प्रो. रसाल सिंह। नगा समस्या के शांति-वार्ताकार आरएन रवि और थुंगालेंग मुइवा के बीच अविश्वास और दूरियां क्रमश: बढ़ती जा रही हैं। आपसी अविश्वास और दूरियां बढ़ने की वजहें बड़ी साफ हैं। एनएससीएन (आइएम) स्वयं को नगा हितों का एकमात्र प्रहरी और पोषक संगठन मानता है, जबकि शांति वार्ताकार आरएन रवि की समझ और अनुभव इससे अलग है। उनके अनुसार व्यापक नगा समाज के बीच इस संगठन की विश्वसनीयता और स्वीकार्यता संदिग्ध है।

अपनी नृशंसता के बावजूद यह संगठन नगा समुदाय की आकांक्षाओं की प्रतिनिधि आवाज नहीं है। इसलिए केवल उससे शांति वार्ता करके नगा समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता है। उनके द्वारा नगाओं के अन्य संगठनों और समूहों के साथ भी शांति वार्ता शुरू करने से यह समूह भड़क उठा है। परिणामस्वरूप उसने शांति वार्ता और संघर्ष-विराम से कदम खींचना और पुन: जंगलों में लौटकर सशस्त्र संघर्ष शुरू करने की धमकी देना शुरू कर दिया है।

शिलांग समझौते की प्रतिक्रिया: वर्ष 1975 के शिलांग समझौते की प्रतिक्रियास्वरूप बने इस हिंसावादी संगठन के निर्माण में एसएस खापलांग, आइजैक चिशी स्वू और थुंगालेंग मुइबा जैसे चरमपंथियों की केंद्रीय भूमिका थी। इन लोगों ने वर्ष 1980 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (एनएससीएन) का गठन किया था। इस संगठन ने शिलांग समझौते को नगा आंदोलन के साथ छल करार दिया था। इस संगठन ने सभी नगा समुदायों की व्यापक एकता और साझा संघर्ष का आह्वान किया। माओ की कार्यशैली से प्रभावित और प्रेरित इस संगठन के कर्ताधर्ता सत्ता के बंदूक की नली से निकलने में भरोसा करते आए हैं। इसलिए ये लोग खून की होली खेलते आए हैं।

एनएससीएन में विभाजन: लाल क्रांति का राग अलापने वाले थुंगालेंग मुइवा ने नगालैंड में कन्वर्जन और कम्युनिज्म का कॉकटेल तैयार किया है। वह अपनी सत्ता-लालसा के लिए किसी का भी खून बहा सकता है और किसी भी साधन का उपयोग कर सकता है। यह उसके लगभग 15 वर्षो के चीन प्रवास के दौरान ली गई ट्रेनिंग का परिणाम है। वर्ष 1988 में एनएससीएन में विभाजन हो गया और एनएससीएन (आइएम) में आइजैक चिशी स्वू अध्यक्ष और थुंगालेंग मुइवा महासचिव बन बैठे। तब से लेकर आज तक एनएससीएन (आइएम) और उसका स्वयंभू कमांडर-इन-चीफ थुंगालेंग मुइवा अलगाववादी हिंसा, अराजकता और असंतोष की जड़ है।

मोदी सरकार और एनएससीएन (आइएम) के बीच हुए समझौता : वर्ष 2014 में मोदी सरकार और एनएससीएन (आइएम) के बीच हुए समझौते में इस हिंसावादी संगठन ने कई अनुचित मांगों को डलवाया था। उसने सुनिश्चित किया कि संघर्ष-विराम केवल भारत सरकार के सुरक्षा बलों और एनएससीएन (आइएम) के बीच ही हो, ताकि अन्य सशस्त्र नगा संगठनों और शांति प्रिय नगा समूहों के खिलाफ उसकी हिंसा जारी रह सके। साथ ही, संघर्ष विराम की शर्तो के कारण नगा हितों का एकमात्र प्रहरी और प्रतिनिधि संगठन होने के उसके खोखले दावे को वैधता मिलती रहे। भारतीय सेना और सुरक्षा बलों के साथ संघर्ष-विराम का फायदा उठाकर इस संगठन ने अपने प्रतिद्वंद्वी संगठनों और नागरिक समाज के हजारों लोगों को अब तक मार डाला है।

हिंसा और दहशत के बलबूते यह नगालैंड में अपनी समानांतर सरकार चला रहा है। यह समानांतर सरकार अवैध वसूली, अपहरण, दहशतगर्दी आदि आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त रहती है। एक अगस्त, 2007 से जारी संघर्ष-विराम ने एनएससीएन (आइएम) की समानांतर सरकार को मजबूती प्रदान की है। इसलिए इस संगठन की रुचि शांति वार्ता की प्रगति और समस्या के समाधान में न होकर शांति प्रक्रिया के लंबा खिंचने और संघर्ष-विराम के जारी रहने में है।

