[डॉ. सतीश कुमार]। कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों पर आतंकी हमला और बालाकोट में भारतीय वायुसेना द्वारा किए गए हमले के बाद भारत पाकिस्तान संबंध लगभग टूट चुका है। पाकिस्तान निरंतर झूठ बोल रहा है कि आतंकी संगठनों पर सैनिक कार्रवाई की जा रही है। दूसरी तरफ चीन ने चौथी बार मसूद अजहर को आतंकी घोषित होने नहीं दिया, सुरक्षा परिषद में वीटो पावर से उसे बचा लिया।

चीन की इस नीति से भारत का पक्ष कमजोर हुआ है। चीन ने ऐसा क्यों किया, इसके अपने कारण हैं। चीन की स्वार्थ सिद्धि और आतंकवाद पर उसके मानक में विरोधाभास है। चीन के समर्थन का कारण भी इसी की पैदाइश है।

वर्ष 1980 के अफगानिस्तान युद्ध के दौरन रूस के पक्ष को कमजोर करने की कोशिश में चीन भी शामिल था। जब तालिबान की हुकूमत अफगानिस्तान में बननी तय हो गई थी, तब पाकिस्तान के जरिये इस्लामिक आतंकी संगठनों के बीच एक अलिखित समझौता हुआ था, इस्लामिक गिरोह कभी भी चीन के मुस्लिम बहुल इलाके में अपनी घुसपैठ नहीं करेंगे। उस समय से लेकर आज तक उसी नक्शे कदम पर इस्लामिक गिरोह चीन की अड़ियल नीति के बावजूद चीन की तरफ अपना पैर नहीं फैलाते। अब प्रश्न यह उठता है कि पाकिस्तान को कैसे कब्जे में किया जाए? नेहरू की नीति से लेकर गुजराल डॉक्ट्रिन और मोदी की ‘पहले पड़ोसी’ देशों की नीति के तराजू पर पाकिस्तान को बिठाया गया। पर बात नहीं बनी। तीन युद्ध हुए, कई समझौते हुए, पर परिणाम कुछ नहीं निकला।

शिमला समझौते के बाद जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था कि अब पाकिस्तान भारत से युद्ध की हिम्मत नहीं करेगा और न ही कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंच से हवा देगा। लेकिन कुछ ही समय बाद पाकिस्तान ने पहले की तरह राग अलापना शुरू कर दिया। कारगिल युद्ध के बाद भी ऐसा ही कुछ हुआ। चूंकि भारत के साथ पाकिस्तान भी आण्विक देश बना था, यह सिद्धांत जोर पकड़ने लगा कि आण्विक हथियारों से लैस पाकिस्तान को सैनिक दबाव के द्वारा मजबूर नहीं किया जा सकता, इससे आण्विक युद्ध की आशंका बन सकती है। बालाकोट हमले के उपरांत यह भी सिद्धांत और भ्रम टूट चुका है, लेकिन हल यहां से भी नहीं निकल पाया।

भारत का उत्तर पश्चिमी मुहाना शताब्दियों से आक्रांताओं का मुख्य रास्ता रहा है। आज भी यह सीमा भारत की सुरक्षा के लिए सबसे कठिन और दुरूह तत्व बना हुआ है। भारत के व्यापारिक विस्तार को भी पाकिस्तान रोक रहा है। मध्य एशिया और ईरान के बीच गैस पाइप लाइन का विस्तार पाकिस्तान की सोच की वजह से नहीं बन पा रहा है। पाकिस्तान वर्षों से भारत विरोध का अड्डा बना हुआ है। पाकिस्तान की एक राष्ट्र राज्य की अवधारणा वैसे ही बालू की भीत पर टिकी हुई है।

गिलगित- बाल्टिस्तान में अलगाववाद की चिंगारी पुरानी है। यह क्षेत्र पाकिस्तान का कभी था ही नहीं। यह हिस्सा जम्मू कश्मीर का था, जो भारत का अंग है। अंग्रेजों की चालबाजी और नेहरू की कमजोरी की वजह से गिलगित पाकिस्तान में चला गया, जिसमें से एक बड़ा भाग पाकिस्तान ने चीन को सुपुर्द कर दिया। उसी मुहाने को अपना आधार बनाकर चीन ने ‘चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर’ की नींव रखी। वर्ष 2017 में ब्रिटिश संसद ने चीन की इस परियोजना को गलत ठहराते हुए कहा था कि पाकिस्तान को कोई अधिकार नहीं है कि उस क्षेत्र को किसी को इस्तेमाल के लिए दे।

गिलगित बाल्टिस्तान का इलाका पीओके से लगा हुआ है। इसकी भौगोलिक दशा भारत के सामरिक दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण है। इसके पश्चिम में पाकिस्तान का खैबर पख्तूनख्वा प्रांत, उत्तर में चीन और अफगानिस्तान तथा पूरब में भारत है, जिसमें दुनिया का सबसे ऊंचा युद्ध का क्षेत्र सियाचिन भी शामिल है। पाकिस्तान का सबसे बड़ा और गरीब प्रदेश बलूचिस्तान है। यहां अलगाववाद की चिंगारी सबसे तेज है। इसको केवल हवा देने की जरूरत है। यह क्षेत्र कभी पाकिस्तान का हिस्सा रहा ही नहीं। मूलत: बलूच और पश्तून ट्राइब का इलाका है जिनका इतिहास भी पाकिस्तान से अलग रहा है। पाकिस्तान के संविधान में भी इनका जिक्र दशकों तक नहीं था। पाकिस्तान सेना द्वारा यहां पर निर्मम हत्या और लूट पाट की गई। वर्ष 2006 में प्रमुख बलोच नेता बुगती की हत्या पाकिस्तान की सेना के द्वारा कर दी गई थी। इसके अलावा पाकिस्तान के भीतर कई ऐसे समुदाय हैं जिनको पाकिस्तान की सरकार ने हाशिये पर रखा हुआ है। उनको केवल सहारे की जरूरत है।

पाकिस्तान की आर्थिक हालत की जानकारी सभी को है। पाकिस्तान के दहशतगर्दी से मुस्लिम देश भी तंग हैं। अमेरिका समेत अनेक पश्चिमी देश भी उससे परेशान हैं। क्या पाकिस्तान का विखंडित होना दुनिया की शांति और दक्षिण एशिया के विकास के लिए बेहतर नहीं होगा? चूंकि भारत ने एक मजबूत पाकिस्तान सिद्धांत को हर तरह से नाप तौल लिया, हर प्रयास फेल हो गया। अब स्थिति यह बन गई है कि पाकिस्तान को बिखरने दिया जाए। इसके परिणाम का पुनर्मूल्यांकन होना भी जरूरी है, क्योंकि आण्विक हथियार किसके पल्ले में जाएगा, यह समझना भी जरूरी है।

[विदेश मामलों के जानकार]