[ उदय प्रकाश अरोड़ा ]: द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर के नाजी यंत्रणा शिविर में लाखों लोगों के साथ जर्मनी के एक स्कूल के यहूदी प्रिंसिपल भी कैद थे। वहां से जीवित बच निकलने वाले वह अकेले शख्स थे। बाद में उन्होंने दुनिया भर के शिक्षकों से एक मार्मिक अपील की थी-‘दुनिया भर के शिक्षक बंधुओं से मेरी गुजारिश है कि अपने विद्यार्थियों को सबसे पहले इंसान बनना सिखाएं। ऐसी शिक्षा न दें कि वे हैवानियत, विक्षिप्तता या किसी मनोरोग के शिकार हो जाएं। पढ़ना-लिखना और ज्ञान प्राप्त करना महत्वपूर्ण है, पर उसी सीमा तक जहां तक व्यक्ति को वे इंसान बनाने में मदद करते हैं, हैवान बनाने में नहीं।’ वह यंत्रणा शिविर में पढ़े-लिखे लोगों की बर्बरता देख चकित थे कि कैसे ज्ञान-विज्ञान में अग्रणी जर्मनी के शिक्षित लोगों को हिटलर ने क्रूर और उन्मादी बना दिया था और वह भी लोकतंत्र के माध्यम से, जिसकी महिमा गाते हम थकते नहीं हैैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यहां उन्होंने हिंसा, नफरत और क्रूरता के लिए आधुनिक शिक्षा व्यवस्था को जिम्मेदार माना है।

हालांकि पश्चिमी जगत में हिंसा की विचारधारा केवल नाजियों और फासिवादियों तक ही सीमित नहीं थी। यूरोपीय समाजशास्त्रियों ने जब भी किसी नवीन सामाजिक-आर्थिक सिद्धांत को जन्म दिया, उसमें लक्ष्य पर पहुंचने के लिए हिंसात्मक साधनों को जरूरी माना। फिर वह चाहे किसी नए समाज के पुनर्निर्माण के लिए या पुरानी व्यवस्था के विध्वंस के लिए हो। वहां जन्मा लोकतंत्र, समाजवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद या बाजार आधारित व्यवस्था, सभी हिंसा से प्रेरित रहे हैं।

पश्चिम में लोकतंत्र भी हिंसा से ही आया है। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का नारा देने वाले प्रथम फ्रांसीसी गणराज्य की स्थापना 16,000 लोगों की हत्या के बाद हुई थी। इसी प्रकार समानता का सब्जबाग दिखाने वाले मार्क्स और एंगेल्स ने जिस व्यवस्था को जन्म दिया उसके सूत्रपात्र में भी कम यातनाएं नहीं दी गईं। लेनिन, स्टालिन, माओ और पोलपोट की सरकारों ने क्रांति के नाम पर लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। यूरोपीय पाठ्यक्रमों में भी उन्हीं का महिमामंडन है जिन आक्रांताओ ने क्रूरता दिखाई। सिकंदर, नेपोलियन, जूलियस सीजर और पिजारो का स्तुतिगान किया गया। पूरब में भी अत्तिल, तैमूर और चंगेज खां जैसे लूटपाट करने वालेक्रूर विजेताओं की महान लोगों में गणना की गई।

अमेरिका में प्रतिवर्ष 12 अक्टूबर को कोलंबस दिवस मनाया जाता है। इसी दिन कोलंबस ने अमेरिका की धरती पर पैर रखा था। इसके बाद उसने वहां जो लूटपाट की और हजारों की संख्या में स्थानीय लोगों को मार डाला उसका पश्चिमी बुद्धिजीवी उल्लेख नहीं करते, क्योंकि नैतिक मूल्यों का उनकी विद्या में कोई स्थान नहीं है। पश्चिम से भिन्न भारत का अपना एक शिक्षा दर्शन रहा है जिसमें इंद्रियों पर आधारित विद्या के अतिरिक्त नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा भी आवश्यक मानी गई है। विद्या को मुक्ति प्राप्त करने का साधन माना गया है, किंतु दुख की बात है कि हमने विरासत में प्राप्त शिक्षा के सभी मूल्यों को त्यागकर पश्चिमी शिक्षा के सामने घुटने टेक दिए हैैं। आजादी के बाद जिस शिक्षा पद्धति को हमने अपनाया उसमें हिंसात्मक संघर्ष को प्रगति की मुख्य प्रेरक शक्ति माना गया। आक्रांताओं को हमने भी महिमामंडित किया।

आज पूंजीवादी विश्व व्यवस्था अपने चरम पर है। इसमें सब कुछ बाजार आधारित है विशेष रूप से शिक्षा व्यवस्था। बाजार का नैतिकता से कोई संबंध नहीं होता। वह मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर चलता है। जिस चीज की मांग होगी उसी की पूर्ति के लिए बाजार कोशिश करता है। बाजार में यदि अश्लील साहित्य की मांग बढ़ती है तो उसे भी प्रोत्साहित करने का प्रयत्न किया जाता है। अर्थात वही शिक्षा दी जाती है जिसकी बाजार में मांग होती है। शिक्षा का मूल्यांकन धन से किया जाता है। जिस शिक्षा से जितनी अधिक कमाई, वह उतनी ही बेहतर मानी जाती है। ध्यान रहे आतंकवाद, नक्सलवाद, सांप्रदायिक दंगे और बढ़ते हुए अपराधीकरण का संबंध कहीं न कहीं इस बाजार आधारित शिक्षा व्यवस्था से अवश्य जुड़ा हुआ है।

हिंदू परंपरा में शिक्षा को कमाई से नहीं जोड़ा गया है। इसका बाजारीकरण अनैतिक है। यहां दो प्रकार की विद्याएं मानी गई हैैं पराविद्या तथा अपराविद्या। बौद्धिक ज्ञान अपराविद्या है और आत्मज्ञान पराविद्या। अपराविद्या यदि भौतिक है तो परा आध्यात्मिक है। पराविद्या मानववादी है। वह व्यक्ति को इंसान के रूप में परिवर्तित करती है। अपराविद्या किसी व्यक्ति को एक विश्वकोश तो बना सकती है, पर इंसान नहीं। यूनान में प्लेटो ने भी इस प्रकार का विभाजन किया था, किंतु आधुनिक यूरोप ने यूनान और रोम की उस शिक्षा पद्धति को अपनाया जिसमें नैतिक और आत्मबल पर नहीं, बल्कि शारीरिक बल और प्रतिस्पर्धा की भावना पर जोर दिया गया। प्रतिस्पर्धा का अर्थ है, विरोधी को नीचा दिखाना जिसमें विजेता गौरवान्वित किया जाता था और पराजित उपेक्षित।

भारतीय पद्धति में धर्म और दर्शन दो ऐसे विषय थे जिन्हें सभी विषयों के साथ पढ़ना होता था। यहां शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को केवल बौद्धिक बनाना नहीं, बल्कि नैतिक बल से युक्त बनाना था। यहां धर्म मजहब या रिलीजन नहीं, जीवन को सार्थक बनाने वाले नियम थे। अर्थात विशुद्ध अपराविद्या की शिक्षा कभी नहीं थी। परा का समावेश उसमें जरूरी था। आज समाज वैज्ञानिकों में बहस जारी है कि मनुष्य की मूल प्रवृत्ति संघर्ष है या सहयोग। यूरोप ने जिन सामाजिक सिद्धांतों को जन्म दिया उनमें मूल प्रवृत्ति संघर्ष मानी गई।

हिंदू परंपरा में मूल प्रवृत्ति सहयोग की मानी गई है। वर्ग संघर्ष का सिद्धांत इस बात की अनदेखी करता है। मानव सभ्यता यदि आज जीवित है तो सहयोग के बल पर, अन्यथा सभ्यता के प्रारंभ में ही समाज के टुकड़े-टुकड़े हो गए होते। संसार में करोड़ों लोग प्रेम से जीवन बिता रहे हैैं। सैकड़ों राष्ट्र मेल-जोल से रह रहे हैं। इसको इतिहास नोट नहीं करता, क्योंकि यह सब कुछ स्वाभाविक है। नोट तब किया जाता है जब कुछ अस्वाभाविक हो जाता है। हमारी शिक्षा में इन तथ्यों से विद्यार्थियों को अवगत करने की जरूरत है। हमने इसे अपनी विरासत में पाया है।

अशोक ने जिस प्रकार अभिलेखों के माध्यम से प्रेम और अहिंसा की शक्ति का प्रचार किया था उसी प्रकार वर्तमान भारत में शांति और अहिंसा की बातों का विभिन्न माध्यमों के जरिये प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। इन्हें पाठ्यक्रमों का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए। अहिंसा और प्रेम की शक्ति का सामाजिक-आर्थिक सिद्धांत के रूप में प्रयोग नहीं हुआ है। गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय सत्याग्रह, असहयोग, उपवास आदि विभिन्न रूपों में अहिंसात्मक प्रतिरोध के तरीकों का विकास किया है। आज जरूरत है इसे आगे बढ़ाने की।

[ लेखक जेएनयू के पूर्व ग्रीक चेयर प्रोफेसर हैैं ]