प्रमोद भार्गव। कोरोना काल में पूर्णबंदी रहने के बावजूद सभी प्रकार की दवाओं की दुकानें खुली थीं। इसके बावजूद देखने में आया कि अंग्रेजी दवाओं के कारोबार पर असर पड़ा है। अखिल भारतीय दवा विक्रेता संगठन का अनुमान है कि हृदय रोग व मधुमेह की दवाएं तो बिक रही हैं, लेकिन श्वसन, प्रसव, जटिल रोग, प्रसव शल्य-क्रिया, चर्म रोग, सर्दी-जुकाम, दर्दनाशक दवाएं, विटामिंस, मिनरल्स और गैस व पेट से जुड़ी बीमारियों की दवाओं में कम से कम 40 प्रतिशत की बिक्री कम हुई है। भारत में दवा उद्योग लगभग 1.35 लाख करोड़ रुपये का सालाना कारोबार करता है। किंतु इस साल यह कारोबार 80 से 85 हजार करोड़ रुपये तक सिमट जाएगा। इनमें मास्क और सैनिटाइजर की बिक्री शामिल नहीं है, क्योंकि ये दवाइयों में शामिल नहीं हैं।

चिकित्सक व दवा विक्रेता इसका कारण लॉकडाउन के दौरान लोगों का घर पर रहना, वाहनों का कम चलना, खानपान के होटल, ढाबों व रेस्टोरेंट आदि का बंद रहना और पर्यावरण में सुधार मान रहे हैं। इसके इतर कारणों में अधिकांश निजी अस्पताल व नर्सिंग होम बंद रहने के कारण ज्यादातर प्रसव या तो सरकारी अस्पतालों में हुए या फिर निजी अस्पतालों में भी सिजेरियन कम ही हुए, अधिकांश प्रसव इस दौरान नॉर्मल ही हुए।

सर्जरी की जरूरत नहीं होने पर भी शल्य-क्रिया से प्रसव कराते रहे?: प्रसव के सिजेरियन होने से दवाओं की खपत ज्यादा होती। दवाओं की इस घटती बिक्री और सामान्य रूप में हुए प्रसवों के परिप्रेक्ष्य में सवाल उठता है कि क्या चिकित्सक किसी प्रलोभन में बैक्टीरियल बीमारियों से जुड़ी एंटीबायोटिक दवाएं बेवजह देते रहे? और सर्जरी की जरूरत नहीं होने पर भी शल्य-क्रिया से प्रसव कराते रहे? भारत में बेवजह एंटीबायोटिक दवाएं रोगियों को देने पर विश्व स्वास्थ्य संगठन भी बार-बार चेतावनी देता रहा है। दरअसल विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि ज्यादा एंटीबायोटिक दवा देने से मनुष्य की प्रतिरोधात्मक क्षमता घटती है। कोविड-19 का ज्यादा असर भी ऐसे ही लोगों पर देखा गया है, जो बीमारियों के चलते अधिक दवाएं खाते हैं।

शल्य-क्रिया से प्रसव : देश भर में पिछले दो दशक के भीतर शल्य-प्रसव यानी सिजेरियन डिलीवरी का चलन बढ़ा है। राज्यों के आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल और मई की कोरोना अवधि में देश के अलग-अलग हिस्सों में 64 से लेकर 91 प्रतिशत तक महिलाओं ने सामान्य प्रसव से शिशुओं को जन्म दिया। इसकी मुख्य वजह रही कि कोरोना के भय से ज्यादातर निजी अस्पताल बंद थे। सरकारी अस्पतालों में प्रसव ज्यादा हुए, इसलिए ऑपरेशन की जरूरत नहीं पड़ी। आज के समय में यह एक कड़वा सच है कि बहुत से निजी अस्पतालों में जच्चा और बच्चा को किसी प्रकार की आशंका को दर्शा कर या डराकर सर्जरी का दबाव बनाया जाता है। इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि कुछ महिलाएं बिना दर्द के बच्चा चाहती हैं, इसलिए कई बार वे स्वेच्छा से भी सर्जरी कराती हैं। इस बारे में कई चकित्सकों का यह भी कहना है कि बहुत कम ही मामलों में सर्जरी की आवश्यकता होती है। यह पहलू इस बात को रेखांकित करता है कि सामान्य प्रसव होने की वजह से भी एंटीबायोटिक व अन्य दवाओं की बिक्री कम हुई।

