[विकास सारस्वत]। वर्ष 1979 का जनवरी का महीना था। पश्चिम बंगाल के दलदली सुंदरबन डेल्टा में मरीचझापी नामक द्वीप पर बांग्लादेश से भागे करीब 40,000 शरणार्थी एकत्रित हो चुके थे। मुख्यत: दलित हिंदुओं का यह समूह उस महापलायन का एक छोटा-सा हिस्सा था जिसमें बांग्लादेश बन जाने के बाद से लगभग एक करोड़ उत्पीड़ित हिंदू भारत आ कर विभिन्न स्थानों पर बस चुके थे। जिन विस्थापितों की पैरवी कर कम्युनिस्टों ने पश्चिम बंगाल में अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत की थी, सत्ता में आने के बाद उन्हीं शरणार्थियों के प्रति वामपंथी सरकार का रवैया उपेक्षा से हट कर क्रूरता तक पहुंच गया। शरणार्थियों को पश्चिम बंगाल आने से रोका जाने लगा।

इसी क्रम में मरीचझापी में बस गए शरणार्थियों को वन्य कानूनों का हवाला दे कर वहां से भगाने का कुचक्र चला गया। 26 जनवरी को मरीचझापी में धारा 144 लागू कर दी गई। फिर उस टापू को सौ मोटरबोट से घेर लिया गया। दवाई, खाद्यान्न सहित सभी वस्तुओं की आपूर्ति रोक दी गई। पांच दिन बाद 31 जनवरी 1979 को पुलिस फायरिंग में शरणार्थियों का बेरहमी से नरसंहार हुआ।

‘ब्लड आइलैंड’ घटना का दर्दनाक विवरण

चूंकि करीब 30,000 शरणार्थी मरीचझापी में फिर भी डटे हुए थे इसलिए उन्हें खदेड़ने के लिए मई में एक बार फिर भारी पुलिस दल वहां पहुंचा। इस बार पुलिस के साथ वामपंथी कैडर भी था। करीब तीन दिन तक हिंसा का नंगा नाच चला। दीप हलदर ने अपनी पुस्तक ‘ब्लड आइलैंड’ में इस घटना का बहुत ही दर्दनाक विवरण दिया है। बचे शरणार्थियों को ट्रकों में जबरन भर कर दुधकुंडी कैंप में भेज दिया गया। बासुदेव भट्टाचार्य विधानसभा पहुंचे और विजयघोष किया कि ‘मरीचझापी को शरणार्थियों से मुक्त करा लिया गया है।’ बाद में वे पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने। बंटवारे की विभीषिका के बाद भी जो दोहरी मार हिंदुओं पर पड़ती रही है, मरीचझापी उसकी एक बानगी है।

पाकिस्तान और बांग्लादेश में इस्लामी कट्टरवाद को मिली छूट से त्रस्त हिंदू जब जान बचा कर धर्मनिरपेक्ष भारत में आते तो यहां कभी उपेक्षा मिलती और कभी तिरस्कार। एक तरफ हत्या, दुष्कर्म, अपहरण और जबरन धर्मांतरण की तलवार लटकती तो दूसरी तरफ भारत में जटिल कानूनी प्रक्रिया या कैंपों में नजरबंदी का खौफ सताता।

जातिसंहार बंटवारे की त्रासदी

गौरतलब है कि उत्पीड़न झेल रहे हिंदू, बौद्ध या सिखों ने बंटवारे की मांग नहीं की थी। बंटवारा उन पर थोपा गया था। 1947 से पाकिस्तान और फिर 1971 के बाद बांग्लादेश में चल रहा जातिसंहार बंटवारे की त्रासदी का ही विस्तृत संताप है। भारत ने इन प्रताड़ित समूहों को अब तक किसी प्रकार की विधिक सहायता प्रदान न कर अनाथ बना कर छोड़ दिया था। नागरिकता विधेयक इस भूल का देर से हुआ प्रायश्चित है।

जिन स्वयंभू धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने आज से पहले कभी किसी समूह को सहायता प्रदान करने का प्रयास नहीं किया, उन्होंने इस विधेयक के आते ही लाभार्थियों की पात्रता पर प्रश्न खड़े कर दिए। अनुच्छेद 14 और 15 का हवाला देकर बिल की संवैधानिकता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। विशेषकर अनुच्छेद 14 के दो सिद्धांतों ‘इंटेलिजिबल डिफरेंशियल’ और ‘रीजनेबल नैक्सस’ को उद्धृत कर यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि यह बिल दोनों सिद्धांतों पर खरा नहीं उतरता।

नागरिकता विधेयक इन दो कसौटियों पर उतरा खरा

कानूनी भाषा में ‘इंटेलिजिबल डिफरेंशियल’ का अर्थ वह भेद है जो कारणों की विशिष्टता को स्पष्ट करे। इसी तरह ‘रीजनेबल नैक्सस’ का अर्थ है विशिष्ट भेद के चलते प्रभावित वर्गों के लिए कानूनी प्रावधान बनाने का तर्कसंगत आधार। नागरिकता विधेयक इन दोनों कसौटियों पर खरा उतरता है। इसी विशिष्ट भेद के चलते कानून में अनुसूचित जाति, जनजाति, महिलाओं और आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए अनेक प्रावधान किए गए हैं

नागरिकता संशोधन विधेयक विशिष्ट परिस्थितियों से उत्पन्न मानवीय संकट का प्रतिउत्तर है। यदि इतनी बड़ी विभीषिका से प्रभावित लोगों के लिए विशिष्ट भेद के अंतर्गत कानून बनाने का तर्कसंगत आधार नहीं माना जाएगा तो फिर किसे माना जाएगा? इसीलिए विधेयक में सिर्फ अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंग्लादेश में त्रस्त अल्पसंख्यकों के लिए नागरिकता का प्रावधान है।

अल्पसंख्यकों के धार्मिक उत्पीड़न को हैं नकारते

जो अनुच्छेद 14 की दुहाई देकर विधेयक का विरोध कर रहे हैं उनके तर्क को माना जाएगा तो फिर दुनिया का कोई भी व्यक्ति को स्वत: भारतीय नागरिकता पाने का हकदार हो जाएगा। संवैधानिक प्रावधानों की मनमाफिक व्याख्या करने वाले आलोचक वे लोग हैं जो या तो भारत को संप्रभु, स्वायत्त राष्ट्र न मान कर एक सराय मानते हैं या फिर इन तीन देशों में बहुसंख्यक समुदाय के द्वारा अल्पसंख्यकों के धार्मिक उत्पीड़न को नकारते हैं।

नेहरू के समय बनाए गए नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा-5 की विभिन्न उपधाराओं में अविभाजित भारत में पैदा हुए नागरिक, उनके विवाहित या नाबालिग बच्चे और पहली पीढ़ी, जो कि एक वर्ष से भारत में रह रही हो, को भी इन्हीं परिस्थितियों वश नागरिकता का प्रावधान मिला था। घुसपैठ को रोकने और अन्य शरणार्थियों की मदद करने के लिए नागरिकता अधिनियम, 1955 में 1986, 1992, 2003 और 2005 में संशोधन लाए गए। चूंकि समस्या जस की तस रही इसलिए एक और संशोधन पूरी तरह न्यायोचित है।

संविधान के प्रारंभिक शब्द इंडिया दैट इज भारत

संविधान की संवेदनहीन शाब्दिक व्याख्या तक सिमटे विरोधियों को विभिन्न अनुच्छेदों से पहले संविधान की प्रस्तावना पर भी जाना चाहिए। संविधान के प्रारंभिक शब्द ‘इंडिया दैट इज भारत...’ भारतीय गणतंत्र को राष्ट्र- राज्य की मान्यता देते हैं। राष्ट्र-राज्य वह अवधारणा है जिसमें राज्य पुरातन सभ्यता और सांस्कृतिक पहचान का उत्तराधिकारी होता है और उसके ऊपर पुरातन पहचान को बनाए रखने का उत्तरदायित्व होता है।

इसी उत्तरदायित्व के पालन में नागरिकता विधेयक द्वारा पड़ोस में प्रताड़ित हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी एवं ईसाई धर्मावलंबियों को राहत देना भारतीय संघ की नैतिक एवं संवैधानिक बाध्यता है। संसद द्वारा इस विधेयक का अनुमोदन भारतीय सभ्यता के एक गहरे घाव पर मरहम का काम करेगा। साथ ही यह मरीचझापी में इस्लामी कट्टरवाद द्वारा खींची गई सीमाओं के बीच अपनी संस्कृति को बचाने के लिए जान देने वालों को हमारी श्रद्धांजलि भी होगी।

(लेखक इंडिक अकादमी से संबद्ध हैं)