनपीए के खाते में चली गई। यहां तक कि पावर सेक्टर में हजारों करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट अलग-अलग कारणों से डूब गए। इन सभी कारणों ने बैंकों के एनपीए को बढ़ाने में खासा योगदान दिया। इसी दौरान हजारों करोड़ के ऐसे लोन भी दिए गए जो 2008 के सब-प्राइम संकट के बाद अर्थव्यवस्था को उबारने की सरकारी योजना का हिस्सा थे। भारतीय स्टेट बैंक की पूर्व प्रमुख अरुंधति भट्टाचार्य ने बाकायदा बैंकों के एनपीए के लिए उस दौर को बड़ा जिम्मेदार माना है जब सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में निवेश को जमकर प्रोत्साहन दिया। लेकिन उनमें लाखों करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट लालफीताशाही से लेकर जमीन अधिग्रहण जैसी मुश्किलों के कारण पूरे ही नहीं हो सके। नतीजा यह हुआ कि 2009 मार्च में जहां इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर को दिए गए कर्ज का केवल 4.66 प्रतिशत हिस्सा एनपीए था, वहीं मार्च 2013 में यह 17.4 प्रतिशत पर पहुंच गया।

करदाताओं के पैसों से बैंक बचाने की जुगत: मोदी सरकार के 2014 में सत्ता संभालने के बाद भी इस स्थिति में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। कहा जाए कि हालात और बदतर होते चले गए तो अतिशयोक्ति न होगी। मोदी सरकार के दौरान बैंकों का एनपीए 2.83 लाख करोड़ से बढ़कर करीब 12 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया। इसमें बड़ी हिस्सेदारी उन कर्जो की थी, जिनकी जड़ें यूपीए-2 में धंसी थीं, लेकिन मोदी सरकार की आठ नवंबर 2016 को की गई नोटबंदी के फैसले ने भी इसमें अच्छा-खासा योगदान दिया। हालात उस बिंदु तक पहुंच गए जहां यह साफ हो गया कि यदि सरकार ने स्थिति सुधारने के ठोस उपाय न किए तो पूरा बैंकिंग सेक्टर धराशायी हो जाएगा। तब सरकार ने एक ओर इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी कोड, 2016 के जरिये दोषी कॉरपोरेट्स को दंडित करने और बैंकों पर नकेल कसने की कोशिश शुरू की, वहीं सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजीगत सहायता देकर उन्हें बचाने की कवायद भी शुरू हुई। पिछले छह साल में नरेंद्र मोदी सरकार ने जर्जर हो चुकी बैंकिंग व्यवस्था को बचाने के लिए करदाताओं के 3.5 लाख करोड़ रुपये कैपिटल इनफ्यूजन के जरिये बैंकों में डाले। इस साल के बजट में हालांकि सरकार ने इस मद में कोई रकम नहीं तय की थी, लेकिन सरकार के सूत्रों के हवाले से खबर आई कि सरकार फिर 200 अरब रुपये की सहायता बैंकों को दे सकती है, क्योंकि इस संकट ने एनपीए की एक नई लहर आने का बिगुल बजा दिया है।

सरकार के लिए एनपीए बैंकिंग सेक्टर का सबसे बड़ा सिरदर्द है और यह भी साफ है कि पीएसबी की वित्तीय अराजकता को बेलगाम छोड़ते हुए अनंत काल तक उसमें करदाताओं की कमाई डालते जाना संभव नहीं है। इसलिए सरकार किसी भी हाल में बैंकों का एनपीए काबू में लाना चाहती है। या यूं कहें कि यही वह कसौटी है, जो यह तय करेगी कि बैंकिंग सेक्टर पर सरकार का रोडमैप कितना सफल होगा। शुरुआती दौर में सरकार का पहला चरण सफलतापूर्वक पूर्ण होता नजर आ रहा है। सरकार एकीकरण के जरिये पीएसबी का एक ऐसा मिक्स तैयार करने की कोशिश कर रही है, जिसमें छोटे कमजोर बैंकों को बड़े मजबूत बैंकों के साथ जोड़ा जा सके।

पिछले साल अगस्त में हुए एकीकरण के दौरान ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स और यूनाइटेड बैंक को पंजाब नेशनल बैंक के साथ मिलाकर 18 लाख करोड़ रुपये कारोबार वाला एक बैंक बना दिया गया, जो एसबीआइ के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा बैंक है। इसी तरह सिंडिकेट बैंक को केनरा बैंक के साथ, आंध्रा बैंक और कॉरपोरेशन बैंक को यूनियन बैंक के साथ और इलाहाबाद बैंक को इंडियन बैंक के साथ मिला दिया गया। इन विलयों के बाद बने हर बैंक का कुल कारोबार अब आठ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है। इस साल एक अप्रैल से ये नए बैंक अस्तित्व में आ चुके हैं और अब बारी है दूसरे चरण की शुरुआत की। इसके पूरा होने पर बैंकिंग सेक्टर का नजारा चाहे जो बने, इतना तो तय है कि आरबीआइ और नीति आयोग की ये सिफारिशें आने वाले महीनों और वर्षो में बैंकिंग सेक्टर में होने वाली तमाम हलचलों और नीतिगत घटनाओं का आधार बनने जा रही हैं।

[आर्थिक मामलों के जानकार]