[एनके सिंह]। विश्वविख्यात अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक 'द आइडिया ऑफ जस्टिस' में एक अध्ययन का जिक्र किया है। केरल स्वास्थ्य मानदंडों में भारत के अन्य राज्य तो छोड़िए, चीन से भी आगे और लगभग यूरोप के समकक्ष है। इसका कारण वहां राज्य सरकारों द्वारा स्वास्थ्य और शिक्षा पर पिछले कुछ वर्षो में किया गया खर्च है। इसके ठीक विपरीत सरकारी भ्रष्टाचार और उदासीनता के कारण बिहार और उत्तर प्रदेश इन पैमानों पर लगातार रसातल में बने हुए हैं।

असामान्य रूप से जीवन प्रत्याशा और खासकर वृद्धावस्था की मृत्यु दर बढ़ी हुई है, लेकिन जब बीमारी को लेकर व्यक्तिगत संतुष्टि का आकलन किया गया तो केरल में सबसे ज्यादा असंतुष्ट लोग पाए गए तो बिहार और उत्तर प्रदेश में सबसे कम असंतुष्ट। इसके कारण को खोजने पर सेन को पता चला कि 'अभाव में भी संतुष्टि' का यह भाव बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों में इसलिए है कि उन्हें कभी भी सरकारों से अपेक्षा नहीं रही, क्योंकि वे जानते भी नहीं कि सरकार की भूमिका जनजीवन को उठाने में क्या और कहां तक है।  

सेन की धारणा का मतलब यह है कि अशिक्षा, अज्ञानता और सत्ता, सरकार और राज्य अभिकरणों के प्रति 'जाही विधि रखे राम, ताहि विधि रहिये' का दासत्व भाव आज भी उत्तर भारत के इन दो राज्यों में हीं नहीं, बल्कि हिंदी पट्टी में भयंकर रूप से व्याप्त है। इसके एकदम उलट केरल में हमेशा से शिक्षा की स्थिति बेहतर रही है और सामूहिक चेतना विकास के तमाम मानदंडों को लेकर तार्किक और सत्ता पर दबाव बनाने वाली रही है। एक कुंठित और तार्किक रूप से अवैज्ञानिक समझ वाले समाज को 'मैनेज' करना सरकारों के लिए ज्यादा आसान रहता है, क्योंकि भ्रष्टाचार में डूबे हुए होने के बावजूद राजनीतिक दल उन्हें भावनात्मक रूप से बरगलाकर अपने पक्ष में कर ही लेते हैं।

यहां एक प्रश्न विश्लेषकों से भी बनता है कि यदि पिछले 70 वर्षो में समाज की समझ ही गाय, तलाक, मंदिर और मस्जिद जैसे मुद्दों से ऊपर ही नहीं बढ़ पा रही है तो दोष केवल राजनीतिक वर्ग का ही क्यों माना जाए? अगर केरल जैसे शिक्षित और तार्किक सामूहिक सोच वाले राज्य में भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को ठेंगा दिखाते हुए महिलाओं को सबरीमाला में प्रवेश नहीं दिया जा रहा है तो भला राजनीतिक दल इसे क्यों नहीं भुनाएंगे।

यहां सवाल यह भी है कि अगर यह समझते हुए भी कि हर चुनाव के पहले आरक्षण, धार्मिक प्रतीकों और जातिवाद का मुद्दा 'बोतल में बंद जिन्न' की तरह बाहर निकल आता है तो समाज की आंखों पर पर्दा क्यों पड़ा रहता है और वह चुनाव दर चुनाव धोखा खाते हुए भी यह संदेश नहीं दे पाता कि खूंखार अपराधी शहाबुद्दीन की जगह संसद नहीं सलाखों के पीछे है। शहाबुद्दीन कैसे चार बार प्रजातंत्र के सबसे 'पवित्र मंदिर' लोकसभा में चुन कर आता है? और क्यों किसी लालू यादव को यह संदेश नहीं जाता कि भ्रष्टाचार और अपराध की प्रजातंत्र में जगह नहीं? कैसे किसी राजनीतिक दल का नेता जनमंच से यह चेतावनी दे सकता है कि सुप्रीम कोर्ट आस्था के मुद्दे से छेड़खानी करने से बाज आए ?

