डॉ. अश्विनी महाजन। आत्मनिर्भर भारत मिशन का विचार भारतीय लोकाचार और जनसामान्य से सीधे जुड़ा हुआ है। अंग्रेजों को हराने के लिए महात्मा गांधी ने स्वदेशी का विचार अपनाया था और उनके लिए स्वदेशी, आत्मनिर्भरता की ही अभिव्यक्ति थी। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आत्मनिर्भरता अपनाने के संबोधन को गांधी के विचार को अपनाते हुए एक सुधार के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें स्थानीय को बढ़ावा देने के मार्ग पर चलने का संकल्प है। वैसे यह आज के वैश्वीकरण से विपरीत विचार है, लेकिन यह विचार भारत को आर्थिक रूप से स्वतंत्र और आत्मनिर्भर देखने का मार्ग प्रशस्त करता है।

पिछले सात दशकों में नीति निर्माताओं ने हमारे स्वदेशी उद्योगों, संसाधनों और उद्यमियों पर यानी देश के स्व पर भरोसा नहीं किया। 1950 के बाद से जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में नीति निर्माताओं ने विकास के रूसी मॉडल पर विश्वास किया। इस मॉडल को नेहरू-स्टालिन मॉडल भी कहा जाता है। सार्वजनिक क्षेत्र आधारित दर्शन इस मॉडल के मूल में था। यह सोचा गया कि सार्वजनिक क्षेत्र इस देश के विकास को गति देगा, और अंततोगत्वा उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योगों के विकास में भी वही योगदान देगा, लेकिन उस मॉडल में कृषि और सेवा क्षेत्र को कोई स्थान नहीं दिया गया। अचानक वर्ष 1991 में यह महसूस किया गया कि जिस मॉडल पर हमारी अर्थव्यवस्था आधारित थी, वह विफल रहा है। बढ़ते विदेशी ऋण के कारण देश मुसीबत में आ गया।

कहा गया कि अर्थव्यवस्था को बचाने का एकमात्र तरीका वैश्वीकरण (वाशिंगटन की सहमति के आधार पर) को अपनाना ही है। हमने देश को विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआइ), बहुराष्ट्रीय निगमों यानी विदेशियों के हाथ सौंप दिया। यह नई व्यवस्था विदेशी पूंजी पर आधारित थी। एकाधिकार और बाजार पर कब्जा करना बड़ी विदेशी कंपनियों की प्राथमिकता थी। इस मॉडल के बचाव में यह तर्क दिया गया कि इसके कारण ग्रोथ में तेजी आई, लेकिन देखा जाए तो जीडीपी में 1991 के बाद ग्रोथ, विलासिता के सामानों के अधिक उत्पादन और सेवा क्षेत्र में तेजी के कारण हुई। मगर सकल घरेलू उत्पाद में इस ग्रोथ का लाभ कुछ लाभार्थियों तक ही सीमित रहा। यह ग्रोथ ऐसी थी जिसमें एक तरफ अंधाधुंध रियायतें देकर हमारी पहले से ही अच्छी तरह से चलने वाली कंपनियों का अधिग्रहण विदेशी पूंजी को करने की छूट दे दी गई और दूसरी तरफ वैश्वीकरण के नाम पर चीनी माल के आयात की अनुमति देकर, अपने देश में रोजगार को नुकसान पहुंचाया और आर्थिक असमानताओं को बढ़ाने का काम किया। विदेशी व्यापार और चालू खाते पर भुगतान शेष में घाटा बेलगाम होता गया। इस तरह भूमंडलीकरण ने कई स्थानीय उद्योगों को तहस-नहस कर दिया। इसका सीधा परिणाम स्थानीय विनिर्माण, रोजगार क्षति और शहरी श्रमिक वर्ग और ग्रामीण आबादी की गरीबी था, क्योंकि कृषि-ग्रामीण अर्थव्यवस्था एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) नीतियों में पूरी तरह बाहर थी।