आरएन रवि की भूमिका : आरएन रवि एक सक्षम पुलिस अधिकारी रहे हैं। शांति वार्ताकार बनने से पहले से उनका नगा मुद्दे पर विशेष अध्ययन और समझ रही है। इसलिए वे इन बारीकियों से अवगत हैं। पिछले साल केंद्र सरकार ने उन्हें नगालैंड का राज्यपाल बना दिया था। इससे उनकी भूमिका दोहरी हो गई। उन्होंने अपने अनुभव और समझ के आधार पर एनएससीएन (आइएम) की समानांतर सरकार द्वारा संचालित गैर-कानूनी गतिविधियों की पहचान करने और उनका गंभीर संज्ञान लेकर जरूरी कार्रवाई को अंजाम देना शुरू किया। यह शांति वार्ता का टìनग प्वॉइंट था।

राज्यपाल आरएन रवि ने स्थानीय सरकार पर दबाव बनाकर एनएससीएन (आइएम) की आपराधिक गतिविधियों, दहशतगर्दी, नागरिक समाज एवं अन्य संगठनों के साथ की जा रही हिंसा और अवैध वसूली पर रोक लगवाई है। आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त कैडर पर मुकदमे दर्ज कराए गए हैं और बड़े मामलों में विशेष जांच दल भी गठित किए गए हैं। इस संगठन की समानांतर सरकार की रीढ़ माने जाने वाले प्रत्येक जिला मुख्यालय स्थित टाउन कमांड को खत्म कर दिया गया है।

संभवत: पहली बार एनएससीएन (आइएम) और उसके कैडर को नगालैंड में एक संवैधानिक सरकार होने का बोध हुआ है। यह संगठन नगालैंड राज्य को मान्यता नहीं देता है। इसके अलावा शांति वार्ताकार आरएन रवि ने एनएससीएन (आइएम) को नगा समस्या का एकमात्र स्टेकहोल्डर न मानते हुए अन्य संगठनों को भी शांति वार्ता में शामिल करने की पहल की है। उनकी इन पहलों से एनएससीएन (आइएम) का चिढ़ना अस्वाभाविक नहीं है। इसलिए उसने शांति वार्ताकार बदलने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। केंद्र सरकार को इस बार उस भूल से बचने की जरूरत है, जो पिछले 24 साल में दुहराई गई। इस बार केंद्र सरकार को शांति वार्ता को समयबद्ध ढंग से पूरा करने के लक्ष्य के साथ अन्य स्टेकहोल्डर्स को भी इसमें शामिल करना चाहिए।

नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (आइएम) के महासचिव थुंगालेंग मुइवा की हठधर्मिता और सत्ता लालसा के चलते एक बार फिर नगा समुदाय के साथ जारी शांति वार्ता में गतिरोध पैदा हो गया है। शांति वार्ता के सफल हो जाने की स्थिति में इस संगठन और इसके स्वयंभू नेता को अप्रासंगिक हो जाने का डर है, क्योंकि यह संगठन न तो बहुसंख्यक नगा समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है और न ही नगा समस्या का एकमात्र हितधारक है। लिहाजा अन्य हितधारकों को भी शांति वार्ता में शामिल करके ही स्थायी समाधान संभव है।

और भी हैं नगाओं के वास्तविक हितधारक: समझौते के दौरान एनएससीएन (आइएम) द्वारा रखी गई एक शर्त विशेष उल्लेखनीय है। इस संगठन ने समझौते में यह शर्त रखी थी कि शांति वार्ता केवल भारत सरकार के शांति वार्ताकार और एनएससीएन (आइएम) के बीच ही हो। इस शर्त के माध्यम से इस संगठन ने अन्य सभी स्टेकहोल्डर्स को हाशिये पर कर दिया है और अपनी केंद्रीय भूमिका व स्थिति सुनिश्चित कर ली है। इस शर्त का मूल कारण यह है कि यह संगठन नगा समस्या के समाधान की प्रक्रिया पर अपना एकाधिकार और वर्चस्व बनाए रखना चाहता है। जबकि नगा समस्या के वास्तविक स्टेकहोल्डर्स कई अन्य संगठन हैं। नगालैंड में कुल 14 नगा समुदाय रहते हैं। उनकी संख्या कुल नगा जनसंख्या का 80 फीसद है। इन समुदायों के अलग-अलग छात्र संगठन और महिला संगठन हैं। इसके नगालैंड गांव बूढ़ा फेडरेशन (1,585 गांव प्रमुखों की सर्वोच्च संस्था), नगा ट्राइब्स काउंसिल और नगा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप जैसे अनेक प्रभावी संगठन हैं, जो नगा अस्मिता और अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण ढंग से कार्यरत हैं। ये नगा क्लब और नगा पीपुल्स कन्वेंशन जैसे संगठनों की वैचारिक विरासत व कार्यशैली के उत्तराधिकारी संगठन हैं। ये संगठन नगा समुदाय के वास्तविक हितैषी हैं। सात नगा नेशनल राजनीतिक समूहों ने मिलकर शांति वार्ता में भागीदारी और समस्या के समाधान के लिए एक कार्यकारी समिति भी बनाई है।

