मनीषा सिंह। भारत को कथा की जन्मभूमि कहा जाता है। कहानी के प्राचीन देश के रूप में प्रख्यात हमारे देश के बारे में एक नया तथ्य यह है कि देश में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले एक चौथाई बच्चे ही सामान्य वाक्यों वाली छोटी कहानी पढ़ या सुनकर समझ पाते हैं। शेष दो तिहाई बच्चों को कहानी की सामान्य समझ भी नहीं है। ‘बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन’ के मुताबिक भारत सरकार ने हाल में एक राष्ट्रीय आकलन कराया है, जिसमें दावा किया गया है कि बच्चों में कहानी की समझ का यह पहलू एक अन्य तथ्य से रेखांकित होता है कि सामान्य वाक्यों वाली छोटी कहानी को पढ़ने और समझने में मुश्किलों का सामना करने वाले ऐसे बच्चे एक या दो अंकों के जोड़-घटाव के सवालों में भी उलझ जाते हैं। यह आकलन वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट, 2017 के आंकड़ों के आधार पर किया गया और इसे एक गंभीर समस्या के तौर पर देखा जा रहा है। खास तौर से कहानी को नहीं समझने वाला तथ्य परेशान करने वाला है, क्योंकि कहानियों के जरिये ही शुरुआती शिक्षण का सिलसिला शुरू होता है।

कहानी सदियों से भारत में रही है। किंवदंतियों में कहा जाता है कि मानव सभ्यता ने जिस वक्त इस देश यानी भारत में कदम रखा होगा, उसी समय से कहानी प्रचलन में आ गई होगी। वेदों में भी किसी बात को कथा की शैली में ही कहा गया है। विश्व साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में भी कई स्थान पर तत्कालीन समाज में कहानी या किस्सागोई की लोकप्रियता और एक प्रचलित विधा के रूप में कहानी के विद्यमान होने के प्रमाण मिलते हैं। ऋग्वेद में इंद्र की महिमा कहानी के रूप में ही कही गई है। कहानी हमारी प्राचीन शिक्षण पद्धतियों का अहम हिस्सा भी रही है। पंचतंत्र की कहानियां, बेताल पच्चीसी जैसी तमाम कहानियां हमारे ज्ञानबोध की प्रक्रिया में संभवत: सदियों से शामिल रही हैं। पहले ये श्रवण परंपरा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती थीं, बाद में लिखित पाठ्य-पुस्तकों के जरिये आगे बढ़ीं। कहानियों को सतत ज्ञान प्रक्रिया में शामिल रहना बताता है कि शिक्षण और संस्कार के लिए ये कितनी जरूरी रही हैं।

कहानी के इसी महत्व को समझते हुए हर राज्य और उसके विभिन्न हिस्सों में अनेक लोककथाओं और कहानियों का प्रचलन रहा है। साथ ही उन्हें कहने और सुनाने के कई तरीके भी प्रचलित रहे हैं। जैसे-लोरी, कांवड़ विधा, कठपुतली और कहानी को लय में गाकर सुनाने वाले तरीके। गौरतलब है कि कथावस्तु, पात्र अथवा चरित्र-चित्रण, कथोपकथन अथवा संवाद, देशकाल अथवा वातावरण, भाषा-शैली तथा उद्देश्य आदि तत्वों के आधार पर कहानी हमें जीवन और उसकी वास्तविकताओं से जोड़ती है। अलग-अलग भाषाओं और शैलियों से सुसज्जित कहानियां हमारा मनोरंजन करने के साथ-साथ हमें एक निश्चित उद्देश्य की तरफ ले जाती हैं। इन्हीं वजहों से शिक्षाशास्त्रियों की नजर में पठन-पाठन का सबसे आसान तरीका पाठ को कहानी में पिरोकर समझाना हो सकता है। एनसीईआरटी के रीडिंग डेवलपमेंट सेल ने इस बारे में एक पुस्तक ‘पढ़ना सिखाने की शुरुआत’ प्रकाशित की है, जिसमें कहानी के महत्व को रेखांकित किया गया है। इसमें लिखा गया है कि ‘कहानी बच्चों को आनंदित करती है।

कहानी से बच्‍चे सब्र से सुनना, अनुमान लगाना, कहानी के पात्रों व घटनाक्रम को याद रखना तो सीखते ही हैं, इससे उनकी एकाग्रता व स्मरण शक्ति का भी प्रशिक्षण होता है। एक बार बच्चों का किताबों की दुनिया से परिचय हो जाए तो वह उसी में रच-बस जाना चाहता है।’ यह सही है कि छोटे बच्चे कहानी के माध्यम से सिर्फ अपना पाठ्यक्रम ही नहीं, बल्कि तमाम जीवनोपयोगी बातों को सीखते हैं और कहानी से ही उनकी किताबों से दोस्ती या जुड़ाव का उपक्रम बनता है। लेकिन इधर जिस तरह से तीसरी कक्षा के बच्चों में कहानी को लेकर समझ का संकट पैदा हुआ है, वह इस बारे में गंभीर विमर्श की जरूरत पैदा करता है।

आंकड़े भले ही यह गवाही दे रहे हों कि बच्चों में कहानी के प्रति दिलचस्पी कम हो गई है, लेकिन इसके लिए बच्चे सीधे तौर पर कठघरे में नहीं खड़े किए जा सकते हैं। इसका एक दोष हमारे समाज और शिक्षण व्यवस्था पर भी जाता है। आम तौर पर अब स्कूलों में खुद शिक्षक पाठ्यक्रम और कहानी को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश करते हैं। इसके लिए वे कई बार दलील देते हैं कि पहले बच्चों का कोर्स पूरा कराएं या बच्चों को कहानी सुनाएं। बहुत से शिक्षक कहानी सुनाने और पाठ्यक्रम पूरा कराने को दो अलग मामला मानते हैं। उन्हें लगता है कि बच्चों को कहानी सुनाना और उनका कोर्स पूरा कराना अलहदा बातें हैं। हालांकि इसके लिए शिक्षक से ज्यादा दोष उस शिक्षण व्यवस्था का है जो पूरी तरह कोर्स और परीक्षा आधारित है। उसमें ज्यादा जोर किसी विषय को गहराई से समझने के बजाय सिर्फ परीक्षा पास करने में रहता है।

ऐसे में हमारे देश में कहानी के शैक्षिक महत्व को झुठलाने की परंपरा स्थापित हो गई है। शिक्षकों से कोई यह सवाल नहीं करता है कि क्या वे अपना पाठ पढ़ाते समय उसमें कहानी का समावेश करते हैं या नहीं। हालांकि उनसे यह जरूर पूछा जाता है कि क्या उन्होंने समय पर कोर्स पूरा कराया है या नहीं। इसी का परिणाम है कि बच्चे अंकों के मामूली जोड़-घटाव में भी पिछड़ रहे हैं। अन्य विषयों में भी बच्चों का रुझान इसलिए कम हो सकता है, क्योंकि कहानी के रूप में उन्हें किताबों से जोड़न वाली कड़ी गायब हो रही है। एक दोष हमारे इस कथित आधुनिक होते समाज का भी है। अब ऐसे कम ही अभिभावक होंगे जो रात में सोने से पहले अपने बच्चों को प्रेरक और सबक देने वाली कहानियां सुनाते हैं। एकल परिवारों के बढ़ते चलन में इसकी संभावना भी नगण्य ही है कि घर के बड़े-बुजुर्ग बच्चों का परिचय सीख देने वाली कहानियों से कराएं। इन तथ्यों के मद्देनजर थोड़ी-बहुत गुंजाइश स्कूली पठन-पाठन के साथ ही कहानियों से बच्चों को जोड़े रखने के रूप में ही बचती है, लेकिन उसे भी बनाए रखने का जतन नहीं किया गया तो बच्चों के पूर्ण विकास की कल्पना करना बेमानी हो जाएगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)