एंटीबायोटिक दवाओं के खतरे : एंटीबायोटिक दवाओं को लेकर अर्से से जताई जा रही चिंता कोरोना काल में सही साबित हुई है। कुछ साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में एंटीबायोटिक दवाओं के विरुद्ध कम हो रही प्रतिरोधात्मक क्षमता को मानव स्वास्थ्य के लिए एक वैश्विक खतरे की संज्ञा दी थी। इस रिपोर्ट से साफ हुआ है कि चिकित्सा विज्ञान के नए-नए आविष्कार और उपचार के अत्याधुनिक तरीके भी इंसान को खतरनाक बीमारियों से छुटकारा नहीं दिला पा रहे हैं। चिंता की बात यह है कि जिन महामारियों के दुनिया से समाप्त होने का दावा किया गया था, वे फिर आक्रामक हो रही हैं। तय है, मानव जीवन के लिए हानिकारक जिन सूक्ष्म जीवों को नष्ट करने की दवाएं व टीके ईजाद किए गए थे, वे रोगनाशक साबित नहीं हुए। अलबत्ता विश्व स्वास्थ्य संगठन में सहायक महानिदेशक रहे डॉ. केजी फुकुदा का दावा है कि दुनिया ऐसे भयानक अंधकार की ओर बढ़ रही है, जहां समान्य बीमारियां भी जानलेवा हो सकती हैं।

कम होती शारीरिक प्रतिरोध क्षमता : वर्ष 2014 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 114 देशों से जुटाए गए आकड़ों का विश्लेषण करते हुए अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि कम होती शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता दुनिया के हर कोने में दिख रही है। रिपोर्ट में एक ऐसे पोस्ट एंटीबायोटिक युग की आशंका जताई गई थी, जिसमें लोगों के सामने फिर उन्हीं सामान्य संक्रमणों के कारण मौत का खतरा होगा, जिनका पिछले कई दशकों से इलाज संभव हो रहा है। यह रिपोर्ट निमोनिया, डायरिया और रक्त संक्रमण का कारण बनने वाले सात अलग-अलग जीवाणुओं पर केंद्रित है। रिपोर्ट के अनुसार अध्ययन में शामिल आधे से ज्यादा लोगों पर दो प्रमुख एंटीबायोटिक का प्रभाव नहीं पड़ा।

स्वाभाविक तौर पर जीवाणु धीरे-धीरे एंटीबायोटिक के विरुद्ध अपने अंदर प्रतिरक्षा क्षमता पैदा कर लेता है, लेकिन इन दवाओं के हो रहे अंधाधुंध प्रयोग से यह स्थिति अनुमान से कहीं ज्यादा तेजी से सामने आ रही है। चिकित्सकों द्वारा इन दवाओं की सलाह देना और मरीज की ओर से दवा की पूरी मात्रा लेना इसकी प्रमुख वजह है। डॉ. फुकुदा का मानना है कि जब तक हम संक्रमण रोकने के बेहतर प्रबंधन के साथ एंटीबायोटिक के निर्माण, निर्धारण और प्रयोग की प्रक्रिया को नहीं बदलेंगे, तब तक यह खतरा बना रहेगा। ब्रिटेन के एक प्राध्यापक डेम सैली डेविस ने इस खतरे को ग्लोबल र्वांिमग के जितना ही भयावह बताया है। आज संभवत: कोरोना के रूप में हम इस खतरे का सामना कर रहे हैं।

सावधानीपूर्वक हो एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग : प्रकृति ने मनुष्य को बीमारियों से बचाव के लिए शरीर के भीतर ही मजबूत प्रतिरक्षात्मक तंत्र दिया है। इन्हें श्वेत एवं लाल रक्त कणिकाओं के माध्यम से जाना जाता है। इसके अलावा रोग-रोधी एंजाइम लाइसोजाइम भी होता है, जो जीवाणुओं को नष्ट कर देता है। एंटीबायोटिक दवाओं ने जहां अनेक संक्रामक रोगों से मानव जाति को बचाया, वहीं शरीर की प्रतिरोधात्मक शक्ति को कमजोर भी किया। जिस तरह मानव शरीर विभिन्न प्राकृतिक तापमान, वायुमंडल व भौगोलिक परिस्थिति और पर्यावरण के अनुकूल अपने को ढाल लेता है, उसी तरह से हमारे धरती पर अस्तित्व के समय से ही सूक्ष्मजीव और उनके विरुद्ध शरीर की प्राकृतिक प्रतिरोधात्मक शक्ति का भी परिर्वितत विकास होता रहा है।

इसलिए एंटीबायोटिक दवाओं की मात्रा पर अंकुश लगना चाहिए। दवा कंपनियों की मुनाफे की हवस और चिकित्सकों का लालच, इसमें बाधा बने हुए हैं। चिकित्सक साधारण रोगों तक में एंटीबायोटिक दवाएं दे देते हैं। एलोपैथी चिकित्सा पद्धति के मुनाफाखोरों ने प्रायोजित शोधों के मार्फत आयुर्वेद, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी को अवैज्ञानिक कहकर हाशिये पर डालने का काम भी षड्यंत्रपूर्वक किया है। लेकिन इनकी बिक्री अंग्रेजी दवाओं की तुलना में बढ़ी हैं। कुछ एलोपैथी चिकित्सक भी कोरोना से बचने के लिए आयुर्वेदिक दवाओं के सेवन की सलाह दे रहे हैं। लिहाजा बेशुमार एंटीबायोटिक दवाओं की मार से बचने का यही एक कारगर उपाय है कि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों का प्रयोग बढ़े और एंटीबायोटिक दवाओं पर अंकुश लगे।

संक्रामक रोगों का निरंतर बढ़ता खतरा: वैज्ञानिकों ने एंटीबायोटिक दवाओं की खोज करके महामारियों पर एक तरह से विजय पताका फहरा दी थी। लेकिन चिकित्सकों ने इन दवाओं का इतना ज्यादा प्रयोग किया कि बीमारी फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों ने प्रतिरोधात्मक दवाओं के विपरीत ही प्रतिरोधात्मक शक्ति हासिल कर ली। मानव काया में सूक्ष्मजीव भरे पड़े हैं। हालांकि सभी सूक्ष्मजीव हानिकारक नहीं होते, कुछ पाचन क्रिया के लिए लाभदायी भी होते हैं। प्राकृतिक रूप से हमारे शरीर में 200 किस्म के ऐसे सूक्ष्मजीव डेरा डाले हुए हैं, जो हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत व शरीर को निरोग बनाए रखने का काम करते हैं। लेकिल ज्यादा मात्रा में खाई जाने वाली एंटीबायोटिक दवाएं इन्हें नष्ट करने का काम करती हैं। एंटीबायोटिक दवाओं की खोज मनुष्य जाति के लिए ईश्वरीय वरदान साबित हुई थी, क्योंकि इनसे अनेक संक्रामक रोगों से छुटकारा मिलने की उम्मीद बंधी थी। मगर जैसे ही संक्रामक रोगों से लड़ने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल शुरू हुआ, पुराने सूक्ष्मजीवों ने अपना रूपांतरण कर लिया है।

जीवाणु और विषाणु सूक्ष्मजीवों के ही प्रकार हैं, जो किसी भी कोशिका में पहुंचकर शरीर को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं। ये हमारी त्वचा, मुंह, नाक और कान के जरिये शरीर में प्रवेश करते हैं। फिर एक से दूसरे व्यक्ति में फैलने लगते हैं। इसीलिए चिकित्सक सलाह देने लगे हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के बीच दो गज की दूरी बनी रहनी चाहिए। वैसे हमारी त्वचा सूक्ष्म जीवों को रोकने का काम करती है और जो शरीर में घुस भी जाते हैं, उन्हें एंटीबायोटिक मार डालते हैं। एक समय तक संक्रामक रोगों को फैलने में एंटीबायोटिक दवाओं ने अंकुश लगा रखा था। इसके पहले खासतौर से भारत समेत अन्य एशियाई देशों के अस्पताल संक्रामक रोगियों से भरे रहते थे और चिकित्सक मरीजों को बचा नहीं पाते थे। निमोनिया और डायरिया के रोगियों को भी बचाना मुश्किल था।

वर्ष 1940 से 1980 के बीच बड़ी मात्रा में असरकारी एंटीबायोटिक की खोजें हुईं, परिणामस्वरूप स्वास्थ्य लाभ के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। किंतु 1980 के बाद कोई बड़ी खोज नहीं हुई, जबकि पूरी दुनिया में इस दौरान चिकित्सा शिक्षा संस्थागत ढांचे के रूप में ढल चुकी थी। आविष्कार में उपयोगी माने जाने वाले उपकरण भी शोध संस्थानों में आसानी से उपलब्ध थे। वर्ष 1990 में एक नई किस्म की एंटीबायोटिक की खोज जरूर हुई, मगर बाजार में जो भी नई दवाएं आईं, वे हकीकत में पुरानी दवाओं के ही नए संस्करण थे। विडंबना है कि नई एंटीबायोटिक दवाएं आज भी विकसित नहीं हो रही हैं, जबकि नए-नए सूक्ष्मजीव सामने आ रहे हैं। इन सूक्ष्मजीवों ने मौजूदा दवाओं की सीमाएं चिन्हित कर दी हैं। जाहिर है इस पृष्ठभूमि में संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ रहा है।

[वरिष्ठ पत्रकार]