दरअसल समाज का एक तबका जिनमें कुछ शिक्षित शहरी लोग और राजनीतिक वर्ग भी शामिल है, वे जनमंचों पर तो विकास की बात करते हैं। इसे सिद्ध करने के लिए 'अपने पक्ष के चुनिंदा आंकड़े' भी पेश करते हैं, लेकिन वापस लौटकर वे दल जाति और संप्रदाय के आधार पर टिकट दे देते हैं। और यह तथाकथित शिक्षित शहरी वर्ग अपनी जाति के नेता के घर अपने बेटे की नौकरी लगवाने या अपना तबादला रुकवाने या मलाईदार जगह करवाने के लिए पहुंच जाता है। अगर आस्था इतनी अक्षुण्ण है तो फिर दुष्कर्म के आरोप में बाबा आसाराम को जेल क्यों? वह तो आज भी लाखों लोगों का भगवान है? राम रहीम को आज भी खुला छोड़ दें और देख लें कि सियासी दल उनके भक्तों के वोटों के लिए उनके आगे कैसे नतमस्तक होते हैं। 

आखिर इस संविधान का क्या होगा जिसके अनुच्छेद 14 में समानता को मौलिक अधिकार माना गया और सर्वोच्च न्यायालय से उसे बनाए रखने की अपेक्षा की गई। सबरीमाला मंदिर में तो सभी आयु की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश का मामला था और भारत में एक बड़ा वर्ग इस फैसले के पूर्व इस मंदिर का नाम भी नहीं जनता था। ऐसे में क्या राजनीतिक पार्टी के हिसाब से जहां भी समाज के किसी वर्ग की आस्था हो, अदालतों को फैसले सुनाने का हक नहीं होना चाहिए। तब फिर चौराहे या सड़कों पर एक मस्जिद, एक मंदिर हर रोज बनाए जाते रहेंगे और कुछ दिन में भक्त भी वहां आने लगेंगे। इस तरह आस्था बढ़ जाएगी और तब सड़कें जाम होने लगेंगी, क्योंकि पूजा या अजान से ऊपर कुछ नहीं। 

हम आने वाली पीढ़ियों के लिए कैसा भारत बनाते जा रहे हैं? अमर्त्य सेन ने इसका कारण बताया है। उनके अनुसार हमारे तार्किक फैसले और किसी फैसले का चुनाव करते समय असली इच्छा में एक बड़ा अंतर रहता है। इसे 'इच्छा की कमजोरी' कहते हैं जिसे ग्रीक दर्शन में 'अक्रासिया' के नाम से जाना जाता है। भारत के समाज दर्शन में इसे 'अपूर्ण आत्मनियंत्रण' भी माना गया है। कितना साम्य है, केरल के उस शिक्षित व तार्किक समाज में जो सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ महिलाओं को पुरुष सत्ता की जकड़न से निकलने नहीं देना चाहता। इसमें दोनों पक्षों की ओर से राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले खड़े हैं। वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार का बीमार समाज जो शिक्षा और स्वास्थ्य के अभाव में तिल-तिल कर मर रहा है, लेकिन 'आस्था' और 'भावनात्मक' मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय से भी दो-दो हाथ करने को उद्धत है। तभी उत्तर प्रदेश के गेरुआधारी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ 'अन्य' विकल्पों की बात कह रहे हैं तो केंद्रीय राज्यमंत्री गिरिराज सिंह ने इस अदालत से जनवरी में पीठ बनाए जाने के फैसले के अगले दिन कहा कि 'मुझे डर है कि कहीं 'हिंदुओं' के सब्र का बांध न टूट जाए। जाहिर है कि आस्था की बात आस्थावान लोगों को ही अच्छी लगेगी और अगली बार फिर कोई गिरिराज, कोई लालू या शहाबुद्दीन या कोई ओवैसी संसद की शोभा बनेंगे। आजादी के 70 साल बाद भी बिहार में कुपोषण के कारण हर दूसरा बच्चा ठूंठ (स्टंटेड) या कमजोर (वेस्टेड) पैदा होता रहेगा और बड़ा होकर अशिक्षित और अस्वस्थ होते हुए भी आस्था का झंडा ऊंचा करता रहेगा। उधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव की तैयारी के साथ अपने दलित प्रेम का प्रदर्शन करते हुए ताजा एलान किया कि 'किसी में ताकत नहीं जो अनुसूचित जाति व जनजाति का आरक्षण खत्म कर सके।' 

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)