दूसरी ओर बेरोजगारी और गरीबी ने लोगों को समाज के लिए योगदानकर्ता बनाने के बजाय सरकारी सहायता पर निर्भर बना दिया। रोजगार (मनरेगा) और भोजन के अधिकार नए मानदंड बनने लगे, लेकिन वे लोगों को लोकतंत्र में चुप और रचित रखने के लिए उपकरण मात्र ही हैं। हालांकि यह नीति लोगों द्वारा सामाजिक और आर्थिक विकास में योगदान देने में बाधा बनती है। फिर भी इसे अपनाया गया। उधर वैश्वीकरण और निजी कॉरपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आधारित आर्थिक गतिविधियों को संचालित करने की मौजूदा व्यवस्था में यह एकमात्र समाधान बताया जाता है, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चल सकता।

इधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेक इन इंडिया, स्टार्टअप, खादी आदि पर जोर देते रहे हैं, लेकिन कम टैरिफ और बिना सोचे-समङो एफडीआइ और आयात पर निर्भरता की नीति जारी रही। अब प्रधानमंत्री मोदी का लोकल के लिए जोर, जिसे ‘वोकल फॉर लोकल’ कहा जा रहा है, आत्मनिर्भरता की दिशा में एक कदम है, जिसकी लंबे समय से जरूरत थी। आज उन स्थानीय उद्योगों को पुनर्जीवित करने का समय है जो वैश्वीकरण के युग में नष्ट हो गए थे। यह उन आर्थिक नीतियों की शुरुआत करने का भी समय है जो जनकल्याण, स्थायी आय, रोजगार सृजन और सभी के लिए मददगार हो और जो लोगों में विश्वास पैदा करे।

स्थानीय उद्योगों के लिए मुखर होने का प्रधानमंत्री का आह्वान स्वागतयोग्य है। प्रधानमंत्री की अपील की एक बड़ी पहुंच है और यह स्वदेशी व स्थानीय ब्रांडों को वैश्विक ब्रांड बनने में सहयोगी होगी। प्रधानमंत्री मोदी के निरंतर समर्थन से इन उद्यमियों को वैश्विक स्तर पर अधिक सम्मान और स्वीकृति प्राप्त करने में मदद मिलेगी। चीनी वायरस से होने वाली समस्याओं से निपटने के लिए विभिन्न देशों की सरकारें प्रयास कर रही हैं और इस समर्थन की मात्र को जीडीपी के प्रतिशत के संदर्भ से मापा जाता है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री द्वारा 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा, जो जीडीपी का लगभग 10 प्रतिशत है, मजदूरों, छोटे व्यापारियों, लघु उद्यमियों, किसानों के साथ अति सूक्ष्म उद्यमों, ईमानदार करदाताओं और अन्य व्यवसायों के लिए राहत और अवसर दे सकती है। चीन के आर्थिक हमले, सरकारों की उदासीनता और विदेशी पूंजी के प्रभुत्व के कारण, एक लंबे समय से पीड़ित छोटे व्यवसायों के फिर से उत्थान के लिए इसे एक उपाय के रूप में देखा जा सकता है। स्थानीय के लिए प्रोत्साहन इस लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करेगा। इसलिए इस अवसर का उपयोग स्थानीय विनिर्माण और अन्य व्यवसायों के आधार पर अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए किया जाना चाहिए। यह देश को और अधिक सकारात्मक दिशा में ले जाएगा।

विकसित देश दूसरों की नकल करके विकसित नहीं हुए। उन्होंने खुद को विकसित करने के लिए अपनी रणनीतियों को स्वयं तैयार किया, लेकिन हमारे नीति निर्माता विदेशी मॉडलों से अभिभूत रहे और उन्होंने कभी भी अपने लोगों की ताकत, लोकाचार, विचार प्रक्रिया व उद्यमशीलता की क्षमता पर भरोसा नहीं किया। उन्हें कभी यह विश्वास ही नहीं था कि लोगों को केंद्र में रखकर विकास भी किया जा सकता है। वास्तव में हमारे लोगों के पास व्यापक क्षमता थी, लेकिन नीति निर्माताओं ने उसको अनदेखा ही किया।

[एसोसिएट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]