अश्विनी कुमार। राजद्रोह से जुड़ी भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने हाल में कुछ याचिकाओं को लेकर हस्तक्षेप किया। उनमें इस धारा की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। यह मानवाधिकार और न्यायिक शास्त्र के प्रगतिशील विस्तार में परिवर्तनकारी पड़ाव है। हाल के दौर में कई मामलों में इस पुराने औपनिवेशिक कानून का अनावश्यक इस्तेमाल हुआ है। इसने नागरिकों के अधिकारों और विधि की निर्धारित प्रक्रिया का मखौल उड़ाया है। इससे लोगों की प्रतिष्ठा एवं गरिमा पर आघात हुआ है। काटरूनिस्ट, पत्रकार, एक्टिविस्ट, बुद्धिजीवी, छात्रों और नेताओं को अपनी धारणाओं एवं मान्यताओं को लेकर लंबे समय तक इसके कारण दमनकारी उत्पीड़न एवं आपराधिक अभियोग ङोलने पड़े।

बीते दिनों महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, आंध्र और मध्य प्रदेश में राजनीतिक विरोधियों एवं अन्य लोगों पर राजद्रोह का अभियोग यही बताता है कि राजद्रोह कानून का दुरुपयोग अब कोई नई-अनोखी बात नहीं है। यह एक ऐसा मानदंड बन गया है, जिसने मूल अधिकारों की संवैधानिक गारंटी को खोखला कर दिया है। इसने लोगों के समक्ष जोखिम बढ़ा दिया है। इससे राष्ट्रीय संवेदनाओं पर इतना आघात होता दिख रहा है, जैसा पहले कभी देखने को नहीं मिला। इस संदर्भ में 11 मई को आए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को व्यापक रूप से न्यायिक स्टेट्समैनशिप के रूप में देखा जाना चाहिए। राजद्रोह कानून की समीक्षा को लेकर केंद्र सरकार के संशोधित शपथपत्र से मिली गुंजाइश को देखते हुए अदालत ने सुनवाई को कुछ समय के लिए टालने के अनुरोध को स्वीकार तो किया, लेकिन इस मामले में अंतरिम निर्देश भी जारी किए। इससे लोगों को तात्कालिक राहत मिली है।

अवधेश राजपूत

शीर्ष अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि जब तक इस मामले में अंतिम निर्णय नहीं आ जाता, तब तक केंद्र और राज्य सरकारें इसके अंतर्गत कोई नया मामला न दर्ज करें। देखा जाए तो न्यायिक इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने किसी आपराधिक कानून को असंवैधानिक करार दिए बिना ही उस पर एक तरह से रोक लगा दी। हालांकि उसके निर्देश ‘प्रथम-दृष्टया’ आधार पर अभिव्यक्त हुए हैं, जो इसका संकेत है कि उसका अंतिम निर्णय किस दिशा में हो सकता है? यह एक मिसाल है, जहां अदालत ने विधायिका की विधि निर्माण की शक्ति या नीतिगत निर्णयों पर कार्यपालिका के नियंत्रण की रेखा का उल्लंघन किए बिना नागरिकों को एक सख्त कानून से संरक्षण प्रदान किया। संविधान की उदारवादी चेतना के पक्ष में निर्णायक रूप से झुकते हुए सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक सिद्धांतों के संरक्षक के रूप में जन अपेक्षाओं पर खरा उतरा है।

चूंकि प्रत्येक निर्णय की एक स्वत: स्फूर्त शक्ति होती है और भविष्य में समान प्रकृति के मामलों पर भी उसका प्रभाव होता है, इसलिए शीर्ष अदालत से यही अपेक्षा की जा सकती है कि वह एक उद्देश्यपूर्ण प्रवर्तन सुनिश्चित करे, जिसमें मानवाधिकारों की पवित्रता की पुष्टि हो। उसके निर्णयों में इस दायित्व की निरंतर स्वीकार्यता भी प्रत्यक्ष साबित हुई है। बरदाकांता मिश्र (1974), नागराज (2006), शायरा बानू (2017) और बृजेंद्र सिंह (2016) आदि मामले इसकी मिसाल हैं। जब समग्र क्षेत्रधिकार से जुड़े मामलों की बात आए तो सुप्रीम कोर्ट को यह देखना होगा कि सरकार उसके सुझावों-आदेशों पर क्या कर रही है, विशेषकर जब ऐसे मामले नागरिकों के उन मूल अधिकारों से जुड़े हों, जिन्हें लेकर कोई समझौता नहीं हो सकता। इस लिहाज से सुप्रीम कोर्ट राजद्रोह कानून के साथ ही सरकार को एक एंटी-लिंचिंग मानवीय कानून बनाने के लिए भी प्रेरित कर सकता है, जैसा कि तहसीन पूनावाला (2018) मामले में सुझाव आया था। इसी प्रकार हिरासत में प्रताड़ना के विरुद्ध भी एक कानून बनाने की पहल हो सकती है।

एक ऐसे समय में जब राष्ट्र वास्तविक उदारवाद एवं उदारवादी लोकतंत्र होने की आकांक्षा की पूर्ति के प्रयास में लगा है, तब हिरासत में यातनाओं का अभिशाप कायम है। ऐसी प्रताड़ना के विरुद्ध एक राष्ट्रीय अभियान की रिपोर्ट के अनुसार केवल 2019 में ही हिरासत में यातना से 1,731 लोगों की मौत हो गई। ऐसी यातना से संरक्षण प्रदान करने वाले किसी कानून की अनुपस्थिति आपराधिक न्याय तंत्र के ढांचे की कलई खोलने वाली है। यह अनुच्छेद 21 में उल्लिखित प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण को भी संबोधित करता है। इस मामले में राज्यसभा की प्रवर समिति (2010), विधि आयोग (2017), मानवाधिकार आयोग और अदालती आदेश उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार अदालत से अपेक्षा है कि वह यूएपीए और उन आपराधिक कानूनों का शिकंजा ढीला करने में उचित हस्तक्षेप करे, जिनका लोगों की नागरिक स्वतंत्रता एवं अधिकारों के मामले में निरंतर दुरुपयोग हो रहा है। दुरुपयोग के ये मामले राष्ट्र की अंतरात्मा पर अमिट रूप से अंकित हो गए हैं। राज्य के एक अंग के रूप में सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्रधिकार स्पष्ट रूप से अपने घोषित कानून (नागराज, 2006) के अनुरूप है कि राज्य (न्यायालय भी जिसका एक अभिन्न अंग है) का कर्तव्य न केवल व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करना है, अपितु वह उन्हें प्रदान करने के दायित्व से भी बंधा हुआ है।

यह एक उचित अवसर एवं महत्वपूर्ण पड़ाव है, क्योंकि सरकार राष्ट्र के कानूनी ढांचे की समीक्षा कर रही है। जिन सुझावों की चर्चा की गई है, वे देश के लोकतांत्रिक स्वरूप को और निखारने का काम करेंगे और इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ संवाद-सक्रियता में भी देश की साफ्ट पावर बढ़ेगी। न्यायालय द्वारा अभिप्रेरित पहल नई आकार लेती विश्व व्यवस्था में भी देश की प्रमुख भूमिका को मान्यता प्रदान करेगी।

प्रधानमंत्री का यह कदम सराहनीय है कि उन्होंने भारत सरीखे स्वतंत्र देश पर धब्बा लगा रहे राजद्रोह कानून की समीक्षा करने की बात कही है। आशा की जानी चाहिए कि देश औपनिवेशिक विरासत के अवशेषों से शीघ्र ही स्वयं को मुक्त कर लेगा। हम उन कानूनों से मुक्ति पा लेंगे, जो हमारे ही लोगों के साथ अन्याय करने का माध्यम बने हुए हैं। और अंत में विक्टर ह्यूगो को स्मरण करना उचित होगा, जिन्होंने कहा था कि ‘कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसके मूर्त रूप लेने का समय आ गया हो।’ इस बात से हमारा हौसला बढ़ना चाहिए।

(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)