इनके अलावा सात सशस्त्र संगठन भी हैं, जो भूमिगत रूप से सक्रिय हैं। इन संगठनों के साथ एनएससीएन (आइएम) की हिंसक प्रतिद्वंद्विता है। केंद्र की सरकारों द्वारा शांति वार्ता और संघर्ष-विराम के दौरान इस संगठन को दिए अत्यधिक महत्व ने इसका भाव बढ़ाया है। बारीकी से देखें तो केंद्र सरकार ने इस हिंसावादी संगठन को नगा हितों का कॉपी राइट देकर इसकी शक्ति और महत्व को अनायास बढ़ाया है। इस संगठन को नगा हितों का एकमात्र प्रतिनिधि संगठन और हितधारक मानना और केवल इसके साथ ही शांति वार्ता करना ऐतिहासिक रणनीतिक भूल है।

अपनी स्थापना के प्रारंभिक समय में इस संगठन ने दहशतगर्दी के बल पर खूब राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरीं। यह उसकी कुटिल रणनीति थी जो कामयाब हुई। उसने न सिर्फ सुरक्षा बलों, पुलिसवालों, उद्योग-धंधे चलाने वालों और राजनेताओं की नृशंस हत्याएं कीं, बल्कि अपने असंख्य नगा भाई-बहनों को भी मौत के घाट उतारा। इस खून-खराबे व दहशत के बल पर यह संगठन नगा अस्मिता और अधिकारों का स्वघोषित एकमात्र संगठन बन बैठा। इस संगठन को नगा हितों का एकमात्र झंडाबरदार बनाने में राष्ट्रीय मीडिया और केंद्र सरकारों की भी बड़ी भूमिका रही है। पिछले 24 वर्षो में हुई शांति वार्ताओं और संघर्ष-विरामों ने इस संगठन को लगातार खुराक दी है। एकदम शुरू में विभिन्न नगा समुदायों की काफी बड़ी संख्या का इस संगठन से भावनात्मक जुड़ाव था। लेकिन इसके सभी महत्वपूर्ण पदों पर मणिपुर के तन्ग्खुल समुदाय के हावी होते जाने से लोगों का मोहभंग होने लगा।

इस संगठन का स्वयंभू चीफ थुंगालेंग मुइवा भी मणिपुर के अल्पसंख्यक नगा समुदाय तन्ग्खुल से ही है। उसने सुनियोजित ढंग से अपने समुदाय को आगे बढ़ाकर अन्य समुदायों को किनारे कर दिया और अपनी और अपने समुदाय की स्थिति मजबूत कर ली। किंतु इस प्रक्रिया में इस संगठन की विश्वसनीयता में भारी गिरावट आई और मुइवा का यह जेबी संगठन नगाओं का प्रतिनिधि संगठन न रहकर तन्ग्खुल समुदाय का प्रतिनिधि संगठन मात्र रह गया है। परिणामस्वरूप अनेक नगा समुदायों ने अपने पृथक और स्वतंत्र संगठन बना लिए हैं। उन्होंने एनएससीएन (आइएम) या कहें तन्ग्खुल समुदाय के वर्चस्व वाले पैन नगा होहो, नगा स्टूडेंट फेडरेशन और नगा मदर्स एसोसिएशन जैसे संगठनों से संबंध विच्छेद कर लिया है। यह इस संगठन के सीमित और अल्पसंख्यक आधार का प्रमाण है। इसकी स्वीकार्यता में भारी गिरावट आई है। इसलिए केवल एनएससीएन (आइएम) को नगाओं का प्रतिनिधि संगठन और एकमात्र हितधारक मानकर उससे ही वार्तालाप करना अन्य संगठनों और समुदायों की आवाज की उपेक्षा करने जैसा है।

[अधिष्ठाता, छात्र कल्याण, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय]