[ ब्रह्मा चेलानी ]: अफगानिस्तान के लिए अमेरिका के विशेष दूत जालमे खलीलजाद ने कतर में तालिबान के साथ जो प्रस्तावित समझौता किया उसे ऐसे देखा जाना चाहिए मानो अमेरिका ने एक आतंकी संगठन के समक्ष समर्पण कर दिया है। असल में अमेरिकी इतिहास की सबसे लंबी लड़ाई पर विराम लगाने के लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इतने व्यग्र हो चले हैं कि उन्हें कुछ भी मंजूर है। अफगानिस्तान में अमेरिका को फंसे हुए 17 साल से अधिक हो चले हैं। ऐसे में अमेरिका तालिबान के साथ जिस समझौते के प्रारूप पर सहमत हुआ है उसमें उसने दुश्मन की अधिकांश शर्तें मान ली हैैं।

तालिबान की सबसे बड़ी मांग यह थी कि अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान से पूरी तरह वापस चली जाएं और उसे काबुल की सत्ता में साझेदारी भी मिले। इन मांगों पर भी अमेरिका ने मुहर लगा दी। बदले में इस आतंकी संगठन ने अमेरिका से एक तरह का फर्जी वादा ही किया कि वह अफगान धरती पर दूसरे आतंकी धड़ों को पैर नहीं जमाने देगा। हालांकि यह बात अलग है कि तालिबान को अफगानिस्तान में पहले से ही आइएसआइएस की तगड़ी चुनौती मिल रही है। इस ‘प्रारूप’ समझौते से हिंसा और भड़कने की आशंका है जिससे चुनी हुई अफगान सरकार भी अस्थिर हो सकती है। तथाकथित ‘शांति समझौता’ एक तरह से अफगान महिलाओं पर अत्याचार की तरह होगा, क्योंकि तालिबान उन पर वही मध्यकालीन कायदे थोपेगा जैसा उसने 1996-2001 के दौरान अपने निर्मम शासन में किया था। बीते कुछ वक्त में वहां महिलाओं और अन्य नागरिक अधिकारों के मोर्चे पर हुई प्रगति की स्थिति उलटने की आशंका बलवती हुई है।

अमेरिका ने अफगानिस्तान में जैसी शांति प्रक्रिया का वादा किया था उसके उलट उसने काबुल को भरोसे में लिए बगैर और उसके परामर्श के बिना ही तालिबान के साथ संभावित समझौता कर लिया। इसके बाद उसने अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी को इसके बारे में समझाने की कोशिश की जबकि गनी तालिबान को लेकर शंकालु रहे हैं और उन्होंने अमेरिका को आगाह भी किया कि वह तालिबान के समक्ष समर्पण की जल्दबाजी न दिखाए। इस प्रस्तावित करार में काबुल को तो अंधेरे में रखा ही गया, वाशिंगटन ने अपने ‘प्रमुख रक्षा सहयोगी’ भारत को भी भरोसे में लेने की जहमत नहीं उठाई।

राष्ट्रपति पद संभालते ही ट्रंप ने वादा किया था कि वह अफगानिस्तान में अमेरिका के लिए खराब हो रहे हालात को पलट देंगे, लेकिन दो साल बाद ही उन्हें हकीकत समझ आ गई कि वहां अमेरिका की नहीं, बल्कि इस्लामिक कट्टरपंथियों की ही जमीन मजबूत हो रही है। असल में ट्रंप उस काम को पूरा करना चाहते हैं जिसकी पहल उनके पूर्ववर्ती बराक ओबामा ने की थी, लेकिन वह अंजाम तक नहीं पहुंच पाई। यह पहल थी तालिबान के साथ समझौता करने की। तालिबान के साथ सीधे वार्ता की सुविधा के लिए ओबामा ने इस लड़ाकू संगठन को कतर की राजधानी दोहा में कूटनीतिक मिशन शुरू करने की अनुमति भी दिला दी। साथ ही 2013 में पांच कट्टर तालिबानी लड़ाकों को ग्वांतेनामो बे जेल से रिहा भी किया। इसके पीछे अमेरिका की मंशा अपने एक सैनिक की रिहाई ही नहीं, बल्कि तालिबान के साथ वार्ता के लिए मंच तैयार करना था। तब तालिबान ने वार्ता के लिए अपने पांच साथियों की रिहाई को पूर्व निर्धारित शर्त बना दिया था। इन पांचों को अमेरिका के दिवंगत सीनेटर जॉन मैकेन ने ‘कट्टरपंथियों में भी कट्टर’ करार दिया था।

अमेरिकी रुख में नरमी से तालिबान का हौसला और बढ़ा है। हो सकता है कि वह अपनी आतंकी गतिविधियों को और ज्यादा धार दे। पूरे अफगानी समाज की तो छोड़िए, तालिबान समूचे पश्तून समुदाय का ही प्रतिनिधित्व नहीं करता। इनमें से अधिकांश पाकिस्तानी हैं जिन्हें पाकिस्तान की कुख्यात एजेंसी आइएसआइ ने ही प्रशिक्षित किया है। अमेरिकी रवैये में बदलाव से यही संदेश जा रहा कि वह अफगान युद्ध से आजिज आ चुका है और सम्मानजनक तरीके से विदाई के लिए बेसब्र है। इस पृष्ठभूमि में प्रस्तावित समझौता न केवल तालिबान के उभार पर मुहर लगाता है, बल्कि उसके संरक्षक पाकिस्तान के लिए भी एक बड़ी कूटनीतिक जीत है। पाकिस्तान ने ही इस समझौते में बिचौलिये की भूमिका निभाई है।

पाकिस्तान पर अमेरिकी भरोसा घटता जा रहा है, ऐसी धारणा के उलट प्रस्तावित समझौता और उसे जल्द अंतिम रूप देकर लागू करने की अमेरिकी हड़बड़ी यही दर्शाती है कि अमेरिका के लिए पाकिस्तानी सेना और आइएसआइ की उपयोगिता बनी हुई है। इस तरह सीमा पार आतंकवाद को संरक्षण देने के बदले पाकिस्तान कूटनीतिक लाभ कमा रहा है।

नैतिकता को ताक पर रखकर अमेरिका तालिबान के साथ जिस सौदेबाजी की दिशा में कदम बढ़ा रहा है उससे उसका यह संदिग्ध रवैया भी जाहिर होता है कि लगातार आतंकी हमलों के बावजूद अमेरिका की विदेशी आतंकी संगठनों की सूची में तालिबान का नाम आखिर क्यों नहीं जोड़ा गया? पाकिस्तान स्थित तालिबान के सीमा पार ठिकानों को निशाना बनाने को लेकर भी अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य मिशन के हाथ एक तरह से बांध दिए गए। इस तरह तालिबान को कुचलने के बजाय अमेरिका ने उसे फिर से खड़ा होने और अफगानियों को आतंकित करने का अवसर दे दिया।

अमेरिका के लिए वक्त का पहिया घूमकर फिर वहीं आ गया है। अल कायदा की तरह तालिबान भी उन जिहादी समूहों में था जिन्हें सीआइए ने प्रशिक्षित कर 1980 के दशक में सोवियत संघ के खिलाफ इस्तेमाल किया था। समकालीन विश्व इतिहास में सबसे बड़ा आतंकी हमला झेलने के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में मौजूद तालिबान और उसके प्रमुख आतंकियों को नेस्तनाबूद करने का फैसला किया था, मगर अब अपनी सम्मानजनक विदाई के फेर में वह अफगानिस्तान को उन्हीं क्रूर हाथों में सौंपने के लिए तैयार है जिनके खिलाफ उसने 17 साल पहले जंग छेड़कर सत्ता से बेदखल किया था।

ताजा घटनाक्रम भारत के लिए भी व्यापक निहितार्थ वाला है जिसके बारे में अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री जिम मैटिस ने कहा था कि उसने अपनी उदार मदद से अफगान लोगों के दिल में खास जगह बनाई है। पाकिस्तान तालिबान और अन्य आतंकी समूहों का समर्थक है जिन्हें वह अफगानिस्तान और भारत के खिलाफ इस्तेमाल करता आया है। अगर अमेरिकी फौज खासकर आतंक विरोधी बल पूरी तरह अफगानिस्तान से लौट जाते हैं तो किसी भी अप्रिय स्थिति में हस्तक्षेप कर हालात सुधारने के लिए अमेरिका के पास कोई गुंजाइश नहीं रह जाएगी।

अगर पाकिस्तान की मदद से तालिबान फिर से अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हो जाता है तो 2002 से भारत द्वारा अफगानिस्तान को दी गई तीन अरब डॉलर से अधिक की मदद के फायदे भी धीरे-धीरे खत्म होते जाएंगे। एक ओर जहां अमेरिका नई दिल्ली के साथ रणनीतिक भागीदारी बढ़ा रहा है वहीं विरोधाभासी ढंग से भारत की अफगान नीति में ईरान और रूस की भूमिका की अनदेखी कर रहा है। अफगानिस्तान में अपने हितों की रक्षा के लिए भारत को हरसंभव उपाय करने होंगे, अन्यथा कश्मीर घाटी सहित भारत की सुरक्षा बुरी तरह प्रभावित होगी।

( लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं )