डॉ. अशोक कुमार मिश्र। पिछले दिनों अमेरिका में अश्वेत नागरिक जार्ज फ्लायड की पुलिस हिरासत में हुई मौत को लेकर फूटे गुस्से के चलते वाशिंगटन में प्रदर्शनकारियों ने भारतीय दूतावास में स्थापित राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रतिमा को तोड़ दिया। भारत के गौरव महात्मा गांधी की प्रतिमा के इस अपमान ने जनमानस को आहत किया है। इससे करोड़ों भारतवासियों की भावनाओं को ठेस पहुंचा। वैसे यह इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं थी। बीते दिनों भारत के अलग अलग हिस्सों में भी जिस तरह की घटनाएं हुई हैं, उससे महापुरुषों की प्रतिमाओं की अस्मिता पर मंडराते खतरों से जुड़े कई सवाल पैदा हुए हैं। क्या हम महापुरुषों की प्रतिमाओं को स्थापित करने के बाद उनका सम्मान सुरक्षित रख पाते हैं? क्या हम प्रतिमाओं का उतना ध्यान रख पाते हैं जितना किसी महापुरुष के गौरव की स्मृतियों को संजोये रखने के लिए जरूरी होता है?

यह तो अमेरिका की घटना है। भारत में तो अनेक बार प्रतिमाओं को अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ता है। कभी वह प्रदर्शनकारियों के गुस्से का शिकार होती हैं तो कभी देखरेख की कमी के चलते उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता जिस कारण उनकी स्थापना की गई है। राष्ट्रीय गौरव और एकता के प्रतीक लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा स्टेच्यू ऑफ यूनिटी को भले ही इस उद्देश्य के साथ स्थापित और पर्यटनस्थल के रूप में विकसित किया गया है कि इससे देश के नागरिकों को महापुरुषों का देश के प्रति योगदान महसूस होता रहेगा, परंतु देश में अनेक प्रतिमास्थल ऐसे भी हैं जो घोर उपेक्षा के शिकार हैं, और वहां पर प्रतिमाओं को अक्सर अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ता है।

झारखंड के हजारीबाग में कोनार नदी के तट पर कुम्हार टोली इलाके में गांधी घाट पर स्थित महात्मा गांधी की प्रतिमा को इसी फरवरी में क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। इसी नदी में गांधीजी की अस्थियों का विसर्जन किया गया था और 1948 में इस स्थान पर प्रतिमा की स्थापना की गई थी। तमिलनाडु में पेरियार, बंगाल में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और उत्तर प्रदेश के मेरठ में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की मूíत तोड़े जाने के मामले सामने आए थे। गृह मंत्रलय ने इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रहे लोगों पर कड़ी कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे, परंतु जमीनी हकीकत यह है कि प्रतिमाओं की सुरक्षा के लिए आज तक कोई खास कदम नहीं उठाए गए।

अक्सर महापुरुषों की प्रतिमाओं के आसपास गंदगी रहने, सफाई और रखरखाव पर ध्यान न देने और आसपास के परिवेश की उपेक्षा के समाचार आते रहते हैं। अक्सर जब इन महापुरुषों की जयंती, पुण्य तिथि अथवा विशेष अवसर पर कार्यक्रम आयोजित करने के लिए लोग प्रतिमास्थल पर एकत्र होते हैं, तब उनका ध्यान इन महापुरुषों की प्रतिमा की उपेक्षा की ओर जाता है। उस समय थोड़ा शोर शराबा होता है फिर लोग इस मुद्दे को भूल जाते हैं। समझ में नहीं आता कि जब हम प्रतिमाओं का सम्मान ही नहीं कर सकते, तो फिर उन्हें स्थापित क्यों करते हैं ? क्या महज राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए ?

पूरी दुनिया में महापुरुषों की प्रतिमाएं लगाई जाती हैं। भारत में भी बड़ी संख्या में महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। प्रतिमा स्थापित करने के पीछे मंशा यही होती है कि लोग संबंधित महापुरुष के आदर्शो से प्रेरणा लें और उनके बताए मार्ग पर चलकर समाज और देश के विकास में योगदान दें। इसके लिए जरूरी है कि प्रतिमा स्थापना के बाद उसके रखरखाव, सफाई और सुरक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया जाए। प्रतिमाएं खुद बदहाल स्थिति में रहेंगी, तो कोई उनसे कैसे प्रेरित होगा? ज्यादातर प्रतिमाएं खुले में लगी हैं। जाहिर है, मौसम भी उनके रंगरूप को बदरंग करता है। कई बार उनकी सुरक्षा न होने से भी अपमानजनक स्थिति बन जाती है। ऐसे में यह सुनिश्चित करना होगा कि कैसे महापुरुषों की प्रतिमाओं के सम्मान की रक्षा की जाए? उनकी देखरेख की भी पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए। सुरक्षा और देखरेख की जिम्मेदारी किसकी होगी, यह प्रतिमा लगाते समय ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

महापुरुषों के जन्म दिवस और पुण्य तिथि पर पूरे देश में समारोह आयोजित होते हैं। कुछ महापुरुषों के जन्म दिवस या निर्वाण दिवस को सरकारी अवकाश भी दिया जाता है, ताकि हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार कर सकें। लेकिन इन अवकाशों के मायने बदल गए हैं। उस दिन लोग महापुरुष को याद करने के बजाय अपने दूसरे कामों में व्यस्त रहते हैं। इसलिए जरूरी है कि उस दिन कुछ ऐसे आयोजन हों जो उस महापुरुष के व्यक्तित्व और कृतित्व को याद दिलाएं।

वास्तव में महापुरुषों के जीवन के विविध पक्ष नई पीढ़ी के लिए हमेशा से प्रेरणादायक रहे हैं। इसीलिए पहले बुजुर्ग बच्चों को महापुरुषों के संस्मरण सुनाया करते थे। एकल परिवारों के युग में इसकी गुंजाइश ही नहीं बची।  महापुरुषों की जीवनियां सिर्फ पाठ्यक्रमों में ही बच्चों को पढ़ने को मिल पाती हैं, क्योंकि पुस्तक खरीदने की प्रवृत्ति भी परिवारों में घट रही है। समाज में आज जिस तरह से नैतिकता का पतन हो रहा है, जीवन मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है, नई पीढ़ी में दिशाहीनता और भटकाव की स्थितियां दिखाई दे रही हैं, सांस्कृतिक मान्यताओं और परंपराओं के साथ खिलवाड़ हो रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए महापुरुषों के विचारों एवं आदर्शो का प्रचार प्रसार करना होगा, तभी समाज सही दिशा में आगे बढ़ पाएगा।

(लेखक एक शिक्षाविद् हैं।)