फिल्मी दुनिया के अंधेरे पक्ष

[ क्षमा शर्मा ]: हिंदी फिल्मों के युवा अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के करीब दो माह बाद इसकी जांच सीबीआइ को सौंप दी गई है कि उनकी मृत्यु किन हालात में हुई और वह हत्या थी या आत्महत्या। इस मामले की जांच सीबीआइ को सौंपे जाने के पहले विभिन्न टीवी चैनलों और सोशल मीडिया में जैसा अभियान चला वह अभूतपूर्व है। इस अभियान के बीच हिंदी फिल्म जगत में भाई-भतीजावाद की बहस चली और इसकी भी कि वहां कुछ खास समूह सक्रिय हैं जो अपना दबदबा कायम रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। कंगना रनौत के एक इंटरव्यू के बाद इस बहस ने और जोर पकड़ लिया है।

हिंदी फिल्मों के युवा अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत का इस तरह से चले जाना सचमुच दुर्भाग्य है

नि:संदेह एक संभावनापूर्ण अभिनेता का इस तरह से चले जाना सचमुच दुर्भाग्य है, लेकिन इस मामले में राजनीतिक दल जिस तरह कूदे वह भी हैरान करता है। कहा जा रहा है कि बिहार में जल्दी ही चुनाव होने वाले हैं और चूंकि सुशांत बिहार के थे इसलिए उनके बहाने युवाओं के वोट बटोरने का मौका देखा जा रहा है।

पहले भी कई अभिनेता आत्महत्या कर चुके हैं, लेकिन सुशांत के बारे में चिंता अधिक की गई

सुशांत से पहले भी कई अभिनेता, अभिनेत्रियां आत्महत्या कर चुकी हैं, मगर याद नहीं पड़ता कि उनके बारे में किसी ने इतनी चिंता प्रकट की हो या इस तरह का अभियान चला हो। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों को देखा जाए तो हर साल अपने देश में करीब 90 हजार पुरुष आत्महत्या करते हैं। वे तरह-तरह की मुश्किलों का सामना न कर पाने के कारण ऐसा कदम उठाते हैं। इनमें से बहुत से युवा ही होते हैं, लेकिन ये गरीब-गुरबे किसी खबर में जगह नहीं पाते। क्या इन मौतों की इतनी गहन जांच-पड़ताल होती है?

एक मौत और हजारों की मौत में फर्क कैसे

साल में करीब 90 हजार आत्महत्याएं कोई मामूली आंकड़ा नहीं हैं, लेकिन वे न तो सेलिब्रिटी होते हैं और न ही उन्हेंं सामने रखकर किसी चुनाव में हार-जीत तय हो सकती है, इसलिए इनकी तकदीर में मौत ही लिखी होती है। आखिर एक मौत और हजारों की मौत में इतना फर्क कैसे? क्या हमारे आंसू, हमारी सारी बहसें समर्थ के लिए ही होती हैं? आम तौर पर किसी की मौत पर हल्ला-गुल्ला तब तक नहीं मचता जब तक कि वह प्रसिद्ध न हो।

सुशांत सिंह की मौत कैसे हुई, इसका पता लगना ही चाहिए

सुशांत सिंह की मौत कैसे हुई, इसका पता लगना ही चाहिए, मगर मीडिया और नेताओं को यह भी बताना चाहिए कि ये 90 हजार के लगभग लोग उनकी चिंता का विषय क्यों नहीं हैं? क्या इनके परिवार वोट नहीं देते या फिर जब सब एक जैसी बातें कह रहे हों तो हम भी पब्लिसिटी के लिए उनकी हां में हां मिलाना बेहतर समझते हैं। इसका उत्तर जो भी हो, फिल्मों में भाई-भतीजावाद की बहस अच्छी है।

बॉलीवुड में भाई-भतीजावाद

आज फिल्मों में धर्मेंद्र, अमिताभ, मिथुन चक्रवर्ती, अक्षय कुमार आदि आसानी से जगह नहीं बना सकते, क्योंकि इन्हीं और इन जैसों के बेटे-बेटियां ए स्टार इज बॉर्न कहलाने लगते हैं। वे ही चारों तरफ छाए हुए हैं। सैफ अली खान और करीना कपूर के सुपुत्र तैमूर जन्म के बाद ही मीडिया के उसी हिस्से के जरिये एक बड़ी सेलिब्रिटी बना दिए गए हैं जो आज बॉलीवुड में भाई-भतीजावाद का जिक्र कर रहा है।

लाखों लोग फिल्मों में भाग्य आजमाने मुंबई आते हैं सफलता एक कंगना या सुशांत को ही मिलती है

अभिनय आए या न आए। अगर आप किसी बड़े फिल्मी परिवार से जुड़े हैं तो आपको फिल्मों में आसानी से प्रवेश मिल जाता है। वरना तो हर साल लाखों युवक, युवतियां फिल्मों में भाग्य आजमाने के लिए मुंबई की ओर रुख करते हैं और सफलता एक कंगना या सुशांत को ही मिलती है। बाकी सफलता की राह देखते-देखते खत्म हो जाते हैं। बहुत से अवांछित धंधों में लिप्त हो जाते हैं। ये जिन गांवों, कस्बों या छोटे शहरों से दौड़कर माया नगरी में आते हैं वहां कभी लौटकर नहीं जा पाते। जाएं भी कैसे? जिनसे कहकर आए थे कि वे भी एक दिन बड़े अभिनेता, अभिनेत्री बनेंगे उनका सामना कैसे करेंगे? वैसे भी असफल का साथी कौन होता है? एक सफल कंगना या एक सुशांत के पीछे लाखों असफल युवा अपनी किसी मामूली सी सफलता की राह ताकते हैं। यदि एक बार फिल्म में ब्रेक मिल भी जाए तो आगे की राह आसान नहीं होती। हर शुक्रवार किसी की सफलता और किसी की असफलता की खबर लेकर आता है। शिखर की फिसलन चुभती भी बहुत है।

फिल्मी दुनिया में महिलाओं का शोषण

फिल्मी दुनिया में महिलाओं के शोषण की तो बात ही क्या। जब हजारों की नौकरी पाने के लिए महिलाओं को तमाम तरह की मुश्किलों से गुजरना पड़ता है तो यहां तो मामला करोड़ों का होता है। भाई-भतीजावाद की तरह कास्टिंग काउच फिल्मों की एक भयानक सच्चाई है, लेकिन कितनी अभिनेत्रियों को इस सच के बारे में बातें करते देखा है? कुछ तो इसे संघर्ष का हिस्सा कहती हैं। यदि एक बार सफलता मिल जाए तो फिर कौन पूछता है।

फिल्मी दुनिया में सफलता ऐसा मानक बन गया है जिसमें सारे अंधेरे पक्ष छिप जाते हैं

फिल्मी दुनिया में सफलता एक ऐसा मानक बन गया है जिसमें सारे अंधेरे पक्ष छिप जाते हैं। मी-टू के वक्त भी ऐसी अभिनेत्रियों ने मुंह खोलना जरूरी नहीं समझा, क्योंकि उन्हेंं मालूम था कि जैसे ही वे ऐसा करेंगी वैसे ही न केवल उनका करियर चौपट कर दिया जाएगा, बल्कि कहीं काम भी नहीं मिलेगा।

फिल्म जगत में अभिनेता और अभिनेत्रियों के मेहनताने में बहुत अंतर

फिल्म जगत में अभिनेता और अभिनेत्रियों के मेहनताने में भी बहुत अंतर है, लेकिन युवाओं के लिए खुद को रोल मॉडल बताने वाली और मंच पर क्रांति और बदलाव का उपदेश बघारने वाली अभिनेत्रियां इस भेदभाव के विरुद्ध कितनी आवाज उठा पाती हैं? वे उन महिलाओं को सच्चाई से रू-ब-रू नहीं करा पातीं जिनसे यह कहती रहती हैं कि वे जो चाहें कर सकती हैं। बीते जमाने की अभिनेत्री हंसा वाडकर बहुत हिम्मतवाली थीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में फिल्म जगत के शोषण को बयान किया था, लेकिन सवाल यही है कि आज की अभिनेत्रियां इन बातों पर मौन क्यों रहती हैं? ध्यान रहे कि कई अभिनेत्रियां बयान दे चुकी हैं कि शोषण आखिर कहां नहीं है?

( लेखिका साहित्यकार हैं )