[संजय गुप्त] काबुल पर काबिज हुए तीन सप्ताह गुजरने और अमेरिकी सेना के पलायन के बावजूद तालिबान अभी तक अपनी सरकार गठित नहीं कर पाए हैं। सरकार गठन को लेकर असमंजस का दौर जारी है। तालिबान के संस्थापकों में शामिल अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में गठित होने जा रही सरकार से उम्मीदें कम, आशंकाएं ज्यादा हैं। नई सरकार को स्थिरता के साथ-साथ अफगानिस्तान की बदहाली दूर करनी होगी। पिछली बार जब 1996 में तालिबान ने अफगानिस्तान में मुल्ला उमर के नेतृत्व में शासन चलाया था तब उसे न तो पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को छोड़कर किसी देश ने मान्यता दी थी और न ही तालिबान यह भरोसा दिला सके थे कि वे देश की व्यवस्था चला सकते हैं। भारत में उस समय संयुक्त मोर्चे की सरकार थी। तालिबान के राज में 2001 तक अफगानिस्तान से भारत के संबंध नहीं रहे। वास्तव में तालिबान को लेकर भारत का अनुभव बेहद खराब रहा है। एक तो तालिबान ने आतंक के बल पर शासन कायम कर भारत के करीबी माने जाने वाले तत्कालीन राष्ट्रपति नजीबुल्ला को गोली मारने के बाद चौराहे पर लटका दिया था और दूसरे 24 दिसंबर 1999 को भारत के यात्री विमान को जिस तरह अपहृत कर कंधार ले जाया गया वह सीधे-सीधे देश को चुनौती देने वाला घटनाक्रम था।

11 सितंबर, 2001 की आतंकी घटना के बाद अमेरिका ने अलकायदा और तालिबान को उखाड़ फेंकने के लिए अफगानिस्तान में हमला बोला और इसके फलस्वरूप काबुल में तालिबानी राज समाप्त हुआ। अमेरिका ने अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना का संकल्प व्यक्त किया था। इस कड़ी में हामिद करजई को वहां का राष्ट्रपति बनाया गया, मगर इससे कोई बुनियादी बदलाव नहीं हुआ। न तो अफगानिस्तान लोकतांत्रिक देश बन सका और न ही अमेरिका तालिबान व अलकायदा की जड़ें समाप्त कर सका। अमेरिका को अफगानिस्तान में अपने हस्तक्षेप में मिली असफलता का अहसास होने लगा था। इसीलिए पहले तालिबान के साथ बातचीत का रास्ता खोला गया और फिर मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी का एलान कर दिया। 31 अगस्त को अमेरिकी सेनाओं की वापसी हो चुकी है और अफगानिस्तान फिर से तालिबान के कब्जे में है।

तालिबान ने हाल में अपने रुख-रवैये में बदलाव के संकेत दिए हैं। उसकी ओर से शासन में नरमी के साथ ही दुनिया के देशों से संबंध कायम करने की बात कही गई है, लेकिन चंद दिनों के भीतर ही तालिबान की बातों में विरोधाभास नजर आने लगा है। पहले तालिबान के एक शीर्ष नेता ने कश्मीर मुद्दे पर दखल न देने की बात कही, लेकिन गत दिवस उसके प्रवक्ता ने यह एलान कर दिया कि उनका संगठन कश्मीर समेत दुनिया भर के मुस्लिमों के अधिकारों को लेकर आवाज उठाएगा। भारत के लिए तालिबान का यह रुख चिंताजनक है, क्योंकि दुनिया जानती है कि तालिबान को पाकिस्तान से समर्थन-संरक्षण हासिल है और चीन भी उसके साथ हमदर्दी दिखा रहा है। तालिबान ने जिस तरह खुलकर चीन को अपना मुख्य साङोदार बता दिया और उसकी विस्तारवादी परियोजना वन बेल्ट वन रोड की पक्षधरता की वह यह संकेत देता है कि तालिबान के प्रति चीन का रुख क्या रहने वाला है और कैसे तालिबान-चीन-पाकिस्तान का त्रिकोण भारत के लिए स्थायी चिंता का विषय बन सकता है। चीन जैसे समृद्ध और अपना प्रभाव रखने वाले देश का तालिबान को समर्थन मिलना अनेक जटिलताएं पैदा करेगा। तालिबान पिछली बार इसलिए भी नाकाम रहे थे, क्योंकि उन्हें विश्व समुदाय ने नकार दिया था, लेकिन इस बार रूस और चीन के कारण हालात अलग हैं। चीन और रूस का समर्थन तालिबान को न केवल वैधानिकता प्रदान कर सकता है, बल्कि उसके लिए कई ऐसी संभावनाओं के द्वार खोल सकता है जो दुनिया के लिए खतरा साबित होंगी। पाकिस्तान और चीन भारत के प्रति अपने शत्रुतापूर्ण इरादों को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। तालिबान के साथ ही इस्लामिक स्टेट, जैश-ए-मुहम्मद तथा लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों की पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ से साठगांठ है, जिनका साझा एजेंडा भारत को क्षति पहुंचाना है। तालिबान राज में अफगानिस्तान और पाकिस्तान में उनकी सक्रियता बढ़ना तय है।

अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी दुनिया में कट्टरता के प्रसार का नया खतरा लेकर आई है। आतंकवाद के साझा खतरे के प्रति तमाम देश सचेत हुए हैं। एक समय सऊदी अरब कट्टरता का गढ़ था, लेकिन हाल में वहां भी परिवर्तन आया है। विश्व में कई इस्लामी देश हैं, लेकिन उनमें भी तालिबानी सोच की झलक कम मिलती है। शायद ही आज कोई देश यह कहे कि वह अपने यहां महिलाओं को सामान्य अधिकार भी नहीं देगा। तालिबान धर्म के नाम पर ऐसे तमाम देशों में कट्टरता फैला सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो आतंकवाद का साया और गहराएगा। चीन में उइगर और रूस में चेचन के रूप में मुस्लिमों की अच्छी-खासी आबादी है। ये देश भले ही अभी तालिबान की पक्षधरता करते नजर आ रहे हैं, लेकिन उन्हें समझना होगा कि अपनी कट्टरता के कारण तालिबान उनके लिए भी चुनौती बनने जा रहे हैं।

कश्मीर में हाल के दिनों में आतंकी गतिविधियों में जिस तरह बढ़ोतरी हुई है वह अफगानिस्तान के घटनाक्रम को लेकर भारत की चिंता के कारणों को रेखांकित करने वाली है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद हालात धीरे-धीरे सामान्य होने लगे थे और जो विरोधी स्वर थे वे भी शांत होने लगे थे, लेकिन अब उनकी सक्रियता फिर से बढ़ने लगी है। केंद्र सरकार को फिर से उभरते खतरे का अहसास है, लेकिन यह आवश्यक है कि सुरक्षा बलों के स्तर पर पहले की कमियां दोहराई न जाएं। घुसपैठ रोकने के लिए सीमा पर निगरानी बढ़ाए जाने के साथ सुरक्षा बलों का आधुनिकीकरण आवश्यक है। अगर कश्मीर में शांति बहाल रखनी है तो सीमाओं की सतत निगरानी करनी होगी। स्पष्ट है कि सरकार को हर स्तर पर ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे घाटी में कट्टरता को बढ़ावा न मिलने पाए। तालिबान भरोसे के काबिल नहीं हैं, लेकिन यह वक्त की जरूरत है कि उनके साथ संपर्क-संवाद जारी रखा जाए। इस संदर्भ में केंद्र सरकार सही रास्ते पर चलती नजर आ रही है, क्योंकि उसके लिए यह आकलन करते रहना जरूरी है कि पाकिस्तान तालिबान का किस हद तक इस्तेमाल कर रहा है। इस सबके बीच उन तत्वों से सतर्क रहने की जरूरत है जो तालिबान में तमाम अच्छाई देख रहे हैं। ऐसे तत्वों को बार-बार यह अहसास कराया जाना चाहिए कि देश की लगभग पूरी मुस्लिम आबादी तालिबान के विचारों से कतई असहमत है। एक सभ्य समाज में तालिबान जैसी मध्ययुगीन मानसिकता की कोई जगह नहीं हो सकती। जब पूरे देश का मुस्लिम समाज इस दृष्टिकोण को आत्मसात करेगा तभी इस समुदाय के साथ ही देश की जीत होगी।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]