[डॉ. मनमोहन वैद्य]। अपने ही लोगों के तीव्र विरोध के बाद भी पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में नागपुर आए, इसके लिए उनका विशेष अभिनंदन एवं धन्यवाद। वह डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार के कक्ष में भी गए और वहां अपना भाव एकदम स्पष्ट शब्दों में लिखा। वह अत्यंत सहज-सरल थे। परिचय सत्र में जब संघचालक परिचय कराने वाले ही थे कि प्रणबदा ने कहा सब अपना-अपना परिचय देंगे और स्वयं खड़े होकर कहा, ‘मैं प्रणब मुखर्जी’। उनकी यह सरलता सबके हृदय को छू गई। वहां दोनों भाषण ‘एकम सत विप्रा: बहुधा वदंति’ का उत्तम उदाहरण थे। दोनों ने अलग-अलग शब्दों में लगभग एक ही बात कही। प्रणबदा ने यह स्पष्ट किया कि पश्चिम की राज्याधारित राष्ट्र की संकल्पना और भारतीय जीवनदृष्टि आधारित राष्ट्र की भारतीय संकल्पना भिन्न है। उन्होंने 5000 वर्षों की सांस्कृतिक धारा की बात की।

वसुधैव कुटुंबकम और सर्वे भवंतु सुखिन: की परंपरा को दोहराया और सहिष्णुता, विविधता, सेक्युलरिज्म और संविधान की बात याद दिलाई। भागवत जी के भाषण का भी यही भाव था, शब्द जरा अलग थे। उन्होंने सहिष्णुता के स्थान पर सभी के समावेश की बात करते हुए कहा कि किसी भी भारतीय के लिए कोई अन्य भारतीय पराया नहीं हो सकता, क्योंकि सभी के पुरखे समान हैं। रिलीजन, भाषा या वंश के आधार पर नहीं, अपितु जीवनदृष्टि और जीवन मूल्यों के आधार पर ही भारत का राष्ट्रजीवन विकसित हुआ है और यही भारतीय राष्ट्रजीवन का आधार है, यह दोनों ने प्रतिपादित किया। दोनों के भाषणों में भारत की 5000 वर्ष पुरानी सर्वसमावेशक विविधता और विश्व को परिवार मानने वाली जीवनदृष्टि और परंपरा का गौरवपूर्ण उल्लेख हुआ। चूंकि यही जीवनदृष्टि और मूल्य संविधान में भी अभिव्यक्त हुए इसलिए यह संविधान हमारी धरोहर है। इसका कारण भारत की अध्यात्म आधारित एकात्म और सर्वांगीण जीवनदृष्टि है। इसे पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने हिंदू जीवन दृष्टि कहा है।

उदार जीवनमूल्य हमारी प्राचीन एकात्म और सर्वांगीण जीवन दृष्टि का परिणाम हैं। ये मूल्य हमें संविधान द्वारा मिले हैं। हम ऐसे हैं, इसका कारण यह नहीं कि हमारा संविधान ऐसा है, अपितु हम सदियों से ऐसे रहे हैं इसलिए हमारा संविधान ऐसा है। उसका सम्मान और पालन सभी को करना है। संघ ने यह लगातार किया है। संघ पर घोर अन्यायपूर्वक लादे गए प्रतिबंधों के समय संविधान सम्मत मार्ग से जो सत्याग्रह हुए वे अभूतपूर्व देशव्यापी, शांतिपूर्ण और अनुशासित थे। ऐसा अन्य किसी भी दल या संगठन का इतिहास नहीं है। संघ को संविधान विरोधी, अलोकतांत्रिक, हिंसक प्रचारित करने वाले किसी भी संगठन या दल का एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जो संघ के सत्याग्रह के समान व्यापक, शांतिपूर्ण और अनुशासित हो।

संविधान की धज्जियां उड़ाने वाले ही संघ को संविधान का पाठ पढ़ाने का प्रयास करते दिखते हैं। प्रणबदा के भाषण के बाद उनके नागुपर आने का विरोध करने वालों की प्रतिक्रिया भारत के राजनीतिक एवं वैचारिक जगत में कम्युनिस्टों के प्रभाव एवं उपस्थिति की याद दिलाने वाली थी। उनकी विचारधारा अभारतीय होने के कारण उनकी प्रतिक्रिया में भी उदारता और सहिष्णुता का अभाव स्वाभाविक था। उनके द्वारा कहा गया, प्रणबदा ने संघ को आईना दिखाया। ध्यान देने वाली बात है कि प्रणबदा के नागपुर आने का विरोध करने वालों में से किसी ने भी भागवत जी के भाषण पर कुछ नहीं कहा। हो सकता है कि उन्होंने यह भाषण सुना ही न हो। संभवत: अपनी जड़ वृत्ति के कारण उन्होंने उसे सुनने लायक ही नहीं समझा हो। ध्यान दीजिए, सर्वसमावेशिता में सहिष्णुता अंतर्निहित है और इसमें असहिष्णु आचरण करने वालों का भी समावेश है, किंतु कुछ लोग यह बात नहीं समझते। इनके लिए संघ के नजदीक जाना ही महापराध और ईशनिंदा है।

