[ शंकर शरण ]: भारत में मंदिर सदैव सद्भाव और सामंजस्य बनाने की कड़ी रहे हैं। यह भी स्मरण रहे कि यहां मस्जिदों और गिरिजाघरों को बनाने का कभी विरोध नहीं हुआ तो अब मंदिर के लिए भी नहीं होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सभी के द्वारा खुले दिल से स्वागत करके एक नए युग का आंरभ करना चाहिए। आखिर, सदियों की प्रतीक्षा, आश्वासनों और संघर्ष के बाद अयोध्या में रामजन्मभूमि पर पुन: मंदिर बनने का मार्ग बना। इसके लिए हिंदुओं ने जो धैर्य दिखाया वह विश्व इतिहास में अभूतपूर्व है। किसी अन्य धर्मावलंबी समुदाय ने कभी कहीं इतना संयम दिखाया हो, ऐसा उदाहरण दुनिया में नहीं मिलता। अयोध्या एक अति-विशिष्ट स्थान है। इसका उल्लेख वेदों में भारत के सात सबसे पवित्र स्थानों में है।

अयोध्या थी इक्ष्वाकु वंश की राजधानी

इक्ष्वाकु वंश की राजधानी के रूप में अयोध्या का सम्मान केवल हिंदू ही नहीं, बौद्ध, जैन और सिख परंपराओं में भी रहा है। स्वयं गौतम बुद्ध ने खुद को राम का वंशज कहा था। विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में सरयू नदी का वर्णन तीन सबसे पावन नदियों में से एक के रूप में रहा है। अयोध्या श्रीराम के पहले से ही सूर्यवंश के महान शासकों की राजधानी रही थी। दो हजार वर्ष पहले कोरिया की रानी सूरीरत्ना (सूर्यरत्ना) को भी मूलत: अयोध्या की ही राजकुमारी माना जाता है। इस परंपरा से आज भी कोरिया के लोग जुड़े हैं। थाइलैंड, इंडोनेशिया और कंबोडिया आदि कई देशों में रामायण के जीवंत प्रसंग मिलते हैं। अयोध्या, राम और रामायण केवल भारत ही नहीं, विश्व के कई देशों में आदर पाते हैं।

गलत धारणा के कारण हिंदुओं को लंबा संघर्ष करना पड़ा

पिछले कुछ दशकों से यह गलत धारणा फैलाई गई कि अयोध्या में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद एक महत्वपूर्ण स्थल के लिए दो समुदायों के बीच का झगड़ा था, जैसा यरुशलम के लिए यहूदियों और मुसलमानों के बीच रहा है। यह सच नहीं है। मुस्लिमों के लिए अयोध्या का कभी कोई महत्व नहीं था। न धार्मिक, न ऐतिहासिक। फिर भी इसके लिए हिंदुओं को लंबा संघर्ष करना पड़ा। इस संघर्ष के पीछे एक गहरी सभ्यतागत चेतना है।

समूचे उत्तर भारत में राम मंदिरों का अभाव है

यह एक अनोखी बात है कि समूचे उत्तर भारत में राम मंदिरों का लगभग अभाव है जबकि रामायण, राम कथा से जुड़े स्थल और राम की पूजा व्यापक रूप से होती है। तब क्या उत्तर भारत में राम के मंदिर नहीं बने थे? यदि बने थे तो उनका क्या हुआ? स्पष्टत: सदियों के आक्रमणों में उन सभी को सचेत रूप से मिटाया गया, क्योंकि राम केवल ईश्वर अवतार ही नहीं, मर्यादा पुरुषोत्तम शासक भी थे। जिनका रामराज्य आदर्श रूप में भी जन-गण के मन में स्थापित था। इसीलिए राम मंदिरों को मिटाना एक मजहबी मतवादी ही नहीं, एक रणनीतिक उद्देश्य भी रखता था। क्या वही मनोवृत्ति इस आखिरी चरण में भी नहीं देखी गई?

अंग्रेज शासकों ने भी माना था कि मस्जिद से पहले मंदिर था

अयोध्या मामले में आरंभ से ही तथ्यों पर कोई विवाद नहीं था। मंदिर पर अतिक्रमण के बाद भी हिंदू वहां पर पूजा करते रहे और उस स्थान पर पुन: अधिकार के लिए लड़ते रहे। अंग्रेज शासकों ने भी माना था कि बाबरी मस्जिद से पहले मंदिर था, लेकिन उन्होंने इसे यूं ही रहने दिया। 1947 में आजादी मिलने के बाद हिंदुओं को लगा कि अब तो उन्हें रामजन्मभूमि मिल जानी चाहिए, मगर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन वामपंथी विचारों और आंदोलनों को बढ़ावा दिया जिनके लिए राम और रामायण अरुचिकर थे। नेहरूजी के बाद कांग्रेसी शासकों ने भी यही रवैया जारी रखा।

केंद्र और राज्य सरकारों ने की उपेक्षा

इतने महत्वपूर्ण स्थल के लिए स्वतंत्र भारत में केंद्र और राज्य सरकारों ने जैसी उपेक्षा दिखाई वह भी हैरत की बात रही। कई देशों में स्वतंत्रता मिलने के बाद विदेशी साम्राज्यवादी प्रतीकों, इमारतों को हटाकर राष्ट्रीय स्वाभिमान की पुनस्र्थापना की गई। ग्रीस, बुल्गारिया, सर्बिया, पोलैंड और रूस में ऐसे तमाम उदाहरण हैं। उस प्रक्रिया में ऐसे मस्जिद और चर्च भी हटाए गए जिन्हें विदेशी आक्रांताओं द्वारा जबरन बनाया गया था। अत: भारत जैसी महान सभ्यता को भी बाहरियों द्वारा खड़े किए गए अपमानजनक प्रतीकों को हटाकर अपनी धर्म परंपरा पुनस्र्थापित करने का अधिकार था। कम से कम महत्वपूर्ण हिंदू श्रद्धा स्थलों पर तो यह होना चाहिए था।

विध्वंस से पहले अनेक मुस्लिम स्थान हिंदुओं को देने के पक्ष में थे

विवादित ढांचा विध्वंस से पहले तक ऐसे अनेक मुस्लिम थे जो वहां मस्जिद के नीचे मंदिर रहे होने का प्रमाण मिल जाने पर स्थान हिंदुओं को दे देने के पक्ष में थे, लेकिन सेक्युलर-वामपंथियों ने उन्हें बरगला कर रोका। इस पृष्ठभूमि में मुसलमानों को पूरे मामले पर आत्मचिंतन करना चाहिए। न केवल पिछले दशकों की उठापटक, बल्कि सदियों का भारतीय इतिहास और दूसरे देशों, समुदायों, धर्म-परंपराओं और राजनीतिक व्यवहारों के मद्देनजर उन्हें न्याय और सत्य की तलाश करनी चाहिए। यह कोई भी देख सकता है कि इस्लाम को आदर के नाम पर दुनिया भर में जो अपेक्षा रहती है, उसका दसांश भी हिंदू धर्म-पंरपरा के लिए नहीं दिखाया जाता।

हाईकोर्ट का फैसला मानने के बदले सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई

रामजन्मभूमि पर पिछले तीस वर्षों की राजनीतिक, वैचारिक प्रक्रियाएं भी इसका प्रमाण हैं। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी, मार्क्सवादी इतिहासकार और अनेक राजनीतिक दलों ने बार-बार अपने रुख बदले। पहले बाबरी मस्जिद के नीचे मंदिर रहे होने का प्रमाण मांगा गया। जब अनेक पुरातात्विक प्रमाण मिलने लगे तो हाईकोर्ट का फैसला मानने की बात की गई। मगर फैसला आने पर, उसे मानने के बदले सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई।

सुप्रीम कोर्ट में विचित्र दलील, बाबर के कामों पर कोर्ट को विचार करने का अधिकार ही नहीं

फिर, जब सुप्रीम कोर्ट में बहस गंभीर दौर में पहुंची तब विचित्र दलील आई कि 16वीं सदी के शासक बाबर द्वारा किए गए कामों पर मौजूदा न्यायालय को विचार करने का अधिकार ही नहीं। एक तरह से हर हाल में हिंदुओं को वंचित रखने की जिद रही। क्या ऐसे रुख से सामाजिक सद्भाव बन सकता है? भारतीय मुस्लिमों को इस पर नए सिरे से विचार करना चाहिए।

सम्मान करके ही सद्भावपूर्ण संबंध बनाए जा सकते हैं 

विविध मत वाले समुदायों के संबंध केवल समानता और सभी पक्षों द्वारा किन्हीं समान सिद्धांतों का सम्मान करके ही सद्भावपूर्ण बनाए जा सकते हैं। विशेषाधिकार या एकतरफा आधार पर नहीं। अयोध्या विवाद के समाधान के बाद एक समान कसौटी बनाने के लिए खुलकर विचार करना आवश्यक है। इसी में सामाजिक संबंधों की सहजता और सद्भाव बनने की कुंजी है। इस दिशा में मुस्लिम समुदाय के विवेकशील लोगों को पहल करनी चाहिए।

( लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )