[सुधांशु त्रिवेदी]। कृषि संबंधी तीन नए कानूनों को लेकर विपक्ष सरकार पर हमलावर है। उसका आरोप है कि इनसे न्यूनतम समर्थन मूल्य और किसान की र्आिथक सुरक्षा प्रभावित होगी। इस संदर्भ में एक तथ्य विस्मृत किया जा रहा है कि जुलाई 2014 में खाद्य सुरक्षा और किसानों को संरक्षण देने के मुद्दे पर भारत ने विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों को मानने से इन्कार कर दिया था। इसे लेकर मोदी सरकार की बड़ी आलोचना हुई थी। दिसंबर 2013 में संप्रग सरकार सिद्धांत रूप में जिस मसौदे पर सहमत हो रही थी, यदि मोदी सरकार ने 2014 में उसे पलट न दिया होता तो शायद आज भारत में न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का अधिकार ही खतरे में होता।

यह बिल्कुल स्पष्ट है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी समेत किसी व्यवस्था को न समाप्त किया गया है और न ही बदला गया है। केवल एक और विकल्प प्रस्तुत कर दिया गया है। जैसे किसी जमाने में केवल सरकारी कॉलेज, विश्वविद्यालय होते थे और अब निजी संस्थान भी उपलब्ध हैं, वैसे ही अब पूर्व की भांति मंडी के साथ खुले बाजार में भी फसल बेचने का अतिरिक्त विकल्प होगा।

किसी भी वस्तु का मूल्य उसकी गुणवत्ता पर ही किया जा सकता है तय

जमाखोरी के विरुद्ध 1955 में बना आवश्यक वस्तु अधिनियम उस समय का है, जब खाद्यान्न के लाले पड़े रहते थे। वह समय याद करिए जब अन्न भंडारण की जगह नहीं रह गई थी और वह खुले आकाश के नीचे सड़ रहा था। तब सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुझाव दिया था कि जब सरकार अनाज रख नहीं पा रही है तो गरीबों को मुफ्त क्यों नहीं दे देती? जो अनुबंध खेती का विरोध कर रहे हैं उन्हें बताना चाहिए कि आखिर बटाई पर खेती क्या है? यह बिना किसी व्यवस्थित कानूनी आधार पर की जा रही अनुबंध खेती ही तो है। क्या बटाई का समर्थन और व्यवस्थित एवं सुरक्षित बटाई यानी अनुबंध खेती का विरोध हास्यास्पद नहीं है? जो कह रहे हैं कि एमएसपी का कानून बना दिया जाए, वे घातक बात कह रहे हैं। किसी भी वस्तु का मूल्य उसकी गुणवत्ता पर ही तय किया जा सकता है। यदि छोटे किसानों की फसल पर बारिश पड़ने के कारण उसकी गुणवत्ता प्रभावित हो जाए और एमएसपी को कानूनी दर्जा प्राप्त होने की स्थिति में कोई उसे खरीदने से इन्कार कर दे तो उनकी पूरी फसल बर्बाद हो जाएगी, क्योंकि कानूनन वह एमएसपी से कम पर खरीदी ही नहीं जा सकती।

सोवियत संघ के बाजारों में रोटी तक के लिए हो रहे थे दंगे

किसी जमाने में घड़ी, स्कूटर और टेलीविजन भी सरकार ही बनाती थी। इन सबकी विफलता यह बताती है कि व्यापार और वाणिज्य सरकारी व्यवस्था में उपभोक्ता और सरकार, दोनों के लिए ही घाटे का सौदा साबित हुए हैं। यह बात विश्व स्तर पर भी सिद्ध हो चुकी है। 1991 में दुनिया के सबसे बड़े गेहूं उत्पादक देश सोवियत संघ के बाजारों में रोटी के लिए दंगे तक हो रहे थे। खेतों में पड़ा गेहूं जनता तक इसलिए नहीं पहुंच पा रहा था, क्योंकि कानूनी रूप से वह केवल सरकारी संस्थाओं द्वारा ही खरीदा जाना था। बाजार का विकल्प नहीं था।

त्रिपक्षीय समझौते का प्रावधान

कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों से अधिक नेता नजर आ रहे हैं। कांग्रेस शासित पंजाब में सरकार ने फल और सब्जी पर एपीएमसी एक्ट समाप्त कर रखा है। किसानों-मजदूरों के स्वयंभू मसीहा कम्युनिस्टों के केरल में किसान की औसत प्रति हेक्टेयर मासिक आमदनी, मंडी अधिनियम वाले हरियाणा के किसान से कहीं कम है। जो यह प्रश्न कर रहे हैं कि भूमिहीन किसानों का क्या होगा, वे समझ लें कि कानून में भूमि के मालिक, व्यापारी और काम करने वालों के बीच त्रिपक्षीय समझौते का प्रावधान है। भारत में 86 प्रतिशत किसान छोटे और मध्यम हैं। कई किसान मिलकर अपना संघ या कोऑपरेटिव बनाकर कोई भी व्यापारिक करार कर सकते हैं। यदि इन्हें अभी यह सुविधा नहीं दी गई तो छोटी जोत वाले किसानों की भूमि एक-दो पीढ़ियों बाद बंटकर खत्म हो जाएगी।

किसानों के प्रति दुर्भावना की राजनीति हो रही बेनकाब 

किसानों के नाम पर सस्ती राजनीति हो रही है। कांग्रेस के घोषणा-पत्र में पृष्ठ संख्या-17 के बिंदु क्रमांक 11 में लिखा है कि हम मंडी कानून को समाप्त करेंगे और अंतरराज्यीय व्यापार को खोलेंगे और कृषि को सभी बंधनों से मुक्त करेंगे। बिंदु क्रमांक-21 में लिखा है कि कांग्रेस वचन देती है कि पुराने और अप्रासांगिक हो चुके आवश्यक वस्तु अधिनियम को पूर्णत: समाप्त करेगी। यह लिखने के बाद जब ट्रैक्टर में अस्थाई सोफे पर बैठकर इस कानून का विरोध किया जाता है तो किसानों के प्रति दुर्भावना की राजनीति ही बेनकाब होती है। किसान की सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि उसे बुआई से पहले निश्चित आमदनी की कोई गारंटी नहीं होती, परंतु इन कानूनों के बाद उसे बुआई, उगाई, कटाई और ढुलाई की चिंता किए बगैर एक बंधी-बंधाई कमाई की गारंटी मिल रही है। अब ऐसी स्थिति नहीं आएगी कि नासिक की मंडियों में प्याज सड़ रहा हो और दिल्ली में उसकी किल्लत हो।

किसान के साथ-साथ जनता को भी मिलेगा बेहतर दाम

भारत में प्राचीन काल से कृषक अपनी फसल को इच्छानुसार बेचने को स्वतंत्र था। ब्रिटिश काल में कार्नवालिस ने 1793 में जो सरकारी नियंत्रण की व्यवस्था शुरू की, मोदी जी ने उसे समाप्त करते हुए भारत के किसान को वह नैर्सिगक अधिकार और स्वतंत्रता दी है जो सदा-सर्वदा से उसका हक था। आने वाले वर्षों में किसान घर बैठे ऑनलाइन अपनी फसल का व्यापार और करार कर सकते हैं। व्यापारी और किसान के बीच के करार का एक प्रारूप भी कृषि मंत्रालय बना रहा है, ताकि सभी करारों में लगभग एकरूपता हो और विवाद की संभावना न्यूनतम हो। जब किसान और बाजार के बीच में कोई नहीं होगा तो किसान के साथ-साथ जनता को भी बेहतर दाम मिलेगा और जैसे 1991 के बाद भारत धीरे-धीरे आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरा, वैसे ही अब कृषि महाशक्ति के रूप में भी उभरेगा।

(लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)