ऐसे में सरसंघचालक क्या कह रहे हैं, यह सुनने का तो सवाल ही नहीं है! सरसंघचालक समाज के प्रभावशाली लोगों से मिलते हैं। एक सुप्रसिद्ध उद्योगपति ने मिलते समय हिंदू के स्थान पर भारतीय शब्द का प्रयोग करने का सुझाव दिया। तब भागवत जी ने कहा कि हमारी दृष्टि से दोनों में बहुत बड़ा गुणात्मक अंतर नहीं है। परंतु भारत शब्द के साथ एक प्रादेशिक संदर्भ आता है और हिंदू शब्द पूर्णतया गुणात्मक है। इसलिए आप भारतीय कहें, हम हिंदू कहेंगे, हम इतना समझ लें कि हम सभी एक ही बात कर रहे हैं। यह बात जड़ और फासिस्ट कम्युनिस्टों को मान्य नहीं है। इनकी बिरादरी में आप उनके आदर्शों का गुणगान और्र हिंतुत्व की भर्त्सना नहीं करेंगे तो आप बाहर कर दिए जाएंगे। इसलिए कम्युनिस्टों के ‘स्वर्ग समान’ केरल में संघ का काम करने के कारण मार्च 1965 से मई 2017 तक 233 संघ कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है। इनमें से 60 प्रतिशत कार्यकर्ता वे थे जो कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर संघ में आए थे। हिंदू राष्ट्र की सर्वसमावेशक सांस्कृतिक कल्पना आप कितनी भी बार समझाइए, कम्युनिस्ट और उनके सहचर उसे संकीर्ण, विभाजक और विभेदक ही बताएंगे, क्योंकि उन्होंने तय कर दिया है कि आप ऐसे ही हो।

आज संघ में मुस्लिम, ईसाई स्वयंसेवक और प्रशिक्षित कार्यकर्ता हैं। हिंदू के नाते हम मतांतरण में विश्वास नहीं करते। इसलिए वे वर्षों से स्वयंसेवक रहते हुए अपनी ईसाई या मुस्लिम उपासना का ही अनुसरण करते है। 1998 में विदर्भ प्रांत का शिविर था। तीन दिन के लिए 30,000 स्वयंसेवक पूर्ण गणवेष में तंबुओं में रहे। ऐसे शिविर शुक्र, शनि, रविवार को ही होते हैं। शनिवार का व्रत रखने वाले कार्यकर्ताओं के लिए व्रत की अलग व्यवस्था होती है। तभी ध्यान आया कि वह रमजान का समय था और कुछ स्वयंसेवक रोजा रखने वाले हैं। उन रोजा रखने वाले 122 स्वयंसेवकों के लिए रात देर से रोजा छोड़ने की व्यवस्था की गई। यदि रमजान नहीं होता तो शायद यह पता भी नहीं चलता कि शिविर में रोजा रखने वाले स्वयंसेवक भी हैं। उदार, लिबरल, सेक्युलर लोगों के बयान ध्यान से पढ़ेंगे तो उनका अलोकतांत्रिक, संकुचित, कट्टर, सांप्रदायिक, क्षुद्र चरित्र, जो भारत के परंपरागत चरित्र से एकदम विपरीत है, तुरंत ध्यान में आएगा। प्रणबदा के नागपुर आने के कारण उनका मुखौटा फिर से उतर गया। वे कहते हैं कि प्रणबदा ने संघ को आईना दिखाया।

संघ तो हर वर्ष चिंतन बैठकों एवं प्रतिनिधि सभा में अपने आप ही आईना देख लेता है। वह अपने कार्य, मार्ग, कार्यपद्धति का सिंहावलोकन, आत्मावलोकन, मूल्यांकन करता है। इसके साथ ही आवश्यक परिवर्तन भी करता चलता है। किंतु खुद को प्रगतिशील कहने वाले रूढ़िवादी और उदार कहने वाले कट्टर-असहिष्णु लोगों की वाम-सेक्युलर लामबंदियां अपना चेहरा आईने में कब देखेंगी? यदि देखेंगी तो वह पाएंगी कि उनका मुखौटा अनेक जगह से फट गया है और उनका असली चेहरा सबको दिख रहा है। जनता इसीलिए उन्हें नकार रही है। प्रणबदा के आने से तमाम चैनलों ने इस कार्यक्रम का लाइव प्रसारण किया जिससे तमाम लोगों को संघ को समझने में मदद मिली होगी। इसके लिए विरोध करने वालों का धन्यवाद।

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं)