[ तरुण विजय ]: खुद को लिबरल और सेक्युलर बताने वाले लोग कोई ऐसा मौका और मुद्दा नहीं छोड़ते जिसका सहारा लेकर वे आग्रही भारतनिष्ठों पर आक्रमण न करें। इन्हें कभी हमने नक्सली हिंसा में शहीद होने वाले जवानों को श्रद्धांजलि देते हुए अथवा नक्सली और जिहादी हिंसा का निषेध करते हुए मुश्किल से देखा होगा। महाराष्ट्र से लेकर छत्तीसगढ़ तक नक्सली आतंकी सुरक्षा बलों के जवानों और नागरिकों की हत्याएं करते हैं, लेकिन तथाकथित सेक्युलर लोग नक्सलियों को गरीबों के हक में लड़ने वाले रूमानी क्रांतिकारी बताते नहीं थकते। ऐसे लोग अभी हाल में भारतीय सेना के एक दल द्वारा हिमालय की उंचाइयों पर येती के पदचिन्ह देखने के दावे पर उसका मजाक उड़ाने से भी नहीं चूके। इस बहाने वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर चोट करते हुए एक तरह की तृप्ति और आनंद महसूस करते दिखे। ऐसा लगा कि मानो सेना ने येती के पदचिन्ह देखने का दावा प्रधानमंत्री के कहने पर किया हो।

आज तक किसी झोलाछाप क्रांतिकारी और जंतर मंतर पर हर रोज डेरा लगाए रहने वाले बयान बहादुरों को हमने नक्सली आतंकवादियों, पुलवामा हमले के अपराधी जिहादियों या पूर्वोत्तर के अलगाववादियों के खिलाफ न तो प्रदर्शन करते हुए देखा और न ही जैश और लश्कर जैसे आतंकी संगठनों के विरोध में एक शब्द भीलिखते या बोलते देखा। विडंबना यह है कि खुद को सेक्युलर बताने वाले इन लोगों की आवाज उठती है तो केवल उन आग्रही भारतनिष्ठों के विरुद्ध जो तिरंगे की शान और संविधान के मान के लिए जान कुर्बान करने को तैयार रहते हैैं। अभी हाल तक इन सेक्युलर तत्वों का आधिपत्य हर बौद्धिक एवं अकादमिक संस्थानों, मंत्रालय, हर फेलोशिप और सरकारी अनुदानों के स्रोत पर छाया हुआ था।

एक समय तक नियम यह था कि जिस सामान्य कर्मचारी तक की पृष्ठभूमि में भगवा दिखे उसे प्रताड़ित कर या तो हटा दिया जाए या नियुक्ति के समय ही उसे खारिज कर दिया जाए। नुरूल हसन से अर्जुन सिंह तक यही चला। इस विशेषाधिकार संपन्न गिरोह में शामिल होने के लिए जरूरी था कि आप रोमिला थापर और इरफान हबीब पढ़ें और उनके लेखन से सहमत भी हों। इसी के साथ यह भी जरूरी है कि आप भगवा के खिलाफ बोलें और बहुसंख्यकों पर हमले के लिए शब्द हिंसा का सहारा ही न लें, बल्कि उन वाम विचारों को महत्व दें जो भारत से तो गायब हो रहे हैैं और अब जिनके खंडहर भी देखने को नहीं मिलते। इसके विपरीत यह भी अपेक्षा की जाती है कि आग्रही भारतनिष्ठों के विचार प्रतिबंधित ही रखे जाएं, भले ही संपूर्ण भारत में उनका समर्थन एवं उनके विचारों को पढ़ने वालों की संख्या बढ़ रही हो। ऐसा वैचारिक नाजीवाद सोवियत रूस या कम्युनिस्ट चीन में हो तो समझ आता है, लेकिन लोकतांत्रिक भारत में लोकतंत्र का ही सहारा लेकर भिन्न विचारों को प्रतिबंधित करना यह सेक्युलर नाजीवाद का भारतीय संस्करण ही कहा जा सकता है।

