नई दिल्ली [पुष्पेश पंत]। विदेश नीति के वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को समझने के लिए अब किसी के लिए भी एक वाक्यांश काफी होगा। एक जो दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका के साथ हैं और दूसरे जो अमेरिका के साथ नहीं हैं। जो अमेरिका के साथ हैं वे उसकी रीतियों-नीतियों से कदमताल करते हुए दुनिया से रिश्ता कायम किए हुए हैं। जो देश इस महाशक्ति के साथ खुलेतौर पर नहीं हैं, उनकी अपनी दुनिया है। अपनी कहानी है।

कल से दुनिया के अंकल सैम कहे जाने वाले देश के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत दौरे पर हैं। किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के स्वागत-सत्कार की तैयारियों की गंभीरता ही बता देती है कि आप उस देश से कैसा नाता रखना चाहते हैं। दिख भी रहा है और विशेषज्ञों का आकलन भी बताता है कि भारत अब अपनी विदेश नीति खुलेतौर पर अमेरिका से संबद्ध कर रहा है। साथ ही अमेरिका विरोधी देशों के साथ निजी संबंधों को लेकर भी उसका रुख साफ है।

कुछ साल पहले रूसी राष्ट्रपति पुतिन भारत दौरे पर आए थे, तो प्रधानमंत्री मोदी ने उनको संबोधित करते हुए कहा था कि राष्ट्रपति पुतिन, आप भारत के किसी बच्चे से भी पूछ लीजिए कि भारत का असली मित्र कौन है तो उसका जवाब रूस है। अब वैश्विक परिदृश्य अलहदा हैं। आज की कूटनीतिक और रणनीतिक तस्वीर में भारत के लिए अमेरिका मुफीद बना हुआ है। रक्षा सौदों से लेकर, ऊर्जा जरूरतों तक, देश को उससे बड़ी आस है।

यह सौदा एकतरफा नहीं है। कई अमेरिकी हित भी भारत से पोषित होते दिख रहे हैं। एक दूसरे के हितों की खातिर यह दोस्ती परवान चढ़ने लगी। अब भारत के लिए चुनौती यह है कि अमेरिका से रिश्तों की कीमत पर अन्य देशों, समूहों और ब्लॉकों से अपने संबंध कैसे बेहतर और मधुर रखे। इसी चुनौती की पड़ताल आज बड़ा मुद्दा है।

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे ने हमें अमेरिका भारत संबंधों के सर्वेक्षण का एक बेहतरीन अवसर सुलभ कराया है। हालांकि ट्रंप हमारे देश में पदार्पण के पहले ही साफ कर चुके हैं कि ‘बड़ा सौदा’ उन्होंने आगे कभी के लिए बचा कर रखा है। भारतीयों को लगता है कि भारत-अमेरिका संबंध इस गर्मजोशी वाली मेहमाननवाजी के बाद असाधारण रूप से बेहतर हो जाएंगे, क्योंकि मोदी और ट्रंप अपनी दोस्ती का इजहार करने का कोई मौका नहीं चूकते।

भारत जिस समय आजाद हुआ उस समय शीतयुद्ध का सूत्रपात हो चुका था। अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने गुट निरपेक्षता की नीति अपनाई जिसका अर्थ था, दोनों महाशक्तियों से बराबर दूरी बनाए रखना। इसका मतलब तटस्थ या अवसरवादी आचरण कतई नहीं था, बल्कि अपने राष्ट्रहित की कसौटी पर कसने के बाद, अपने विवेक के अनुसार अंतरराष्ट्रीय राजनयिक फैसले लेना था।

विकासशील भारत की अपेक्षा थी कि यह विकल्प उसे अमेरिका तथा सोवियत संघ दोनों ही ख़ेमों से आर्थिक तकनीकी सहायता हासिल करने में मददगार होगा। कट्टरपंथी साम्यवाद विरोधी अमेरिकी विदेशमंत्री डलेस ने इसे जनतांत्रिक अमेरिका के साथ एक अन्य जनतंत्र का विश्वासघात करार दिया और भारत को लगातार अपमानित तिरस्कृत किया। दूसरी ओर प्रारंभिक आशंकाओं के निराकरण के बाद सोवियत रूस भारत का मददगार बनने लगा।

इंदिरा गांधी के कार्यकाल में यह संबंध और भी घनिष्ठ और सामरिक दृष्टि से संवेदनशील बन गया। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में इसका मनोवांछित लाभ भारत को मिला। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को यह समझने के लिए याद रखना बेहद जरूरी है कि क्यों और कैसे पिछली चौथाई सदी में भारत क्रमश: रूस से विमुख हो अमेरिका के करीब जाता रहा है। तभी इस बात का सही मूल्यांकन किया जा सकता है कि इस बदले रिश्ते से हमें क्या नफा-नुकसान हुआ है और भविष्य में क्या संभावनाएं और चुनौतियां प्रकट हो सकती हैं।

1991 में सोवियत संघ का विघटन और सोवियत साम्राज्य के विलय ने निश्चय ही भारत की विदेश नीति के संदर्भ में पुनर्विचार को प्रेरित किया। 21वीं सदी के आरंभ तक रूस आर्थिक दिवालियेपन और अराजकता से जूझ रहा था। अफगानिस्तानी दलदल से निकल आने के बाद वह खस्ताहाल था। उधर भूमंडलीकरण का ‘वार’ विश्वव्यापी बन चुका था। आर्थिक सुधारों का बुनियादी तर्क  पूंजीवादी था। भारत से वर्षों पीछे रहा चीन इस मार्ग पर कदम रख चुका था।

शीत युद्ध में अमेरिका की विजय जगजाहिर लग रही थी। इस परिप्रेक्ष्य में भारत का अमेरिका के साथ अपने संबंधों को पुन: परिभाषित करना तर्क संगत था। इस बारे में साम्यवादी दलों को छोड़ सर्वदलीय सहमति रही है। विचारणीय मुद्दा यह है कि क्या नीति परिवर्तन का लाभ वास्तव में भारत को मिला है? कड़वा सच यह है कि अफगानिस्तान-ईरान के रणक्षेत्र में पाकिस्तान अमेरिका के लिए भारत से अधिक संवेदनशील साझीदार है।

ईरान के ऊपर लगाए अमेरिकी प्रतिबंधों का सीधा नुकसान भारत को हुआ है। अमेरिकियों के दबाव में भारत ने ईरान से तेल आयात में मजबूरन कटौती की है और हजारों साल पुराने सांस्कृतिक संबंधों से मुख मोड़ मध्यपूर्व में अमेरिका के मोहरे सऊदी अरब पर तेल आपूर्ति के लिए निर्भर बन चुका है। बरसों से फलस्तीनी अरबों का समर्थन करने वाला हमारा देश उनके जानलेवा दुश्मन इजरायल से बड़े पैमाने पर सैनिक साज सामान की खरीद शुरू कर चुका है।

ईराक, सीरिया और लीबिया में जहां कभी भारत आर्थिक तथा तकनीकी सहयोग में सक्रिय था, आज अनुपस्थित है। यही बात मिस्त्र के बारे में भी कही जा सकती है। अमेरिका भारत को निरंतर यह मरीचिका दिखलाता रहा है कि प्रशांत परिधि क्षेत्र में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है; भारत उदीयमान शक्ति है उसे अपनी महत्वाकांक्षा के अनुसार जिम्मेदारियां स्वीकार करनी चाहिए आदि।

यह बात अमेरिकी सामरिक हितों के लिए उपयोगी है क्योंकि भारत को आगे कर बिना चीन से सीधी मुठभेड़ का जोखिम उठाए वह दक्षिण-पूर्व एशिया में और सुदूर पूर्व में चीनी विस्तार के मार्ग में बाधा खड़ी कर सकता है परंतु भारत और चीन ही नहीं बल्कि अन्य आसियान देशों के साथ भारत के हितों के टकराव का संकट बढ़ गया है।

अमेरिका पर बढ़ती निरंतर निर्भरता ने भारत के स्वावलंबन की जड़ों को भी कुतरा है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार को संतुलित करने के बहाने औेर अमेरिकी उद्यमियों और श्रमिकों -किसानों को प्राथमिकता देने के बाद भारत को देने के लिए अमेरिका के पास वीजा की नाममात्र की रियायतों के अलावा कुछ बचता नहीं। वह पुराना फिल्मी गाना याद आता है जिसकी एक पंक्ति कुछ यूं थी, ‘किसी के इतना पास आ गये कि सबसे दूर हो चले!’ यह स्थित कतई निरापद नहीं समझी जा सकती।

(स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू)