संजय मिश्र। MP Bypoll Results 2021 मध्य प्रदेश विधानसभा की दमोह सीट पर उपचुनाव में मिली हार ने भाजपा की चिंता बढ़ा दी है। लंबे समय बाद ऐसा हो रहा है कि भाजपा के स्थानीय नेता से लेकर कई बड़े नेता तक खुलकर इस हार की चर्चा कर रहे हैं और आरोप लगा रहे हैं कि यह हार जनता की वजह से नहीं, बल्कि पार्टी के ‘जयचंदों’ के कारण हुई है। दो मई को परिणाम घोषित होने के बाद भाजपा प्रत्याशी राहुल सिंह लोधी ने अपनी हार के लिए पार्टी के वरिष्ठ नेता पूर्व वित्तमंत्री जयंत पवैया एवं उनके परिवार को जिम्मेदार ठहरा दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि पवैया परिवार के भितरघात के कारण उनके वार्ड में तो हारे ही शहर के अन्य क्षेत्रों में भी बुरी तरह हार गए।

लोधी का यह आरोप अभी चर्चा में ही था कि अगले ही दिन केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल ने भी हार के लिए भितरघातियों को जिम्मेदार ठहरा दिया। उन्होंने बाकायदा ट्वीट किया कि दमोह के परिणाम ने भविष्य की चुनौतियों और षड्यंत्रों के साथ कार्यप्रणाली में सुधार के संकेत दिए हैं। हम सभी इसका समाधान तलाशेंगे। राज्य के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा भी इस जुबानी लड़ाई में कूद पडे़ हैं। उन्होंने ट्विटर पर लिखा, ‘दमोह नहीं हारे हैं हम, छले गए छलछंदों से, इस बार लड़ाई हारे हैं हम अपने घर के जयचंदों से।’

सवाल यह कि आखिर पार्टी किसे जयचंद मानती है। जिन जयंत पवैया पर भाजपा प्रत्याशी ने अपनी हार की तोहमत मढ़ी, अगले दिन उन्होंने भी अपनी सफाई पेश की। मलैया ने कहा, ‘जनमानस भाजपा प्रत्याशी के खिलाफ था, इसीलिए वह हार गए। वह भी (मलैया) तो 2018 में महज 790 वोटों के अंतर से हार गए थे, लेकिन उन्होंने किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया था।’ इस मसले पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बीडी शर्मा की प्रतिक्रिया अभी सामने नहीं आई है, लेकिन माना जा रहा है कि इस हार ने पार्टी की चिंता बढ़ा दी है और वह गहन मंथन कर रही है। वैसे तो दमोह विधानसभा सीट कई चुनावों से भाजपा के कब्जे में रही है।

जयंत मलैया यहां से लगातार सात बार विधायक रहे, लेकिन 2018 के चुनाव में वह कांग्रेस प्रत्याशी राहुल सिंह लोधी से महज 798 वोटों से हार गए। मलैया भी अपनी हार के लिए भितरघात को ही बड़ा कारण मानते रहे हैं। तब पूर्व मंत्री रामकृष्ण कुसमारिया ने भाजपा से बगावत करके मलैया के खिलाफ ताल ठोक दी थी। आखिरी दिन तक भाजपा उन्हें मनाने की कोशिश करती रही, लेकिन वे नहीं माने। चुनाव में उन्हें भले ही 1,133 वोट मिले, लेकिन उन्होंने भाजपा को तो नुकसान पहुंचा ही दिया। राज्य में 2018 के विधानसभा चुनावों में अंदरूनी कलह के कारण ही भाजपा को अनेक सीटों का नुकसान हुआ था। एक दर्जन से अधिक सीटें ऐसी थीं, जिन पर भाजपा के बड़े नेताओं पर ही भितरघात के आरोप लगाए गए थे। सात सीटों पर तो भाजपा के प्रत्याशी एक हजार से भी कम वोटों के अंतर से चुनाव हार गए।

दरअसल भाजपा में अंदरूनी कलह की शुरुआत उसी समय हो गई थी जब कमल नाथ सरकार को गिराने के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस के 22 विधायकों को इस्तीफा दिलाकर पार्टी में शामिल कराया गया। वर्ष 2020 में 28 विधानसभा सीटों पर उप चुनाव हुए तो भाजपा को सबसे ज्यादा परेशानी अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं से ही उठानी पड़ी। वे कांग्रेस से आए नेताओं को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। कलह तब और तेज हो गई जब पार्टी ने इस्तीफा दिलाकर कई अन्य विधायकों को भी भाजपा में शामिल कराया। राहुल लोधी भी उन्हीं में से एक थे। भाजपा सरकार बनने के बाद और 28 सीटों पर उपचुनाव के छह दिन पहले वह कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए थे। माना जा रहा था कि सत्ता में भागीदारी के लिए ही राहुल भाजपा में शामिल हुए। उन्हें एक महत्वपूर्ण निगम का अध्यक्ष बनाकर कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया। उपचुनाव में भाजपा ने 28 में से 19 सीटें तो जीत लीं, लेकिन पांच महीने बाद दमोह में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा।

राहुल लोधी भाजपा के स्वाभाविक कार्यकर्ता नहीं रहे हैं। भाजपा में शामिल होने पर राज्य नेतृत्व ने उनका स्वागत तो किया, लेकिन दमोह के पार्टी नेताओं ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। खासकर मलैया ने। राहुल उन्हीं मलैया को हराकर कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने थे। पार्टी को अहसास था कि दमोह का उपचुनाव मलैया के सहयोग के बिना नहीं जीता जा सकता। इसीलिए भाजपा कार्यकर्ताओं को एकजुट करने की कोशिश की गई, लेकिन पवैया अपनी राजनीतिक जमीन पर राहुल को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वह शांत बैठे रहे, नतीजा राहुल हार गए। इस तरह भाजपा में एक बार फिर गोलबंदी की धाराएं निकलने लगी हैं, जिसे खत्म करना पार्टी नेतृत्व के लिए बड़ी चुनौती होगी।

[स्थानीय संपादक, नवदुनिया, भोपाल]