बीते दिनों सेना के एक पर्वतारोही दल ने अपने खोजी अभियान में बर्फ पर बड़े-बड़े पैरों के निशान देखे तो स्वाभाविक ही था कि वे वैज्ञानिकों के सामने इस तथ्य को रखते हुए पूछते कि क्या ये पदचिन्ह येती के हो सकते हैं? येती के विषय में मेरा कॉलेज के समय से अध्ययन रहा है। तिब्बत के गवर्नर से कहकर मैं दो बार दक्षिण पश्चिम तिब्बत के क्षेत्र में विश्व के महान चमत्कारी बौद्ध योगी मिलारेप्पा की गुुफा तक पहुंचा और वहां श्वेत तारा, नील तारा और डाकिनी देवियों के क्षेत्र में येती के संबंध में व्याप्त विश्वास और कथा सूत्रों का संग्रह किया। येती के विषय में प्रचुर साहित्य उपलब्ध है।

यह मान्यता बहुत पुरानी है कि हिम मानव यानी येती हिमालय की ऊंची बर्फीली चोटियों के बीच कहीं रहते हैं। कलिमपोंग में 1940 और 1950 के दशक में वहां के समाचार पत्रों में येती के बारे में अनेक लेख-समाचार प्रकाशित हुए। 1960 में एवरेस्ट विजेता सर एडमंड हिलेरी ने येती के एक कपाल को लेकर खुुमजुंग बौद्ध मठ के प्रमुख लामा के साथ येती की खोज का अभियान छेड़ा था और बाद में उस कपाल को लंदन ले जाकर उसकी वैज्ञानिक जांच कराई थी। कलिमपोंग से प्रकाशित 8 और 15 फरवरी 1959 के हिमालयन टाइम्स समाचार पत्र में येती के करीब रहकर आए लोगों और येती द्वारा गांव से उठाकर ले जाए गए लोगों के अनुभव प्रकाशित हुए।

ज्यादातर रपटें ब्रिटेन और अमेरिका में रहने वाले पश्चिमी शिक्षा पाए यात्रियों ने लिखीं। रूसी अखबार इजेविस्तिया ने येती के माध्यम से नेपाल-तिब्बत सीमा पर अभियान कर रहे टाम सलिक पर अमेरिकी जासूस होने का आरोप लगाया जो 12 मई 1957 के हिमालयन टाइम्स में छपा। येती अभियान के बहाने जासूसी के इतने अधिक आरोप लगे कि जून 1957 में नेपाल सरकार ने येती अभियान के तौर-तरीकों के बारे में एक विस्तृत नियमावली जारी की। 1960 में सर एडमंड हिलेरी द्वारा नारायण हेटटी महल में तत्कालीन महाराजाधिराज महेंद्र वीर विक्रम शाहदेव को येती का सिर भेंट किए जाने का समाचार भी प्रकाशित हुआ था।

स्विस, जर्मन और स्थानीय शेरपाओं के हजारों वृत्तों में येती का वर्णन मिलता है, लेकिन भारतीय सेना के पर्वतारोही दल ने जब येती का जिक्र किया तो कई सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने चीन के उन समाचार पत्रों को प्रमुखता से उद्धृत किया जिनमें भारतीय सैन्य दल का मखौल उड़ाया गया था। दरअसल ये वे लोग हैैं जो विदेशी अखबारों में भारतीय सेना पर अनुचित टिप्पणी को महत्व देने का कोई मौका नहीं छोड़ते। वे इन टिप्पणियों को ऐसे लपक लेते हैं मानो वह ईश्वरीय प्रसाद हो। सोशल मीडिया पर इन सेक्युलर तत्वों ने येती का सहारा लेकर मोदी और सेना पर हमले शुरू कर दिए। किसी ने लिखा कि मोदी येती का मंदिर बनाएंगे तो किसी अन्य ने लिखा कि यह बेहद शर्मनाक है कि भारतीय सेना अफवाहें फैला रही हैैं। एक ने यह भी लिखा कि भारतीय सेना को विज्ञान की नवीनतम खोजों की कोई जानकारी ही नहीं होती।

भारतीय सेना अगर दुश्मन के घर में घुसकर हमला करे तो यही लोग उस पर शक करते हैैं। वह कोई विशेष खोज करे तो उसका मजाक उड़ाते हैं और सेना के बहाने प्रधानमंत्री पर ताने मारने का भी काम करते हैैं। इस पर बहस हो सकती है कि सेना के दावे का क्या आधार है और वह कैसे इस नतीजे पर पहुंची कि पदचिन्ह येती के हैं, लेकिन आखिर उसका मजाक उड़ाना कहां तक उचित है?

( लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )